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कनुप्रिया मेरे इर्द-गिर्द डोलता एक एनसायक्लोपिडिया है, जो डायनिंग टेबल की फुर्सत की गप्पों में महज कुछ वाक्यों में ऎसी रोचक चीजें पकड़ा जाती है कि जिनके इस्तेमाल ने शिगाफ़ को भी ‘फ्लेवर’ दिया था। 

“In search of my mother's garden, I found my own.” ― Alice Walker

माँ की स्मृतियों और बेटियों के स्वप्नों को समर्पित  

भूमिका

निजी तौर पर फेमिनिज़्म शब्द की जगह एलिस वॉकर का दिया शब्द ‘वुमेनिज़्म’ मैं अपने मन के ज़्यादा करीब पाती हूं। यह शब्द स्त्रियोचित मुलायमियत लिए, ज़्यादा उर्वर और फेमिनिज़्म का एक बेहतर स्वरूप है। जो कि न केवल हर वर्ग की अधिक स्त्रियों को खुद से जोड़ता है, बजाय विचारधारागत अलगाववाद के पुरुष के साथ भी अपने को जोड़ पाता है। यह स्त्री होने के अहसास को लेकर ज़्यादा सकारात्मक प्रतीत होता है।  

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हम स्त्रियां जो आपस में गहरे जुड़ी होती हैं, भावनात्मक लचीलेपन के साथ हम अपने स्त्री होने का उत्सव मनाती हैं। हम आंसुओं की कीमत हंसी के साथ तौलती हैं और अपनी ताकत को खूब समझती हैं। हमें स्त्री और पुरुष के बीच के संतुलित पूरेपन का अहसास है। बिना अलगाववादी फेमिनिज़्म के हम पारंपरिक तौर पर समतावादी हैं। हमें नाचना पसंद है, चांद पसंद है, जीवंतता पसंद है, प्रेम से प्रेम है। खाने से और अपनी प्राकृतिक मांसलता से प्रेम है। संघर्ष से प्रेम है, लोक से प्रेम है और अंततः खुद से प्रेम है। 

ऎलिस वॉकर कहती हैं – वुमेनिज़्म इज़ टू फेमिनिज़्म एज़ परपल इज़ टू लैवेण्डर। (ज़्यादा चमकदार, आकर्षक, जीवंत और वास्तविक) मुझे इस वाक्य के समानांतर अपनी दमदारी में ‘पंचकन्या’ दर्शन लगता है। जिन्होंने हर युग में अपनी आज़ादी और अपना कन्या होना दोनों बचाए रखा।  इस उपन्यास का प्रस्थान बिंदु मुझे प्रदीप भट्टाचार्य जी के लम्बे लेख ‘पंचकन्या : वूमेन ऑफ सब्सटेंस’ से मिला था, जिसका मैंने 2002 में अनुवाद किया था। 

यह उपन्यास बरसों से मन में पड़ा रहा है। किसी अतीत के मलबे में दबे शहर-सा मन की परतों में।अपने भवन, स्नानागारों, श्रेष्ठियों- दासों, गणाधिकारियों- नर्तकियों की मूर्तियों के साथ, और मेरी कुदालें, हथोड़े, छेनियाँ, जंग खाती रहीं। लिखने का साहस न हुआ। इसी बीच ‘शिगाफ़’ लिख लिया गया,‘शालभंजिका’ भी।  

मेरे ख़्याल से अच्छा ही रहा यह वर्षों का विलम्ब, मैं और मेरी लेखनी थोड़ी परिपक्वता को तो प्राप्त हुए, समय से थोड़ी मुठभेड़ और हुई, बहुत से भ्रम टूटे, मोह – भंग हुए। प्रेम शब्द के छिलके थोड़े और उतरे। लम्बी निष्क्रियता में कुछ और किताबें पढ़ी गईं जिनसे दिमाग़ के जाले उतरे। अब एकदम सही समय है कि मैं अपने दोनों ‘पैशन’ – नृत्य और लेखन, अध्ययन और अनुभव का सही – सही ब्लेंड बनाऊं और फिर यह उपन्यास लिखूं। 

प्रदीप भट्टाचार्य जी की मैं सदा ऋणी रहूँगी, कि उन्होंने अपने ‘पंचकन्या - वूमेन ऑफ सब्सटेंस’ लेख को मुझे इस उपन्यास में संदर्भ आलेख की तरह उपयोग करने की अनुमति दी है। प्रदीप भट्टाचार्य जी से मेरा संवाद बहुत वर्षों पहले पंचकन्या की हिन्दी अनुवादिका के रूप में ही रहा, अनुवाद के संदर्भ में केवल कुछ ई - मेल्स के आदान प्रदान हुए। जब मैंने पिछले साल उनसे अपने अधूरे उपन्यास का ज़िक्र किया तो उन्होंने लेख के इस्तेमाल की सहर्ष अनुमति ही नहीं दी बल्कि हार्दिक प्रसन्नता व्यक्त की इस उपन्यास को लेकर।  

फ्रांसीसी बैले और ऑपेरा, उस समय के कॉस्ट्यूम और ग्रेट इकॉनॉमिक डिप्रेशन के समय की रोचक जानकारी के लिए मैं ‘कनुप्रिया कुलश्रेष्ठ’ की आभारी हूँ ( कि कैसे शुचिता के दबाव और पैसे के अभाव के चलते बैलेरीनाएँ ‘स्टॉकिंग्स’ न होने पर सिलाई के टांके पिंडलियों पर पेंट कर लेती थीं।) कनुप्रिया मेरे इर्द-गिर्द डोलता एक एनसायक्लोपिडिया है, जो डायनिंग टेबल की फुर्सत की गप्पों में महज कुछ वाक्यों में ऎसी रोचक चीजें पकड़ा जाती है कि जिनके इस्तेमाल ने शिगाफ़ को भी ‘फ्लेवर’ दिया था। 

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‘कथक’ में विशारद होते हुए भी ‘नृत्य’ मेरे लिए शास्त्रीयता में बंधी कोई विधा ही नहीं है,यह एक विराट उत्सव है मनुष्य की हर अनुभूति की अभिव्यक्ति का। नृत्य आत्मसात करने की इस यात्रा में आरंभ निरा लोक था, मध्य शास्त्रीय संधान रहा और पाश्चात्य नृत्यों के प्रति गहरा आकर्षण भी। अंत तो फिर भी लोक ही रहेगा यह तय है। 

उसी लोक के आलोक में - ‘ पंचकन्या स्वरानित्यम महापातका नाशका’

मनीषा कुलश्रेष्ठ 
सितम्बर 2013

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