एपिसोड 1
अनुक्रम:
एपिसोड 1-3 : मंदिर
एपिसोड 4-10 : निमंत्रण
एपिसोड 11-12 : रामलीला
एपिसोड 13-16 : कामना-तरु
एपिसोड 17-19 : हिंसा परमो धर्मः
एपिसोड 20-24 : बहिष्कार
एपिसोड 25-27 : चोरी
एपिसोड 28-35 : लांछन
एपिसोड 36-38 : सती
एपिसोड 39-42 : कज़ाकी
एपिसोड 43-45 : आँसुओं की होली
एपिसोड 46-49 : अग्नि-समाधि
एपिसोड 50-54 : सुजान भगत
एपिसोड 55-58 : पिसनहारी का कुआँ
एपिसोड 59-65 : सोहाग का शव
एपिसोड 66 : आत्म-संगीत
एपिसोड 67-70 : ऐक्ट्रेस
एपिसोड 71-78 : ईश्वरीय न्याय
एपिसोड 79-84 : ममता
एपिसोड 85-89 : मंत्र-2
एपिसोड 90-93 : प्रायश्चित
एपिसोड 94-95 : कप्तान साहब
एपिसोड 96-99 : इस्तीफ़ा
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'रो मत, सुखिया! तेरा बालक अच्छा हो जाएगा। कल ठाकुर जी की पूजा कर दे, वही तेरे सहायक होंगे।'
कहानी: मंदिर
सपने में शिव
मातृ-प्रेम, तुझे धन्य है! संसार में और जो कुछ है, मिथ्या है, निस्सार है। मातृ-प्रेम ही सत्य है, अक्षय है, अनश्वर है। तीन दिन से सुखिया के मुँह में न अन्न का एक दाना गया था, न पानी की एक बूँद। सामने पुआल पर माता का नन्हा-सा लाल पड़ा कराह रहा था।
आज तीन दिन से उसने आँखें न खोली थीं। कभी उसे गोद में उठा लेती, कभी पुआल पर सुला देती। हँसते-खेलते बालक को अचानक क्या हो गया, यह कोई नहीं बताता। ऐसी दशा में माता को भूख और प्यास कहाँ? एक बार पानी का एक घूँट मुँह में लिया था पर कंठ के नीचे न ले जा सकी।
इस दुखिया की विपत्ति का वारपार न था। साल भर के भीतर दो बालक गंगा जी की गोद में सौंप चुकी थी। पतिदेव पहले ही सिधार चुके थे। अब उस अभागिनी के जीवन का आधार, अवलम्ब, जो कुछ था, यही बालक था।
हाय! क्या ईश्वर इसे भी इसकी गोद से छीन लेना चाहते हैं? यह कल्पना करते ही माता की आँखों से झर-झर आँसू बहने लगते थे। इस बालक को वह क्षण भर के लिए भी अकेला न छोड़ती थी। उसे साथ लेकर घास छीलने जाती। घास बेचने बाज़ार जाती तो बालक गोद में होता।
उसके लिए उसने नन्ही-सी खुरपी और नन्ही-सी खाँची बनवा दी थी। जियावन माता के साथ घास छीलता और गर्व से कहता, 'अम्माँ, हमें भी बड़ी-सी खुरपी बनवा दो। हम बहुत-सी घास छीलेंगे। तुम द्वारे माची पर बैठी रहना, अम्माँ। मैं घास बेच लाऊंगा।'
मां पूछती, 'मेरे लिए क्या-क्या लाओगे, बेटा?'
जियावन लाल-लाल साड़ियों का वादा करता। अपने लिए बहुत-सा गुड़ लाना चाहता था। वे ही भोली-भोली बातें इस समय याद आ-आकर माता के हृदय को शूल के समान बेध रही थीं। जो बालक को देखता, यही कहता कि किसी की डीठ है पर किसकी डीठ है? इस विधवा का भी संसार में कोई वैरी है?
अगर उसका नाम मालूम हो जाता, तो सुखिया जाकर उसके चरणों पर गिर पड़ती और बालक को उसकी गोद में रख देती। क्या उसका हृदय दया से न पिघल जाता? पर नाम कोई नहीं बताता। हाय! किससे पूछे, क्या करे? तीन पहर रात बीत चुकी थी। सुखिया का चिंता-व्यथित चंचल मन कोठे-कोठे दौड़ रहा था।
किस देवी की शरण जाए, किस देवता की मनौती करे, इसी सोच में पड़े-पड़े उसे एक झपकी आ गई। क्या देखती है कि उसका स्वामी आकर बालक के सिरहाने खड़ा हो जाता है और बालक के सिर पर हाथ फेर कर कहता है, 'रो मत, सुखिया! तेरा बालक अच्छा हो जाएगा। कल ठाकुर जी की पूजा कर दे, वही तेरे सहायक होंगे।'
यह कहकर वह चला गया। सुखिया की आँख खुल गई। अवश्य ही उसके पतिदेव आए थे। इसमें सुखिया को ज़रा भी संदेह न हुआ। उन्हें अब भी मेरी सुधि है, यह सोच कर उसका हृदय आशा से परिप्लावित हो उठा।
पति के प्रति श्रद्धा और प्रेम से उसकी आँखें सजग हो गईं। उसने बालक को गोद में उठा लिया और आकाश की ओर ताकती हुई बोली, 'भगवान! मेरा बालक अच्छा हो जाए तो मैं तुम्हारी पूजा करूँगी। अनाथ विधवा पर दया करो।'
उसी समय जियावन की आँखें खुल गईं। उसने पानी माँगा। माता ने दौड़ कर कटोरे में पानी लिया और बच्चे को पिला दिया।
जियावन ने पानी पीकर कहा, 'अम्माँ रात है कि दिन?'
सुखिया- 'अभी तो रात है बेटा, तुम्हारा जी कैसा है?'
जियावन- 'अच्छा है अम्माँ! अब मैं अच्छा हो गया।'
सुखिया- 'तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर बेटा। भगवान करे तुम जल्द अच्छे हो जाओ! कुछ खाने को जी चाहता है?'
जियावन- 'हाँ अम्माँ, थोड़ा-सा गुड़ दे दो।'
सुखिया- 'गुड़ मत खाओ भैया, अवगुन करेगा। कहो तो खिचड़ी बना दूँ।'
जियावन- 'नहीं मेरी अम्माँ, ज़रा-सा गुड़ दे दो, तेरे पैरों पडूँ।'
माता इस आग्रह को न टाल सकी। उसने थोड़ा-सा गुड़ निकाल कर जियावन के हाथ में रख दिया और हाँडी का ढक्कन लगाने जा रही थी कि किसी ने बाहर से आवाज़ दी। हाँडी वहीं छोड़ कर वह किवाड़ खोलने चली गई। जियावन ने गुड़ की दो पिंडियाँ निकाल लीं और जल्दी-जल्दी चट कर गया।
दिन भर जियावन की तबीयत अच्छी रही। उसने थोड़ी-सी खिचड़ी खाई, दो-एक बार धीरे-धीरे द्वार पर भी आया और हमजोलियों के साथ खेल न सकने पर भी उन्हें खेलते देखकर उसका जी बहल गया।
सुखिया ने समझा, बच्चा अच्छा हो गया।
दो-एक दिन में जब पैसे हाथ में आ जाएंगे तो वह एक दिन ठाकुर जी की पूजा करने चली जाएगी। जाड़े के दिन झाड़ू-बहारू, नहाने-धोने और खाने-पीने में कट गए मगर जब संध्या समय फिर जियावन का जी भारी हो गया तब सुखिया घबरा उठी।
तुरंत मन में शंका उत्पन्न हुई कि पूजा में विलम्ब करने से ही बालक फिर मुरझा गया है। अभी थोड़ा-सा दिन बाक़ी था। बच्चे को लेटा कर वह पूजा का सामान तैयार करने लगी।
फूल तो ज़मींदार के बगीचे में मिल गए। तुलसीदल द्वार ही पर था, पर ठाकुर जी के भोग के लिए कुछ मिष्ठान्न तो चाहिए, नहीं तो गाँव वालों को बाँटेगी क्या! चढ़ाने के लिए कम से कम एक आना तो चाहिए। सारा गाँव छान आई, कहीं पैसे उधार न मिले।
अब वह हताश हो गई। हाय रे अदिन! कोई चार आने पैसे भी नहीं देता। आख़िर उसने अपने हाथों के चाँदी के कड़े उतारे और दौड़ी हुई बनिये की दूकान पर गई। कड़े गिरवी रखे, बतासे लिए और दौड़ी हुई घर आई।
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