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मैंने अपनी किरकिराती आँखों के बावजूद एक ईज़ल पर कैनवास कसना शुरू कर दिया था....

आँखों का पानी मर जाना

उस रोज़ शाम को आई आँधी के साथ जो मौसम बदला….फिर तो रात भर बरसात होती रही। पूरा घर किरकिरा रहा था, सिवाय स्टूडियो के क्योंकि वह बेसमेंट में जो था। स्टूडियो में बरसात की आवाज़ और हवाओं के पेड़ों से उलझने का शोर भी संगीत बन कर पहुंच रहा था। 

प्रवाल देर तक नीचे अपने स्टूडियो में काम करने वाला था। डिनर में मैंने प्रवाल के लिए हमस बनाया था और पिट्टा ब्रेड गर्म करके कॉफ़ी के साथ स्टूडियो में ले आई थी।  स्टूडियो में किशोरी अमोनकर मियाँ की तोड़ी पर निबद्ध  बंदिश पर आलाप ले रही थीं। 

“मेरे मन... निगुण गुण गा....”

प्रवाल तन्मय होकर कैनवास रंग रहा था इन दिनों वह अपनी एक नयी सीरीज़ पर लगातार अनथक काम कर रहा था। न जाने क्यों मुझे पहली बार प्रवाल से ईर्ष्या हुई थी। उसकी इस सीरीज़ में एमरल्ड रंग के कितने मोहक शेड्स थे और अमरूदों की महक थी। 

आप कहेंगे पन्ना के पारदर्शी हरे रंग से अमरूद का बस ‘तुक’ मिला सकते हो। जब उसने पहला कैनवस शुरू किया था तो बगीचे से माली डलिया भर अमरूद तोड़ लाया था। जिसे उन दोनों ने जी भर कर खाया था। इतना कि स्टूडियो अमरूदों की महक से भर गया था। इज़ल पर स्पैट्यूला फिराते हुए जब मैंने प्रवाल को पीछे से जाकर जकड़ लिया था तो भी उसके पसीने में से भी अमरूदों की महक आ रही थी। 

“तुमने, पिछले शो के बाद से पेंट क्यों नहीं किया? अब और कितना लम्बा ब्रेक चाहती हो?”उसने पिट्टा ब्रेड के टुकड़े पर हमस लपेटते हुए पूछा था। मैं क्या कहती? मुझ पर अजीब सा ‘ब्लॉक’ तारी था।

“मैं तो कुलबुला रही हूँ, लेकिन …. सुनो मेरी आँखें फिर सूखी रहने लगी हैं।“

“हिंदी का एक मुहावरा है आँखों का पानी मर जाना….”अंबर ने मज़ाक में कहा मगर मुझे लग गयी...मैं ने चीखते हुए कहा..  

“यह मज़ाक नहीं है प्रवाल, आई नीड टू सी ऑफ्थेल्मोलॉजिस्ट।“

“अम्बर, तुम टीवी स्क्रीन से मोबाइल स्क्रीन की सैर में ग़ाफिल जो रहती हो बस वही कम करना होगा…. “

“हाँ, अब कम करना होगा। वैसे जल्दी ही मैं इस बार कुछ नया पेंट करना चाहती हूं, रंग भी एकदम अलग जैसे जैसे ……अंतरिक्ष से आए एलियन रंगों से पेंट करना चाहती हूँ…. सेलेस्टियल …. देखो मेरे रोंगटे खड़े हो रहे हैं।”मैंने बॉलकनी से आसमान की ओर हाथ फैलाते हुए कहा। पानी बरसा कर हल्के हो चुके बादलों से पीली रोशनी फूट रही थी। हल्की सी बिजली चमक कर उन सलेटी रंगों में मैटेलिक चमक भर जाती थी। प्रवाल ने मुझे अपनी बाज़ुओं से हलका-सा बांध कर कहा

“जब तक शुरू नहीं करोगी कैसे होगा…. कभी स्टूडियो में आकर ईज़ल पर बैठो तो ज़रा… रोज़ कल, परसों करती हो। नेटफ्लिक्स पर सीरीज़ दर सीरीज़ देखती जाती हो। अच्छा चलो भीतर मौसम ठंडा हो गया है।”  

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प्रवाल के मीठे तानों और किचन में घुसने से बचने के लिए मैंने अपनी किरकिराती आँखों के बावजूद एक ईज़ल पर कैनवास कसना शुरू कर दिया था। जब मैं पेंटिंग करती हूँ प्रवाल खाना बनाता है, मेरी तरह बेमन से नहीं, ख़ासे शौक से। लेकिन मेरे खाली बैठने पर किचन संभालना मेरे हिस्से आता रहा है, हमने लिव-इन रहना शुरू किया था तब से। 

सात साल हो गये हैं, जब हम अपने–अपने कॉलेज से निकल कर मुम्बई आए थे। वह डेल्ही स्कूल ऑफ आर्ट्स से आया था। मैं कॉलेज ऑफ फाइन आर्ट्स चैन्नई से। मैट्रोपॉलिटन रिहायश में हम भूलने लगे थे कि हम क्या हैं, हमारे पुरखे कौनसी भाषा बोलते थे। 

यही हाल खाने का था। वह मराठी था लेकिन दिल्ली में पैदा हुआ, पला-बढ़ा-पढ़ा। मैं मारवाड़ी थी और चैन्नई मेरा घर। हम हिंग्लिश – इंगलिश-विंगलिश बोलते थे, खाने में जो जल्दी से बन जाए वो खा लेते थे। हमें प्यार से ज़्यादा घर ने और शेयरिंग किराये ने जोड़ा। कुछ चित्रकला ने और कुछ जिस्म ने। हम दोनों में से कोई बड़बोला और आत्मकेंद्रित चुप्पा नहीं था। हमारे कम्यूनिकेशन का संतुलन कमाल था। 

निजता का अर्थ और महत्त्व हम दोनों को पता था। हम जानते थे कब किसे स्पेस चाहिए। हमारे बीच इसी वजह से कभी लड़ाई तो नहीं हुई थी लेकिन हमारे बीच पतली बर्फ बिछी रहती थी जो किसी दोस्त के वोद्का, टकीला या कोई नफ़ीस वाईन उपहार में दे जाने पर पिघला-टूटा करती। रिकॉर्ड तो यह है कि हमने कभी एक दूसरे को आय लव यू नहीं कहा। लेकिन हम एक–दूसरे के चित्रों को सराहा करते थे। उपलब्धियों पर खुश होते। 

प्रदर्शनी या सोलो शो होने पर दिल से मदद करते थे एक-दूसरे की। हारी-बीमारी में समय निकाल कर सेवा करते। उसका एक मक़ाम बन रहा था, नाम हो रहा था। वह था भी सीनियर….मुझे भी ग्रुप शोज़ मिल जाते थे लगातार असाइनमेंट्स भी। 

जहाँ तक मुझे लगता था इमोशन्स से ज़्यादा हम ज़ूलॉजी के ‘म्यूचुअलिज़्म’ के बेहतरीन उदाहरण थे, जिसमें दो स्पीशीज़ एक-दूसरे को सुरक्षा, भोजन, या किसी अन्य आदान-प्रदान के साथ सदियों बनी रहती हैं, बिना कॉन्फ्लिक्ट। कोई किसी पर परजीवी नहीं होता। देखिए न! सात साल…. कम नहीं होते! 

मुझे जहाँ तक पता है मेरे भीतर उसके लिये परवाह है मगर लिजलिजी भावुकता नहीं। वह भी मेरे किसी काम के लिए लापरवाही या आनाकानी नहीं करता है। न अपनी नवजात प्रसिद्धि का रौब ग़ालिब करता है। हम कुछ जगहों पर साथ जाते हैं, कुछ जगहों पर एक दूसरे से पूछना भी गवारा नहीं करते। हम लोगों के लिए आई लव यू सबसे घिसा-पिटा जुमला है। झूठ-मूठ को भी नहीं बोलते। हम एक दूसरे को इस हद तक जानते हैं कि एकाध बार कुछ अजीब लोगों ने हमारे बीच ग़लतफ़हमियाँ डालने की कोशिश की……मगर वे कामयाब न हो सके। कुल मिला कर ज़िंदगी अच्छी कट रही है।

मैं जो ईज़ल पर ख़ाका खींच रही हूँ और कलर-पैलेट चुन रही हूँ, मैं ने इसे महीना भर पहले नींद में डूबने से पहले वाले सपने में देखा था। अपने में हज़ारों शून्य उगलता गहरा नीला रंग कि काला ही लगे। उसमें घूमते हुए नवग्रह, सुर्ख मंगल, रूपहला वीनस, पुखराजी जूपिटर, नीली-हरी धरती, सियाह-सलेटी शनि और उसके सुनहरे वलय, समुद्री हरा यूरेनस और आसमानी नैपच्यून, सफेद-पीला प्लूटो!

मगर ख़ुद मैं कहाँ थी? किसी ब्लैक – होल के मुहाने पर? मेरे सामने थी अजीब-सी मैटेलिक लाल चमक वाली, अंतरिक्ष का नीलापन लीलती सुनहरे ड्रेगन जैसी आकाशगंगा। उसके जबड़ों के बीचों-बीच एक सेब जैसा अपने अनगिनत सुर्ख बुदबुदों में फूटता जाता विशाल सूर्य। वो अजीब रंग भारत में कहाँ मिलने वाले थे? 

मैं उन्हें मिश्रण से बनाने के असफल प्रयास कर चुकी थी, तब प्रवाल ने सलाह दी थी कि मुझे ये गाढ़े रंग ‘मिशेल हार्डिंग’ ब्रांड के लंदन से मँगवाने चाहिए। इस कंपनी का मालिक खुद एक आर्टिस्ट है, और खुद रंग बनाना पसंद करता है। पुराने यूरोपियन मास्टर्स की पेंटिंग्स के एक से एक गाढ़े रंग इसके यहाँ 'रिक्रियेट' किये जाते हैं। 

उसके हर रंग का टैक्सचर ही अलग होता है। शायद तुम्हारे ये तिलिस्माती रंग उसके यहां  मिल जाएं। थोड़े मंहगे होंगे। उनमें फिलर्स और ड्रायिंग एजेंट नहीं होते इसलिए पिग्मेंट भी ज़्यादा होता है तो मिश्रण भी सही बनते हैं। कैनवास पर ग्लाइड करते हैं वो रंग। संयोग से वो रंग समय से आ भी गये।  

अमूमन सीधे कैनवस से मुठभेड़ होती है मेरी। लेकिन यहाँ पहले से मेरे मन में कुछ था, मैं अपनी स्टायल से हट कर कुछ करने जा रही थी। फिर रंग ज़रा मंहगे भी थे …..मैं कैनवस की गहराइयों में कूदते डर रही थी कि प्रवाल ने मेरी आँखों को पीछे से आकर ढांप दिया और कहा 

“चुनो एक रंग और शुरू हो जाओ…..”

मैंने एक रंग उठाया …. 

उसके बाद तो मैं रचती चली गयी। उन पेंटिंग्स को नाम देती चली गयी – सैटर्न विद न्यू बॉर्न बेबीमून, वीनस इन लव विद मार्स, प्लूटो हेट्स राइवलरी, मर्क्यूरी राइज़िंग, नेप्चयून एंड यूरेनस : द गे कपल’, ‘स्लीपिंग अर्थ’, ‘स्टॉर्मी जूपिटर’ आँखों में दर्द के बावजूद मैं दिन रात पेंट करती चली गयी। 

सपनीले रंग अपने ही भीतर से नये रंगों को जन्म देते। रूपाकारों से रूपाकार उभरते और अंतरिक्ष में धंस जाते। मैंने रसोई की तरफ़ रुख़ तक नहीं किया। बस यह ग़ौर किया कि प्रवाल ने अपनी सीरीज़ की गति को धीमे कर दिया था। 

बहुत खामोशी से वह घर के काम निपटाता था, नौकरानी और धोबी से काम करवाता। तरह-तरह की कुकिंग करता था। मगर मुझे इन दिनों खाने में भी स्वाद नहीं महसूस हो रहा था मैं बस खा लेती, खाकर थोड़ा सोती थी फिर स्टूडियो में। यही सब मैंने भी किया था जब गोआ के शो के लिए प्रवाल ने इक्कीस चित्र बनाए थे। उसका तो नहाना छूट गया था लेकिन मैं गर्म पानी से शॉवर के बिना नहीं रह सकती।

रात आठ बजे शॉवर लेकर मैं स्टूडियो में आई थी। जहाँ प्रवाल मेरे लिये आयरिश कॉफी तैयार किये बैठा था। कड़वी कॉफ़ी और हल्की मीठी क्रीम….। उसके हाथ में जिन का ग्लास था। 

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“तो आज तुम्हारी सैलेस्टियल सीरीज़ की ये दोनों आखिरी पेंटिंग्स भी पूरी होने आई। इसका शीर्षक क्या दोगी?”

“फॉरबिडन फ्रूट!”मैंने आंखे मलते हुए कहा। 

“हट! ‘कहकशां’ बेहतर रहेगा। अबे! यूं बेरहमी से आखें मत मलो! अकसर आँखें मलती हो और एक झिल्ली सी बन जाती है। फिर तुम्हें देर तक धुंधला दिखता है।”

“अच्छा, अब तुम जाओ…. मैं अब इन्हें खत्म ही कर के सोऊंगी।”

वह बिना आहट चला गया मैं धधकते हुए रंग बनाने लगी। जलती हिलियम के रंग…. लावा के बुलबुले…..मैंने कैनवस पर लावे के रंग बिखेर दिये ….. अनगिनत धधकते  लाल- सुनहरे-पीले बुदबुदे…. सूरज के भीतर की यह आग जो नंगी आँखों से देखी न जा सके मैं पेंट कर रही थी। न जाने कहाँ से कैनवास के एक कोने से ब्लैकहोल सरकना शुरू हुआ। जिसे मैं तो नहीं बना रही थी। कुछ ही देर में उस धधकते लावा जैसे कैनवस पर स्याह राख थी। मैंने आँखें मलीं। कैनवास टटोला…… चारों तरफ धूसर था। धुंधला सा खंभा, ऊपर जाती सीढ़ियाँ, इज़ल…….

“प्रवाल! प्रवाल! देखो लाइट चली गयी है क्या? इन्वर्टर ऑन करो न! “मैं लड़खड़ा कर चीखी। कॉफी का खाली मग फर्श पर गिर कर टूट गया था।     

“अंबर!”

“प्रवाल! तुमने इनवर्टर ऑन नहीं किया क्या पूरी बिल्डिंग की लाइट गयी है? संभल कर चलना प्रवाल नीचे कांच है।”

“अंबर! लाइट तो नहीं….गई....है। इधर देखो अंबर मैं…..तुम्हारे सामने हूँ।”

उसकी सांस सुनाई दे रही थी। मैंने हाथ से टटोला 

“प्रवाल! गयी तो है… लाइट…नहीं गयी है तो फिर….!”

मैं चीख कर ज़मीन पर बैठ गयी। सूरज खुदकी सारी रोशनियाँ लील चुका था।

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