एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1 : आँखों की जुगलबंदी

एपिसोड 2 : इश्क़, शादी और शिकायत...

एपिसोड 3 : और वह...

एपिसोड 4 : व्हाट्सएप से पनपता प्रेम...

एपिसोड 5 : तक़रार का ‘मेलोड्रामा’...

एपिसोड 6 : लिब्रेशन की लापट... डिज़ायर का डंक...

एपिसोड 7 : गेम ऑफ़ लव

एपिसोड 8 : फ़िलॉस्फ़ी ऑफ़ लव

एपिसोड 9 : प्यार- खालीपन का साइड इफेक्ट...

एपिसोड 10 : मुझे अमृता चाहिए...

एपिसोड 11 : तड़प और तृप्ति...

एपिसोड 12 : प्रेमियों के गांधी...

एपिसोड 13 : मिलना जुलना और खाप...

एपिसोड 14 : संवाद और संबंध...

एपिसोड 15 : प्यार का पंचनामा...

एपिसोड 16 : साथ-साथ का अकेलापन...

एपिसोड 17 : बरसात के आंसू

एपिसोड 18 : लुटियन्स दिल्ली के गलियारे...

एपिसोड 19 : बड़े-बड़े घरों का अकेलापन...

एपिसोड 20 : अगणित अवसादों की रात...

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एपिसोड 21 : विदाई या अलगाव की शुरुआत...

एपिसोड 22 :  प्रेम में डर-मृत्यु का भय...

एपिसोड 23 : एक घूँट चाँदनी...

***

यह कौन-सी स्पंदना है जिसमें अस्तित्व बंध जाते हैं?

आँखों की जुगलबंदी...

“आँखों को पढ़ सकता हूं - आँखों से अब पढ़ा नहीं जाता-”

यह बोलकर मैं उसकी आँखों में ताकता रहा। दवा की स्ट्रिप के साथ मशगूल उसकी लम्बी और सुघड़ उंगलियाँ एकाएक आज़ाद हो गई थीं। स्ट्रिप नीचे फर्श पर गिरी पड़ी थी। आँखें एकटक थमी-सी थीं - निर्निमेष! 

“जब इतना प्यार मिले तो दवाओं की क्या ज़रूरत!” लिखा, तराशा कुछ नहीं था पर आँखों में गूंजता-सा लगा। आँखें डूबी-सी लगीं, निस्सीम तरलता में डूबी हुईं। 

आँखें आस-पास की हरियाली से एक बलंगगिरी पर्वत के शिखर पर बसे मंदिर से हटकर सीधे उसकी आँखों में ठिठककर मानो बसर करना चाहती हों। मंदिर की घंटी की आवाज़ दूर से धीमी होती जा रही थी तो उसकी साँसों की धड़कनों की आवाज़ और अधिक स्पष्ट हो रही थी। पर्वत पर पल रही सम्पूर्ण वनस्पति हमारे दिलों में भी प्यार के पुष्प को पल्लवित कर रही थी। 

ख़ामोशी-सी तारी हो चली थी, ठिठके-ठिठके अल्फाज़। अल्फ़ाज़ों के दरमियां साँसों की आवाज़ें थी। सच में जब आँखें बात करती हैं तो लगता है जुबान कंगली हो आई है। जैसे सारे शब्दकोश सीमित हो गए हों। सही और उपयुक्त शब्दों की कितनी कमी हो जाती है ऐसे वक़्त! इस प्यार को परिभाषित करें भी तो कैसे! 

हर भावना को लफ़्ज़ों का जामा पहनाना उचित भी नहीं। यह संवाद तो सिर्फ़ स्पर्श, चेहरे की रूमानियत और देह के अबोले से ही पूरा होता है। 

“क्यों इतना प्यार है? तुम क्यों इतने अच्छे लगते हो? देखा है अपनी उम्र को, मेरा मतलब हम दोनों की उम्र को।” शायद फिर से पूछ रही थी वह।

- “प्रेम!”

- “इंटेंसिटी?’’

- या दूसरों के प्रेम को छीनने की कोशिश!

- या अपनों से प्रेम न मिलने का बदला!

- या यह ‘डेस्टिनी’ थी हमारा मिलन!

- या हमारे अच्छे कर्मों का फल! 

“तुम सवाल पूछना कब बंद करोगी?”

अपने अंदाज़ को जितना फ़िल्मी बनाया जा सकता था, बनाते हुए मैंने पूछा। अमिताभ बच्चन के एंग्री यंग मैन के किरदार के प्रभाव से गुंजित अतीत और व्यक्तित्व गाहे-बगाहे फ़िल्मी लहज़े में बाहर आ जाते थे। 

“पता नहीं, पर इस इंटेंसिटी पर यक़ीन ही नहीं होता। कभी सोचा ही नहीं, कितना भरा-सा लगता है, न ही शरद कभी इन अजाने मर्मों को छू पाया, न ही ओर किसी रिश्ते ने यह तिलिस्म तोड़ा। ऑफ़िस की आपा-धापी में तो सपनों की मोहलत तक नहीं मिल पाई।

राधिका अपने में डूबती-सी बोली जा रही थी। शायद पहले उसे इतना सोचने का भी मौका नहीं मिला। अब इस बारे में सोचना भी एक सुन्दर स्वप्न को अंजाम देने-सा लगता है। 

“जानते हो, मैंने बीते बरसों में ऑफ़िस से कभी छुट्टी ही नहीं ली। अब मैं समझती हूं- मुझे डर था कि जब अकेले में ख़ुद का सामना करूंगी तो कितना डरावना होगा। भीतर से जाने क्या-क्या सवाल उमड़ पड़ेंगे, जाने कौन अछुअन टीसेगी। पिता का प्यार याद आएगा या पति की असंवेदनशीलता, भाइयों की ‘चिंताएं’ उद्वेलित करेंगी या ससुराल वालों की उदासीनता।”

राधिका अपनी रौ में बही जा रही थी, उसकी आवाज़ ने कमरे में चलते ए.सी. की धीमी-दबी आवाज़ को और दबा दिया था लेकिन अब खिड़की से पहाड़ पर स्थित मंदिर नहीं दिख रहा था बल्कि उसके ऊपर लगा ए.सी. जिसकी तेज़ आवाज़ भावनाओं में उत्तेजना एवं उद्वेलन के बीच और तेज़ लगने लगी थी। फिर ए.सी. से झरती ठंडी हवा की आवाज़ माहौल को डॉमिनेट करने लगी थी। 

“राधिका, इट इज़ शॉकिंग!”

अपनी नज़रें राधिका पर गड़ाते हुए मैंने बोला, सांचे में उतरा बदन, तराशी नाक और अंडाकार चेहरा साथ ही यहां-वहां बिखरती ज़ुल्फ़ें। “तुम इतनी बड़ी अधिकारी, इतनी योग्य, शिक्षित, सब जगह शीर्ष पर और फिर भी इतनी दयनीयता? इतनी मजबूरियां? यू शुड हैव बीन स्ट्रेंथ टू मेनी, एन एग्ज़ाम्पल बिफ़ोर देम, बट यू आर यूअरसेल्फ़ सफ़रिंग...

तुम ज़्यादतियों को सहती रही। पति की बदतमीज़ियों को बर्दाश्त किया। “डोमेस्टिक वॉयलेंस भी- कम ऑन! टैक्स पेयर्स का इतना पैसा बर्बाद हुआ, तुम्हें शिक्षित करने और एक शीर्ष अधिकारी बनाने में! तुम क्या करोगी औरों के लिए, जब तुम ख़ुद ही कमज़ोर, और सहने पे अड़ी हो।”

सारी बातें एक सांस में ही निकल गईं। राधिका सुनती रही। उसे लेकर मेरे द्वारा इस तरह ‘कंसर्न’ दिखाना उसे भरता-सा लगा। स्नेह-पूरित आँखों का लगातार मुझे तकते जाना जारी रहा। लगा कि यह सिर्फ़ टकटकी नहीं है, आत्म-प्रश्नों का एक अंधड़ भी है राधिका के भीतर- ‘मुझे ही क्यों मिली ऐसी बंटी-सी ज़िंदगी? कौन-सी धार्मिकता या अनुष्ठान पूरे नहीं किए थे मैंने? फिर आख़िर कहां कमी रह गई?’ 

राधिका विदेश मंत्रालय में उच्च अधिकारी थी, लेकिन ज़िंदगी ने उसे कड़े मुकाम दिखाए थे। शरद रॉ में था, अपरिष्कृत! उसकी नाक से बाल उखाड़ने की आदत को लेकर आए दिन नोक-झोंक होती रहती थी। कपड़ों के बारे मे उसकी अरुचि-संपन्नता और बाक़ी मामलों में उसके औसत नज़रिए ने राधिका में एक चिढ़ को जन्म दे दिया था। रही-सही कसर औरत को ‘दूसरा बिस्तर’ कहकर ठहाका मारने के उसके शगल ने पूरी कर दी थी। 

राधिका रिक्त हो गई थी। था वक़्त कभी जब उसने जी-जान से चाहा था पर धीमे-धीमे खाई गहराती चली गई। यह आदमी सारे पुल तोड़ता जा रहा है - निर्लिप्त और निस्संग। शायद ही कभी वह उस इटेंसिटी को समझे जिसमें राधिका जीती है, सांस लेती है। हर नाज़ुक पल में वह बनैला हो उठता था, उसके नथुने फूलने लगते थे, अपनी कुंठाओं से लगातार जूझता हुआ वह हीन-ग्रंथियों में डूबता-उतरता रहता था।

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सत्ता की अपनी दमक में उच्च अधिकारियों की अपनी चमक होती है। लुटियन्स दिल्ली में बड़े-बड़े मकान, सुविधाओं की प्रचुरता, और मन-माफ़िक काम की छूट के बावजूद ख़ुशियों का न होना, अचंभित करने वाला तथ्य था जिसे सबके लिए सत्य मानना कठिन है। ख़ासकर किसी आम आदमी के लिए जो इन मंत्रालयों को शिवालय मान सारे सपनों को पूरा करने का अंतिम पड़ाव मानता है और इसमें बसने वाले अधिकारियों को शायद तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं में गिनता है। 

लेकिन इन घरों में ज़्यादातर वैसे ही लोग हैं शायद जो प्रेम और अपनत्व के भूखे हैं। भावनाओं के धरातल पर सर्वथा आधारहीन। एकान्त में सूनेपन की ज़िंदगी बसर करते। हर अपरिचित आहट इन्हें डरा देती है। राधिका कई साथियों के सूनेपन एवं कइयों के खोखलेपन के बारे में अक्सर बताया करती थी। 

जब शादियां ‘अरेन्ज’ करके माता-पिता की मर्ज़ी से हों तो एक दूसरे को बिना समझे बंधन में बंधना पड़ता है और बाद में यही बंधन दोनों के जीवन को नाटकीय कर देता है। ऐसा नाटक जिसमें समाज की बनाई गई स्क्रिप्ट के अनुसार सिर्फ़ अपना किरदार अदा करना पड़ता है।

भावनाविहीन, प्रेम को तरसती कितनी सारी शादियां बिस्तर में सिसकियां लेते गुज़र जाती हैं। आत्महत्या को सोचते हैं पर साहस नहीं हो पाता। तब तक बच्चे हो जाते हैं, फिर पत्नी बच्चों को बड़ा करने के लिए जीती है और बच्चों के बड़े होने पर उनकी शादी और फिर उनके बच्चों के लिए। 

भारतीय समाज में यह कोई नई बात नहीं। स्त्रियों के सुख और ख़ुशियों की परवाह करने की कोई परंपरा यहां सिरे से नदारद रही है। स्त्रियों के आनंद की कल्पना भी सिर्फ़ पुरुषों को सुख देने तक ही सीमित रही है। 

मैंने उसकी आँखों को देखा। कई सतहें आ-जा रही थीं, एक भाषा थी जो मुखर हो उठी थी, आँख-पटल पर। ‘तुम भी औरों की तरह मुझे ही दोष दोगे, तुम भी मुझे डांटोगे! मैंने पति की ज़्यादतियां सिर्फ़ उससे प्यार पाने के लिए सहीं। अब क्या जो मुझे प्यार देगा, वह मुझ पर ज़्यादतियां करेगा? क्या प्यार मेरे जीवन में इस प्रकार प्रेम-प्रताड़ना के वर्तुल में मिलेगा?’ 

कमरे में संवाद-स्थगन से बना मौन पसर गया था। अब संवाद भंगिमाओं और अंतस की निर्ध्वनि में संपन्न हो रहा था। आँखों और चेहरे पर हल्की उदासी की परत उभर आई थी। 

मैंने ख़ुद को संभालते और उसके भावों को पढ़ते हुए पूछा- “क्या हुआ?” 

यह सवाल उससे मैं न जाने कितनी बार पूछता हूं। कभी-कभी तो मुझे पता ही नहीं चलता वह किन भावों में खो जाती है या उसे मेरी कोई बात बुरी तो नहीं लग गई। अपने दर्द, अतीत और संवेदनशील माहौल ने उसे कुछ ज़्यादा ही सशंकित बना दिया। वह कभी-कभी मज़ाक वाली बातों का भी बुरा मान जाती है। लेकिन ‘क्या हुआ’, मेरा यह पूछना ऐसे में उसके पनपते नकारात्मक सोच को ज़्यादातर विराम दे देता है और सचेत होकर वह प्यार में डूबने को फिर से तैयार हो जाती है। 

“कुछ नहीं”- राधिका अब तक संभल चुकी थी और उसने माहौल को हल्का करने का बीड़ा उठा लिया था- “यार यह तुम जो ‘र’ को ‘ड़’ और ‘ड़’ को ‘र’ बोलते हो, कितना क्यूट लगता है!” सामान्य होने के क्रम में राधिका की ‘छेड़’ जग गई थी। “तुम जानते हो कि तुम ब्ल्यू नहीं ‘बुलू’ बोलते हो, इट्स सो स्वीट एंड दैट्स व्हाय आय स्टार्टेड लविंग दिस ‘बुलु’ कलर मोर।” 

“अरे! अब बंद भी करो यह ‘भाषा’ की बारीकियाँ। मैं ऐसे ही बोलता हूं और ऐसे ही बोलूंगा। पैंतालीस वर्षों में जब यह ‘एक्सेंट’ नहीं बदला, अब क्या बदलेगा और अब न ही इसे बदलने का इरादा है। ‘जो तुमको हो पसन्द वही बात कहेंगे।” बातों को फ़िल्मी सन्दर्भों या तरीकों से प्रभावी बनाकर समाप्त करने की सिफ़त का मुज़ाहिरा भी हो गया। “जानती हो, अगर जीवन में सफल हुआ तो लोग इस ‘स्टाइल’ की नकल करेंगे, और यही ‘गँवारपना’ ‘इनोसेंस’ से नवाज़ा जाएगा।” 

फिर आँखों में लगभग घूरते हुए मैंने पूछा- “तुमको भी तो पसंद है यह, है न, बोलो न?”

“दुनिया की सारी प्रगाढ़ताएँ आलिंगन में कसने लगी थीं। परस्पर उष्मित आदिमता दोनों की देह में तरल होकर बहने लगी। चुम्बित, प्रति-चुम्बित। फुसु फ़ाश होने लगा। यह कौन-सी स्पंदना है जिसमें अस्तित्व बंध जाते है। अधरों पे अधर की रंगोली, चेहरे पर सुकून और स्नेह। राधिका प्रकृतिस्थ नहीं थी, प्रकृतितः हो रही थी। मैंने लक्ष्य किया कि गहन पलों में उसका आत्मविश्वास एवं निर्णायक शारीरिक भाव-भंगिमाओं से लरजती देह और उसके पार की चेष्टा उसके व्यक्तित्व का विस्तार ही है। 

फ़िराक़ ने एक शेर यूँ लिखा हैः-

‘इश्क़ तौफ़ीक़ है गुनाह नहीं’

कहकर मैं उसकी बाँहों में लिपटकर

उसके और करीब आ गया...

और इश्क़ देहरूपी विस्तार में 

गुनाह क़ुबूल होने लगे।

अब साँसों की बारीकियां भी महसूस होने लगी थीं। एक गाढ़ेपन में मन, आत्मा, देह सब बहने लग पड़े थे।

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