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उन्हें अजीब-सा लगा, मानो भरे चौराहे पर वह नंगे घूम रहे हों और इस पर किसी का ध्यान ही नहीं। एक तरह की अवैध स्वच्छन्दता उन्होंने महसूस की...

शहर की तलछटी में...

देर तक देखने से आसपास के लोगों के चेहरे धुँधले पड़ने लगते हैं। उनके नक़ूश आपस में गड्डमड्ड होकर एक कातर प्रवाह में पसीजने लगते हैं। दिखायी देते दृश्य के पैने कोने मुलायम होकर आँखों की ज़ुबान पर घुलने लगते हैं और तब उनके स्वाद की तिक्तता कम महसूस होती है। यह अच्छा है। आसपास की बौखलाहट के बरक्स अचानक एक प्रकार की विरति-सी घेर लेती है और एक उदार दिलदारी से मन ऊपर तक भर जाता है। ऐसी घड़ी में सबको माफ़ कर देने का मन करता है। लेकिन इसमें एक गड़बड़ी यह है कि थोड़ी ही देर में आदमी फिर से अकेला महसूस करने लगता है और जी घबराने लगता है। हर चीज़ पर एक बारीक़ उनींदापन अजब ढंग से मौजूँ लगने लगता है। यह बुरा है। जिस चीज़ से आदमी जितना भागता है, वह उसे उतना ही धसोड़ती है - अकेलापन और उससे लगी-बझी बाक़ी तमाम चीज़ें।

कहने को उनकी दो सन्तानें इसी शहर में कहीं रहती हैं - अपने-अपने जीवन में व्यस्त। लेकिन पत्नी की मौत के बाद वह अपने फ़्लैट में अकेले ही रहते हैं। मरना तो उन्हें भी था, लगभग मर ही चुके थे। लेकिन फिर रह गये - अपने अक्ष पर तेज़ी से इधर से उधर भागते, कहीं न कहीं पहुँचने की हड़बोंग में एक-दूसरे को धकियाते लोगों के बीच। जिस रोड एक्सीडेंट में उनकी पत्नी चल बसीं, उसमें ज़्यादा गम्भीर चोटें पत्नी को नहीं, बल्कि उन्हें पहुँची थीं। बताते हैं कि सात दिन और छह रातों तक वह बेहोशी में थे। होश में आने के बाद बेटी ने बताया कि माँ नहीं रहीं। उनका अन्तिम दर्शन भी वह न कर सके। कहने वाले कहते हैं - जिसे जब जाना होता है, वह तभी जाता है।

लेकिन वह इस तरह के पुराने मुहावरों को अपनी सोच में जगह नहीं देंगे, ऐसा उन्होंने बहुत पहले तय किया था। फ़ैसलाकुन से वह एक झटके में उठे और जैसे उन्हें किसी निर्दिष्ट की तरफ़ पहुँचना है, इस तरह चलने लगे। लेकिन दस-बीस क़दम चलने के बाद ही उनकी चाल में कहीं नहीं जाने की-सी लापरवाही और सुस्ती आ गयी। इसे महसूस कर उन्होंने कलाई पर बँधी घड़ी देखी और ख़ुद को याद दिलाया कि कहीं चलकर कुछ खा लिया जाना चाहिए। यह एक ज़रूरी काम था। वह तत्पर हो गये।

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वह मॉल के जिस माले पर थे, उसी पर मैक्डॉनल्ड का आउटलेट था। बल्कि, वह इस इत्तेफ़ाक़ पर ख़ुश हुए कि - अगर बहुत टु द प्वाइंट होकर न सोचा जाए तो वह लगभग उसके सामने ही थे। इस बात से वह उत्साह से भरकर वहाँ पहुँचे। काउंटर की ऊँची गोल मेज़ के पार एक ठिगनी लड़की बैठी मोबाइल में व्यस्त थी। दूर से वह काउंटर की मेज़ की आड़ में बिल्कुल न दिखती थी। उन्होंने उस लड़की को अपनी झकझोरती आवाज़ से एकबारगी चौंका दिया। वह जिस अनुपात में झुँझलायी, वह उसी अनुपात में निहाल हुए।

लड़की की झुँझलाहट ने उनका दिन बना दिया। उन्होंने अपना खाना पूरे इत्मीनान के साथ ख़त्म किया और फिर अपने क़दमों में मानीखेज़ धमक भरते हुए बाहर आये। मैक्डॉनल्ड के आउटलेट से इस ढब में बाहर आना उन्हें इस क़दर रास आया कि उन्होंने अपने को रोका नहीं और मॉल से बाहर आने के बाद ही थमे। बाहर शोर और धूप थी, बाज़ार की उधड़ी हुई बेतरतीबी थी, जिसने उनके क़दमों को रोक दिया। मॉल की संयोजित ठंडक से निकलकर अचानक बाहर की धूपीली सड़क पर आकर उनकी आँखें चौंधिया गयीं। इससे पेश्तर कि किसी तरह की पस्ती उनके गर्वीले क्रियाकलाप को प्रभावित करे, उन्हें किसी ठोस नतीजे पर पहुँच जाना था। ऐसे में किसी कु़दरती इशारे की तरह एक ऑटो वाला वहाँ से गुज़रते हुए थमा तो वह उस पर सवार हो लिये।

शहर को मोटे तौर पर दो भागों में बाँटने वाली नदी अब पूरी तरह से गन्दे नाले में तब्दील हो चुकी थी। पानी का बहाव नाम-मात्र का होने से, कचरा, बदबू और फेन का साम्राज्य नदी के दोनों किनारों पर बसर करता है। ऑटो छोड़ने के बाद निरुद्देश्य घूमते हुए वह इस तरफ़ आ गये थे। ऊपर शहर के दोनों भागों को जोड़ने वाले उस अकिंचन पुल पर वाहनों का ताँता लगा हुआ था। पुल के दोनों किनारों पर पैदल चलने वालों की भी अच्छी-ख़ासी संख्या थी। पुल से गुज़रते हुए आज तक कभी इस बात का अहसास नहीं हुआ कि ठीक इस पुल के नीचे शहर की तमाम गतियाँ एकाएक थम-सी जाती होंगी। 

आप बीच शहर में होते हुए भी इसकी तमाम भागदौड़ से छिटककर मानो इसकी तलछटी पर चले आते हैं। बचपन में भूगोल की किताबों में वृष्टिछाया प्रदेश के बारे में पढ़ा था। शहर की आपाधापी और व्यस्तताओं के छींटे यहाँ तक नहीं पहुँच पाते, यहाँ तक कि वाहनों के हॉर्न व लोगों की चीख-पुकारें भी बड़ी कोमल होकर, अपने बचे-खुचेपन में ही यहाँ तक पहुँचती हैं। उन्हें अजीब-सा लगा, मानो भरे चौराहे पर वह नंगे घूम रहे हों और इस पर किसी का ध्यान ही नहीं। एक तरह की अवैध स्वच्छन्दता उन्होंने महसूस की।

पुल के गम्भीर स्तम्भ, जिसे कभी लाल रंग से रँगा गया होगा, के नीचे सूखे कचरे का एक टीला-सा बन गया था। जाने कितने साल से शहर का कचरा यहाँ आकर जमा होता रहा है। शहर के अँधेरे कोनों-अँतरों में जनमे न जाने कितने छोटे-बड़े पाप, पीड़ा और परिताप अब इस खुले आसमान तले बरसों से बजबजा रहे थे।

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सहसा उन्होंने पेशाब महसूस की और बेपरवाही से एक ओर खड़े होकर निवृत्त होने लगे। थोड़ा हटकर दो-चार मैले-कुचैले छोकरे गोला बनाकर बैठे थे। पेशाब करते हुए वह उन्हें देखते रहे। इस तरह बैठकर शायद वह किसी प्रकार का नशा कर रहे थे। पेशाब करते हुए न तो उन्होंने उन छोकरों का कोई लिहाज़ किया और न उन छोकरों ने ही कोई तवज्जो दी। उनके बीच इस खुले बेलौस की अदृश्य पर्देदारी थी। 

उस पार के चौड़े पाट पर एक परिवार के दो-चार लोग लकड़ी के चूल्हे पर बड़ा तसला चढ़ाये ऊँघ रहे थे। उन्होंने झाड़ू से उतनी दूर की ज़मीन बुहारकर साफ़ कर ली थी और एक फटा हुआ कम्बल टाँगकर ज़रा-सी आड़ कर ली थी। वहीं एक बच्चा सूखी टहनी से ज़मीन पर काटाकूटी कर रहा था। थोड़ी दूर पर दो कुत्ते आपसी समझदारी के साथ कचरे में दबी किसी गुदड़ी या कि कपड़े के टुकड़े को चींथ रहे थे। दोपहर के इस पूरे परिदृश्य में एक अजीब-सी रिक्ति को भीतर तक महसूस किया जा सकता था।

एक छोटे-से अचानक में पीछे कहीं से किसी के कै करने या खाँसने की आवाज़ से वह चौंके। दो-चार लोग होंगे। एक-दूसरे को निर्देश देती आवाज़ें थीं। उन्होंने कचरे के उस टीले में दस-बारह क़दम गहरे पैठकर देखा कि अब वह ठीक पुल के नीचे आ गये हैं। अब तक धूप की एक चौंध शुरू से बनी हुई थी, पुल के नीचे के ठंडे आलोक में आकर एकाएक उन्हें अपनी नज़रों को व्यवस्थित करना पड़ा। और तब वह चौंके।

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