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इस एकान्त की कोई सीमा-रेखा नहीं थी, जिसके पार जाने की कोई बंदिश हो। लिहाज़ा कौन किसके एकान्त में कब प्रवेश कर जाती, यह उन औरतों को भी पता नहीं था। 

एकान्त में गुम


ख़स्ताहाल हवेली में डाकिनी-सी डोलती वे औरतें कभी हंसतीं, तो कभी रोतीं। कभी एक-दूसरे के गले लगकर सिसकियां सुनतीं। कभी थक-हारकर एक-दूसरे को कोसती गहरी चुप्पी में गुम हो जातीं। ऐसे में एक गूंगा सन्नाटा सनसनाता रहता और हवेली की ईंटों में सीलन कुछ और बढ़ जाती। दीवारों पर लगा प्लास्टर कहीं से टूटकर गिरता और महाकाल चौंककर अपने इर्द-गिर्द देखता। कहीं कोई जुम्बिश न पाकर वह उदास हो जाता और दरकती दीवारों की दरारें कुछ और चौड़ी हो जातीं।

हवेली पर उम्र से ज़्यादा समय हावी था। समय के भीतर हलचल थी। बाहर सन्नाटा। हलचल और सन्नाटे के बीच थीं वे औरतें। एक-दूसरे से जुड़ीं। एक-दूसरे से अलग। एक-दूसरे से इतने क़रीब कि एक के बगै़र दूसरी की पहचान मुश्किल। एक-दूसरे से इतनी दूर कि हर दायरा छोटा पड़ जाए। वे एक-दूसरे से प्रेम करती हों, ऐसा भी नहीं था। फिर भी वे आपस में एक-दूसरे पर निर्भर थीं और इस क़दर निर्भर थीं कि एक-दूसरे पर लगातार नज़र रखतीं। उन्हें भय था कि कहीं कोई किसी दिन इस हवेली से उड़न-छू न हो जाए।

यूं हवेली के बाहर बड़ी-सी चहारदीवारी थी। उस चहारदीवारी में बड़ा-सा लोहे का गेट था और गेट पर काला पेंट चढ़ा था। लेकिन अरसे से पेंट की पपड़ियाँ छूट रही थीं और गेट जगह-जगह से चिकतबरा हो आया था। इस सबके बावजूद गेट मज़बूत था और उसकी कुंडी में उतना ही मज़बूत ताला जड़ा था। उस ताले की चाभी उन औरतों में से किसी के पास नहीं थी।

वह औरत जो इस हवेली में सबसे पहले आई थी, अक्सर कसम खाकर कहती, “चाभी जिनके साथ होती थी, उन्हीं के साथ चली गई।”

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उस औरत की झूलती झुर्रियों में झांकती सच्चाई की ताब देर तक महसूस होती और वे एक-दूसरे से नज़रें बचाकर अपने गोपन गह्वरों में गुम हो जातीं। इन गह्वरों में उनके गुमशुदा दिन थे। रातें थीं। उनका एकान्त था और खु़द को खोजने-खारिज करने की निर्विघ्नता। इस एकान्त की कोई सीमा-रेखा नहीं थी, जिसके पार जाने की कोई बंदिश हो। लिहाज़ा कौन किसके एकान्त में कब प्रवेश कर जाती, यह उन औरतों को भी पता नहीं था। ऐसे में वे एक-दूसरे के एकान्त में होते हुए भी, अपने-अपने एकान्त में बनी रहतीं और वे जिसके एकान्त में होतीं, उसे उसके होने का पता भी नहीं चलता।

यह अतिक्रमण था एक-दूसरे की शिनाख़्त का या कि समय के सिरों को पकड़ने का उपक्रम, इस बात से नावाकिफ़ वे तीनों औरतें एक ही समय में होते हुए भी, अपने-अपने समय में मौजूद थीं। वहां उनका होना अपने भूत, भविष्य और वर्तमान में एक साथ होना था। ज़ाहिर है, हर किसी की कहानी में उनकी आवाजाही होने के बावजूद उनके क़िरदार अलग थे। उनकी कहानियां अलग थीं। लिहाज़ा, वे एक ही कहानी के जितना भीतर थीं, उतना ही बाहर भी थीं।

पहली औरत

यह औरत जिस दिन इस हवेली में दाख़िल हुई थी, अपने साथ रोशनी की एक झंपोली भी लेकर आई थी। रंगीन पन्नियों में लिपटी झंपोलियों के बीच जब यह झंपोली खुली थी, तमाम चीजे़ें जगर-मगर रोशनी से नहा गई थीं। उसे याद नहीं कि यह झंपोली किसने खोली थी? लेकिन भीड़ में शामिल कोई औरत झंपोलियों को खोलते-खोलते अचानक ठिठक गई थी। 

रोशनी से भरी झंपोली का ढक्कन बहुत कसकर बांधा हुआ था और उसे खोलने की कोशिश में उस औरत के हाथों में रोशनी के कुछ कतरे चिपक गए थे। वह अचकचाई-सी अपने दोनों हाथों को रगड़कर उन कतरों को छुड़ाने लगी थी। लेकिन नाकाम कोशिश के बाद झुंझलाकर उसने झटके से झंपोली का ढक्कन नोच डला था। 

झपाक से उठी रोशनी के सैलाब में इससे पहले कि हवेली सरोबार हो जाती, किसी ने झंपोली ले जाकर उसी की कोठरी में रख दी थी। उस औरत ने अपनी कोठरी में दाख़िल उस मानुष-गंध को महसूस किया था और उसकी आंखें उस गंध का पीछा करती हुई कोठरी के दरवाजे़ पर जा टिकी थीं। 

वह ठहरी परछाईं ठमक कर मुड़ी थी और उस औरत ने देखा था कि वह गंध गहन अंधेरे में डूब गई थी। दरवाजे़ के इस पार बैठी वह औरत दरवाजे़ के उस पार पांवों की धमक महसूस करती रही थी। उसका सीना इस धमक से धाड़-धाड़ बजता रहा था।

उसने घबराहट में रोशनी की वह झंपोली खोल डाली थी। कोठरी तेज़ रोशनी से भर गई थी। चौंधियाई आंखों से उसने कोठरी का मुआयना किया था और सामने रखे आदमक़द शीशे में देखकर खु़द को पहचानने की कोशिश की थी। वह वह नहीं थी। उसका रंग-रूप, चेहरा, जिस्म, हाव-भाव सब कुछ बदला हुआ था। वह बड़ी देर तक खु़द को निहारती रही थी। बड़ी देर तक शीशे के भीतर खड़ी औरत तक खु़द को तलाशती रही थी।

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वह खड़ी-खड़ी थक चुकी थी। थकान लिए-दिए पलंग पर आ बैठी थी। दरवाजे़ के पार पांवों की धमक जारी थी। सीने में इस धमक को महसूस करती हुई वह गुड़ी-मुड़ी होती गई थी। नींद आंखों में उतर आई थी। उसे पता ही नहीं चला कि कब, कौन आया और रोशनी की झंपोली का ढक्कन बन्द कर गया। जब उसकी आंखें खुलीं, उसने खु़द को अँधेरे के बीच पाया। 

अंधेरा इस कदर गाढ़ा था कि उसके पार क्या है, यह अन्दाज़ा लगाना मुश्किल था। उस औरत ने दोनों हाथों से पलंग को टटोला। एक आदमक़द परछाईं वहां पसरी पड़ी थी। सहसा उसकी चीख निकलते-निकलते रह गई थी। उस रात उसने चीख और चुप्पी के बीच गुज़ारी थी ।

सुबह उजले के बावजूद रोशनी का नामो-निशान नहीं था। गंदुमी अंधेरा कोठरी में गश्त लगा रहा था। उस औरत ने फटी आंखों से इस अजीब अंधेरे को चीरने की कोशिश की। ऐन इसी वक़्त आदमक़द परछाईं आंखें मलते हुए पलंग से उठी और बगै़र उसकी ओर तवज्जो दिए कोठरी से बाहर चली गई। उस औरत ने नथुनों में ढेर सारी हवा खींची, लेकिन उसकी समझ में नहीं आया कि साँस लेने में परेशानी क्यों हो रही है?

सहसा, कोठरी का दरवाज़ा खुला और वही परिचित-सी मानुष-गंध कोठरी में लौट आई। उसकी आंखें इस गंध से जा चिपकीं। उसने देखा, वह गंध दबे पांव झंपोली के पास पहुंची और झंपोली का ढक्कन थोड़ा-सा सरक गया। कोठरी रोशनी से भर गई। जब तक वह कुछ देख पाती, मानुष-गंध उल्टे पांव लौटी और कोठरी के दरवाजे़ पर जाकर ठिठक गई, फिर ठमक कर पलटी और कोठरी का दरवाज़ा बन्द हो गया।


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