एपिसोड 1
अनुक्रम
एपिसोड 1-15 : मनाना
नए एपिसोड, नई कहानियाँ
एपिसोड 16-26 : खाना
एपिसोड 27-33 : कुश्ती
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भागने के लिए सबसे अच्छा महीना फरवरी है, जाती हुई सर्दियों का। एक छोटे से बक्से में सारा ज़रूरी सामान आ जाता है और छुट्टियाँ दूर होने के कारण रेलगाड़ियों में भीड़ नहींं होती।
कहानी : मनाना
क़िला
To: mrinmayi@gmail.com
Sub: coaxing sullen wife
अब तक जितने मेल्स भेज चुका हूँ उनकी गिनती भी याद नहींं। वे सब पता नहींं कहाँ गुम हो गए, किस अंतरिक्ष या आकाशगंगा में। तुमने एक का भी जवाब नहींं दिया, एक लाइन की सूचना भी नहींं। तुम्हारा फोन हमेशा की तरह ख़ामोश है । तुमसे कुछ कहने की इच्छा हो तो ई-मेल भेजना, मेरे पास बस यही एक तरीका है, बिना जाने कि तुम उन्हें पढ़ती भी हो या नहींं, और यह जानते हुए कि पिछले मेल्स की तरह इसका भी कोई जवाब नहींं आएगा। लेकिन अब थकान होने लगी है। इसके बाद कोई भेज सकूँगा या नहींं, मुझे नहींं पता, इसलिए इसमें सब कुछ लिख दूँगा, सारी बातें जो इतने बरसों से बूँद-बूँद जमा होती गई हैं, मगर जिन्हें कहने का मौका कभी नहींं आया। शायद पहले ही कह देनी चाहिए थीं। शायद पहले ही देर हो चुकी है।
तुम भागीं भी तो कब, सितंबर के महीने में। जब न सर्दी होती है न गर्मी – और तुम्हारे सर्दियों के सारे कपड़े, स्वेटर और शालें और पिछले साल जो कोट खरीदा था, सब यहीं रह गए।
भागने के लिए सबसे अच्छा महीना फरवरी है, जाती हुई सर्दियों का। एक छोटे से बक्से में सारा ज़रूरी सामान आ जाता है और छुट्टियाँ दूर होने के कारण रेलगाड़ियों में भीड़ नहींं होती। अचानक जाना हो तो भी टिकट मिल जाता है। उस वक्त तक कोहरा भी गुजर चुका होता है जिसकी वजह से गाड़ियां लेट होती हैं।
मगर तुम इस तरह नहींं भागी थीं। तुम मेरी गैरमौजूदगी में घर से नहींं चली गई थीं। ऐसा नहींं हुआ था कि मैं दिन भर के बाद घर लौटा हूँ और खाली घर में सिर्फ एक पर्ची या चिट्ठी मेरा इंतजार कर रही हो। तुम्हारी रुख़सत के वक्त बैकग्राउंड में न झींगुरों की आवाज़ें थीं न बिजली की कड़क न कोई दीवाना गाना।
मैं तो तुम्हें खुद स्टेशन पर छोड़ कर आया था, तुम्हारा सामान भी खुद पैक किया था। तुम्हें खुद बिठा कर आया था उस बहुत लंबी ट्रेन में जिसे चलते जाना था, चलते जाना था, चलते ही चला जाना था जैसे बरसों चलती रहेगी और कभी मंजिल तक नहींं पहुँचेगी – फिर समंदर के किनारे उस मुश्किल नाम वाले शहर में जाकर रुकना था जो पटरियों के आखिरी छोर पर है और जहाँ रिटायर होने के बाद तुम्हारे भाई और भाभी रहते हैं।
तुमने कहा था कि तुम थकान महसूस कर रही हो, यू नीड सम चेंज। मुझे क्या पता था कि तुम भाग कर जा रही हो। और अब यहाँ इस शहर में एक एक शख्स को पता है।
छोटा सा, पुराना, पोशीदा शहर है जहाँ सारी गाड़ियां भी नहींं रुकतीं, पलक झपकते यहाँ के छोटे से प्लेटफार्म को पार कर जाती हैं। किसी ज़माने में यह इस छोटी सी रियासत की राजधानी हुआ करता था। तब बाकायदे यहाँ एक राजा था और रानी भी, सेनापति भी, सेना भी और राज्य से जुड़े सारे तामझाम। मुकुट, तलवारें, तोपें, घोड़े और हाथी और भारी भरकम, लहराते हुए परिधान, अस्तबल और पालकियाँ और रखैलें सभी कुछ।
वे सब तो अब पतली हवा में घुल गए मगर काफ़ी बड़ा, एक पुराना, टूटा फूूटा, ढहता हुआ किला अब भी है। उसी किले के एक बाहरी हिस्से में मेरा कॉलेज है, तुम्हें पता है, बचपन से देखती आई हो। इर्द गिर्द एक छोटा मोटा बाज़ार है और चंद दुकानें। बाकी हिस्से में विशाल फाटक हैं, कंटीली तारें, जंजीरें और भारी भरकम ताले। वहाँ कभी कोई नहींं जाता। किले का वह हिस्सा पूरे ज़माने से छुपा हुआ है और वक्त भी जैसे वहाँ तक जा कर वापस लौट आता है।
वहाँ की जंजीरें, तारें, ताले, दरवाजों की झिरियों में से झाँको तो भीतर एक सूखी, उजाड़ बावड़ी … जैसे वक्त के बाहर हैं, हमेशा से थे और हमेशा रहेंगे। कभी वहाँ रहने वाले राजसी खानदान के वारिसों के वारिसों के वारिसों, उनके भी वारिसों जो होंगे तो अब हजारों की तादाद में होंगे और सारे जहान में फैल गए होंगे, की सरकार से कुछ कानूनी कशमकश अभी तक जारी है, इसी किले के बारे में, वहाँ की दौलत – जवाहरों और याकूतों -के बारे में, ऐसी बातें यहाँ की हवा में तिरती हैं –हालांकि कौन वारिस, कहाँ किन अदालतों में, यह किसी को नहींं पता।
मगर यह भी कहा जाता है कि खानदान का हर निशान, हर चिराग़, हर हड्डी, पहले पूर्वज से आखिरी चिराग़ तक, जो कुछ भी है, बस वहीं है, उसी बंद किले के भीतर, उसके बाहर कुछ नहींं । भीतर से, पता नहींं कौन सी कब्र या खोह या गार या दरार में से, कभी-कभी कुत्तों के भौंकने या रोने की दिल दहला देने वाली आवाज़ें आती हैं।
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