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ज़ाहिर है, ऐसे हालात में कोई एकदम से सहज और सजग नहीं हो सकता। कुछ वक़्त लगता है। जब ठेस लगती है, तो कुछ देर के लिए दिमाग भन्ना जाता है। मैं खड़ा तो हो गया था लेकिन खुद को सँभाल नहीं नहीं पा रहा था, मेरी कमर में भी लचक आ गई थी और घुटने से दर्द की तेज़ लहर उठ रही थी।

आँखें 

उस दिन मैं एक बड़ी ख़ुशफ़हमी में था। आधी रात का वक़्त था और मैं सुनसान सड़क पर तेज़ी से चला जा रहा था। मैं यह मानकर चल रहा था कि मैं जो कुछ भी सोच रहा हूँ और जिस संभावित सुखद परिणाम की कल्पना कर रहा हूँ, वह वास्तविक रूप में भी उतना ही सुखद और रोमांचक होगा। 

दरअसल तब मैं सोलह साल की मचलती- गुदगुदाती कामनाओं के आगोश में था और उस वक़्त इतने रोमेंटिक मूड में था, कि किसी भी तरह की हक़ीक़त उसका मुक़ाबला नहीं कर सकती थी। 

लेकिन जैसा कि अक्सर होता आया है, किस्मत ठीक उस समय टांग अड़ाती है, जब हम मंज़िल के बिलकुल क़रीब होते हैं। सामने से अचानक एक ट्रक आ गया। वह सड़क बहुत संकरी थी, हेडलाइट कि चुंधियाती रोशनी के कारण मुझे आगे का कुछ भी साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था लेकिन फिर भी मैंने अपनी चाल धीमी नहीं की और अगले ही पल मेरा दायाँ पैर पता नहीं किस चीज से टकराया और मैं एक खुली नाली में मुंह के बल गिर पड़ा। मेरी टांगें तो नाली से बाहर थी, लेकिन पूरा चेहरा औए दोनों हाथ कीचड़ में धंस गए। 

जब मैंने अपना चेहरा ऊपर उठाया तो नाली के कीचड़ में मुझे दो चमकती हुई आँखें दिखाई दी। ये छोटी – छोटी आँखें कुछ इस ढंग से चमक रही थीं कि मैं सहम गया। मैंने एक पल भी गँवाए बगैर अपना सिर नाली से बाहर निकाला। सीधे खड़े होने के बाद मैंने अपने दोनों हाथों को कूल्हे से रगड़कर साफ़ किया, फिर कमीज़ का निचला हिस्सा ऊपर उठाकर चेहरे की गंदगी पोंछने लगा। लेकिन मल – मूत्र और कीचड़ की बदबू से पीछा छुड़ाना मुश्किल था। मेरा सिर भी चकरा रहा था। 

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तभी मुझे खयाल आया कि नाली में मैंने कुछ देखा था। कमर और बाँए घुटने में उठते दर्द के बावजूद मैंने झाँककर देखा, मुझे फिर वही आँखें दिखाई दी। मुझे लगा कि ये मेरा भ्रम तो नहीं है ? कि ये आँखों की बजाय कुछ और तो नहीं है ? लेकिन तभी मुझे कमज़ोर स्वर में म्याऊँ – म्याऊँ की आवाज़ सुनाई दी, इस बार मैंने अंधेरे में नज़रें जमाकर गौर से देखा – वह एक छोटी – सी बिल्ली थी। 

उसका सिर्फ चेहरा कीचड़ से बाहर था, टांगें अंदर किसी चीज से उलझकर फंस गई थी। वह मेरी और देखकर म्याऊँ – म्याऊँ की गुहार लगा रही थी और अपनी टांगों को किसी चीज की झकड़ से छुड़ाने की कोशिश कर रही थी। 

मैं सोच में पड़ गया कि अब क्या करूँ ? कुछ देर पहले मेरे दिलो- दिमाग में जो एक चहकती – महकती ख़ुशफ़हमी थी, उसकी लय एक झटके में टूट गई थी और अब मेरे सामने एक गिलगीली गलाज़त थी जो मुझे आवाज़ दे रही थी और बचाओ- बचाओ की गुहार लगा रही थी। 

ज़ाहिर है, ऐसे हालात में कोई एकदम से सहज और सजग नहीं हो सकता। कुछ वक़्त लगता है। जब ठेस लगती है, तो कुछ देर के लिए दिमाग भन्ना जाता है। मैं खड़ा तो हो गया था लेकिन खुद को सँभाल नहीं नहीं पा रहा था, मेरी कमर में भी लचक आ गई थी और घुटने से दर्द की तेज़ लहर उठ रही थी। मैं अपना एक हाथ नाली के ऊपर बने चबूतरे पर और दूसरा हाथ कमर पर रखे कुछ देर हाँफता रहा। नाली से लगातार आती म्याऊँ – म्याऊँ की आवाज़ मुझे कुछ सोचने नहीं दे रही थी। 

और वैसे भी ज़रुरत कुछ सोचने की नहीं, कुछ करने की थी। अक्सर ऐसा होता है कि एक इन्सान जो सोचता है, वह कर नहीं पता और कभी- कभी कोई अज्ञात प्रेरणा अचानक उससे कुछ ऐसा करवा लेती है, जिसके बारे में उसने कुछ सोचा ही नहीं होता। 

बिल्ली के बच्चे को नाली से बाहर निकालकर चबूतरे पर मेरे जिस हाथ ने रखा था, उस हाथ में बदबूदार गंदगी के साथ एक धड़कते हुए दिल की धड़कन का एहसास अभी तक कायम था। इतने छोटे से जीव की इतनी तेज़ धड़कन ? मैंने उसे चबूतरे पर रख दिया था लेकिन उसका दिल अभी तक मेरे दाएँ हाथ की हथेली में धड़क रहा था। वह ठंड से काँप रही थी। 

अपने भीगे हुए शरीर से गंदगी को झटकने के लिए उसने दो बार पूरे शरीर को झिंझोड़ा। अब उसके रोंए खड़े हो गए, उभरी हुई हड्डियों का ढांचा एक साथ इतना दयनीय और घिनौना दिखाई दे रहा था कि मुझे आश्चर्य हुआ कि अभी तक वह जीवित कैसे है ? 

उसकी म्याऊँ – म्याऊँ अब बंद हो गई थी, वह मुझे देख रही थी उसकी आँखों में ज़रा भी एहसानमंदगी का भाव नहीं था। 

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‘चलो कोई बात नहीं ... मैंने उसे नाली से बाहर निकालकर उस पर कोई एहसान नहीं किया है ‘, यह सोचते हुए मैंने उसका खयाल दिमाग से निकल दिया। ठेस खाकर नाली में गिरने के दौरान मेरा एक चप्पल मेरे पैर से अलग हो गया था। मैंने इधर –उधर नज़रें दौड़ाई, नाली के किनारे ओंधे पड़े चप्पल को झुककर सीधा करने के बाद उसे पहनकर मैं जैसे ही जाने को हुआ फिर से उसकी आवाज़ आई, 

‘ म्याऊँ ... .’ 

‘ अब क्या है ?’, मैंने पलटकर झल्लाते हुए कहा। लेकिन मेरी झल्लाहट को कोई तवज्जोह दिये बगैर वह दो कदम आगे बढ़ी और चबूतरे से नीचे उतरने की कोशिश करने लगी। 

‘अरे रे रे... ये क्या कर रही ...’, मैं डर गया कि वह नीचे गिरकर मर न जाए। 

लेकिन मेरी बात को अनसुनी कर वह नीचे कूद गई और मेरे कदमों के पास आकर बैठ गई। उसने गर्दन उठाई और मुझे देख्नने लगी। लेकिन इस बार मैंने मन पक्का कर लिया था। उसकी नज़रों को नज़रअंदाज़ कर मैं लम्बे – लम्बे क़दम बढ़ाते हुए तेज़ी से चलने लगा, ताकि वह पिछड़ जाए और मुझे दोबारा उसकी मायावी आँखों और उसकी कातर आवाज़ का सामना न करना पड़े। 

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