एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1-5 : बेतरतीब
एपिसोड 6-9 : उपस्थिति
एपिसोड 10-13 : इस जहाँ में हम
एपिसोड 14-17 : छावनी में बेघर
एपिसोड 18-20 : मुक्तिप्रसंग
एपिसोड 21-23 : मेरे हमदम, मेरे दोस्त
एपिसोड 24-26 : रहगुजर की पोटली
एपिसोड 27-34 : मिड डे मील
एपिसोड 35-38 : कत्थई नीली धारियों वाली कमीज

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कभी-कभी उन्हें देखकर लगता कि वे दोनों मरने की दौड़ में शामिल हैं। ‘पहले मैं, पहले मैं’ की तर्ज पर व्यथित होकर एक दूसरे को यातना देते रहते हैं।

कहानी: बेतरतीब

यातना

“हे कर्णधारों! अपने माँ-बाप को प्रथम पुरुष की तरह देखो। सत-असत का विवेक तभी सम्भव है।” 

इस आप्त वाक्य से प्रेरणा लेकर, कर्णधारों में अपने को मानते हुए हमने अपने माँ-बाप का जीवन परीक्षालन करना शुरू किया। हम चार जने यानी तीन लड़कियां और एक अकेला लड़का। इसी लड़के के इंतज़ार में हम तीन जने इस दुनिया में आ टपके थे।

इसी का इंतज़ार न होता तो कब का दो पर स्टाप लग गया होता। तीसरी महारानी जी भी न आतीं। अब आ गये हैं तो कुछ न कुछ खुराफात करेंगे ही। लड़का निर्लिप्त है। शायद कभी वह भी इस तरफ सोचे। फिलहाल नहीं सोचता।

हमीं तीन अक्ल के मारे हैं। कहने को तो हम तीन पर लिखने की यह जिम्मेदारी सीधे-सीधे मेरे सिर पड़ी। बाकी दोनों तो लौट गयीं। मेरे ही दिल में खलबली। सो कुछ भी कहने के पहले अपनी तरफ से साफ-साफ कह दूँ कि हमारे माँ-बाप दुनिया के किसी भी माँ-बाप से कम सुन्दर, कम महान नहीं हैं। वे हममें हैं। हमारी पीढ़ी दर पीढ़ी में हैं। उन्हें प्रथम पुरुष की तरह देखना क्या कम कष्टदायक है? मानो अपने ही अंग को काटकर निहारना कि कैसा है वह!

तो जब-जब हम उन्हें झाड़-पोंछकर ठीक-ठीक देखने की कोशिश करते, आँखों में दरार पड़ जाती। हम कुछ महान और बड़ा देखना चाहते थे पर कुछ ठीक से दिखता ही नहीं, जो दिखता, उसमें से कुछ हम मानने को तैयार न होते। कोई बड़ी घटना खोजकर लाना चाहते पर जो हाथ आता वह बहुत छोटा और सामान्य होता। 

बीच में रोड़े भी थे कुछ। कुछ हमारे अन्तरविरोध, कुछ उनके। कुछ हमारे मोह, कुछ उनके। कुछ उनकी अतृप्त आकांक्षाएँ, कुछ हमारी। इतने-इतने ठीक से न पढ़े जानेवाले अध्याय। जैसा हमने अब तक देखा था, कभी बिल्कुल वैसा लगता। जैसा हमने पहले कभी नहीं देखा था, कभी वैसा। बहुत कुछ जो हमारे दिमाग के कम्प्यूटर ने फीड नहीं किया था, छूट गया। हठ करके जो पाया, वह बेतरतीब-सा कुछ है। 

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अमृतवाणी-

वत्स! ये तमाम-तमाम तुच्छ बातें इस विराट जीवन में लीन हो जाती हैं। ये, वो...सारे क्षण जीवन में जुड़ते जाते हैं, छिटककर अलग नहीं होते। तो यह जीवन समृद्ध ही बनता है, क्षुद्र नहीं।

तथास्तु!

दर्द की सुनसान तस्वीरें...  

वे यानी श्री भगवतशरण जी और उनकी पत्नी रत्नाशरण जी, न परेशान हैं, न हैरान। बल्कि हम परेशान हैं कि वे अकेले हैं। हम हैरान हैं कि जिस तरह हम सोचते रहे, जिस तरह चिन्तित होते रहे, सिर्फ उन्हें लेकर , वे नहीं थे। सोचना नहीं चाहते थे या सोच नहीं पाये, जो भी हो, नहीं सोचे।

हम सोचते थे। सोचते क्या थे, भयभीत थे कि जब हम सब दूर होंगे और ये दो प्राणी अकेले हो जाएँगे, तो क्या होगा? शायद जब तक हम लौटेंगे, दोनों अलग-अलग मरे पड़े मिलेंगे। हम अन्दर के कमरे में रत्ना जी की और बैठक में भगवतशरण जी के मृत शरीर की कल्पना कर लेते। हमारा यह विचार हमें दहशत से भर देता और हम जी भर कोशिश करते कि वे दोनों अकेले न रहने पाएँ।

पति-पत्नी के किसी भी सम्बन्ध से परे हम यही चाहते थे और बहुत शिद्दत से चाहते थे। कभी-कभी उन्हें देखकर लगता कि वे दोनों मरने की दौड़ में शामिल हैं। ‘पहले मैं, पहले मैं’ की तर्ज पर व्यथित होकर एक दूसरे को यातना देते रहते हैं। यातना जितनी गहरी होती है, उनका संघर्ष उतना बढ़ जाता है। 

यातना, संघर्ष और उसके भीतर कहीं छिपे पड़े सुख के इस आपसी रिश्ते को हम बचपन में नहीं पहचान पाते थे।

आज जब हम तीनों ने प्राइवेट कम्पनियों को अपना श्रम और समय बेचते हुए पैसा कमाना शुरू कर दिया, भाई मैनेजमेण्ट का प्रोफेशनल कोर्स करने मुम्बई चला गया, तो उन्हें अकेले न छोड़ने की हमारी सारी कोशिश नाकाम हो गयी। 

रत्नाजी को डॉक्टर ने दूर तक टहलने की सलाह दी है। वे नियमित टहलने जाती हैं - अकेले। भगवतशरण जी पहले से ही नियमित टहला करते थे - अकेले।

घर में कुछ मंगाना हो तो रत्ना जी भगवतशरण जी को लक्ष्य किये बिना मानो अपने आप से कुछ इस तरह कहतीं - “सब्जी नहीं है।” और छत पर चली जातीं या टहलने निकल जातीं। ठीक उसी समय भगवतशरण जी उन्हीं के पीछे टहलते हुए दूर सब्जीमण्डी तक जाते और सब्जी लेकर लौटते। सब्जी का झोला वे अन्दर वाले बरामदे में रख देते। रत्ना जी लौट आने पर अपने आप समझ जातीं।

या फिर भगवतशरण जी अपने आप से कहते- “सब्जी है। कटहल कटे हुए मिल गये।”  और वे रुकते नहीं, बगल में पड़ोसी के यहाँ बतियाने चले जाते। या फिर वे इसका ठीक उल्टा करते। कई दिनों तक सब्जी नहीं लाते। रत्ना जी नहीं बोलतीं। वे शाम को टहलते समय चैराहे के सब्जी ठेले पर से पिलपिले टमाटर खरीदतीं या गले मटर या भिण्डी।

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इन सड़ी सब्जियों को वे बिल्कुल पसन्द नहीं करतीं। वे सब्जीवाले को बार-बार समझातीं कि सड़ी सब्जियों, फलों को खाने से कुछ भी हो सकता है- एड्स भी। सब्जीवाला सिर हिलाता जाता। वह रोज सब्जीमण्डी तक जाना चाहता था, नहीं जा पाता। वे भी सब्जीमण्डी तक जाना चाहती थीं, पर खराब गड्ढेवाली सड़क के कारण जाना टालती रहतीं। 

भगवतशरण जी सब्जी नहीं लाते तो रत्ना जी जैसे-तैसे एडजस्ट करतीं। कभी बेसन पकाकर सब्जी बनातीं, जो उनके और भगवतशरण जी के हाजमे के लिए नुकसानदेह होती। कभी दाल में खटाई डालकर काम चलातीं, जो उन्हें और भगवतशरण जी को बहुत बुरी लगती। पर वे खाते और इन्तजार करते। इस इन्तजार की इन्तहा पर वे सब्जी लाते और उसी तरह कहते- “सब्जी है। मटर सस्ते थे।” फिर बगल में मास्टर साहब के यहाँ बतियाने चले जाते। 

बोलना कम, जताना ज्यादा। मानो एक ही युद्ध में हारे हुए दो योद्धा।

वे कहतीं- “पापा पहले अपने कपड़े-पैसे ताले में बन्द करके रखते थे। अब ये हालत है?” 

मतलब क्या?

मतलब कि अब भगवतशरण जी अपने कपड़े तह तक नहीं लगाते, न ही उस खुली अलमारी में रखते हैं, जो रत्ना जी ने सुविधा के लिए उनके नाम कर दी थी। कपड़े उनके कपड़ेवाले स्टैण्ड पर ही टँगे रहते, एक के ऊपर एक। हम अपनी तरफ से जो कपड़े और स्वेटर लाते, उसे वे केवल हमारा मन रखने के लिए उसी दिन पहनते, फिर वह सब पड़ा रह जाता। रत्ना जी हमसे कहतीं- “देखते हो तुम लोग, म्लेच्छ बने घूमते रहते हैं।” हम कोशिश करते कि वे अपनी म्लेच्छता से निकलें। कभी हमारी कोशिश कामयाब होती, कभी नाकाम। 

भगवतशरण जी को कहीं जाना होता, शहर से बाहर, तो पता चलता, ले जानेवाले उनके कपड़े गन्दे पड़े हैं या धुलने को दिये गये थे, आये ही नहीं। या फिर ऐसा होता कि गन्दे कपड़े ऐन दिन शाम को धोये जाते और जाने के समय तक सूखते नहीं, फिर ले आयरन उन पर मारा जाता। रत्ना जी बड़बड़ाकर आयरन करतीं। इस बड़बड़ाने और आयरन करते जाने में परितोष का जो भाव उनके चेहरे पर उभरता, वह अद्भुत होता।

जिसका अर्थ होता - अच्छा है कपड़े गन्दे रहे गये, अब ले जाओ गन्दे कपड़े या बच्चू अब आयी अकल ठिकाने ! किसके भरोसे साफ आयरन किये कपड़े लेकर जाओगे। पहले तो छूने तक नहीं देते थे। लाण्ड्री से धुलवाते थे। अब क्यों नहीं कर लेते। जाओ खर्च करो पैसा........ लेकिन नहीं, लड़कियाँ पैदा की हैं तो बचाओ पैसा...खत्म हो गयी सारी हेंठी...... मुझसे हेंठी..... आदि आदि।

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