एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1 : सहेलियाँ
एपिसोड 2-5 : प्रतीक्षा का फल
एपिसोड 6-8 : सूत्र
एपिसोड 9 : राम जी की दाढ़ी
एपिसोड 10-11 : लाश
एपिसोड 12-13 : सीधी-सादी लड़की
एपिसोड 14-16 : हिना

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सोनाली के हाथ की चम्मच धीरे-धीरे कांपने लगी थी। सुजाता अपनी कहानी सुना रही है या उसकी? यह तो उसके साथ हुआ था? बिल्कुल हूबहू...

कहानी: सहेलियाँ

एक डायनासोर गरज रहा था और एक एक्सपर्ट आकर उसके बारे में बता रहा था। किसी अलग मौके पर यह बहुत दिलचस्प सी फिल्म हो सकती थी, लेकिन फिलहाल बाहर की गर्मी से दूर उस ठंडे चिकने प्रेक्षागृह में बैठे लोग ज्यादातर बोर हो रहे थे। उन्हें अपने बच्चों का इंतजार करना था जो उस आर्ट स्कूल का एंट्रेंस टेस्ट देने आए थे।

'आप अकेली हैं?' पहली बार सोनाली ने नहीं समझा कि यह सवाल उसी से पूछा जा रहा है। उसने बस अपनी ऊंघती हुई आंखें यह देखने के लिए उठाई कि कौन किससे मुखातिब है। जब पाया कि एक चश्मे वाली महिला उसकी ही ओर देख रही है तो उसने हड़बड़ा कर उठना चाहा- 'हां, जी, येस आई एम एलोन' तक पहुंचते पहुंचते उसकी घबराहट जाहिर हो चुकी थी।

उसे कुछ अफसोस हुआ। बचपन में यह घबराहट कभी उसकी शख्सियत का हिस्सा नहीं रही। वह अपनी उन सहेलियों को देखकर हंसा करती थी, जो अनजान लोगों से बात न करने और बाहर बिल्कुल संभल कर रहने की बहुत सारी हिदायतों के बीच जैसे हमेशा एक खोल में रहती थीं, हमेशा अदृश्य बने रहने की कोशिश करती थीं, किसी के अपनी ओर देखने भर से असहज हो जाती थीं।

पूरा कॉलेज जैसे उसने सिर झुकाकर, चलती सहेलियों के झुंड में आगे चलते हुए पार किया। नौकरी भी ऐसी की जिसमें अपनी तरह का खुलापन था। फिर ऐसा क्या हुआ कि अनजान लोगों से बातचीत अब उसे असहज बना डालती है?   

'आप मेरे साथ चलेंगी नीचे तक? कुछ खा लेते हम लोग।' चश्मे वाली के सवाल के साथ वह खड़ी हो चुकी थी- घबराहट पीछे छूट गई थी, हालांकि सकुचाहट बची हुई थी। लेकिन उसे भी खयाल आया कि उसे भूख लगी हुई है, जिसका अनजान जगहों पर अपनी शख्सियत की तरह ही दबा लेने की हाल के वर्षों में बनी बेख़बर आदत ने एहसास नहीं होने दिया।

थोड़ी ही देर में वे नीचे थीं। दो अनजान महिलाएं अब सहेलियों की तरह बतिया रही थीं। दोनों की जिंदगी जैसे साझा थी- लगभग एक सी। दोनों अपनी बेटियों को यह टेस्ट दिलाने आई हैं। दोनों के पति बड़े जॉब में हैं, दोनों ने यहां सारा अरेंज करा दिया, दोनों आने की हालत में नहीं थे, इसलिए दोनों अकेले चली आईं। 

'मैंने भी इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स किया था', बाहर कैंटीन में समोसे का कोना चम्मच से तोड़ती सुजाता बता रही थी। हां, चश्मे वाली का नाम सुजाता ही था। सोनाली सुन रही थी। 'तीन साल जॉब भी किया। लेकिन आयरा हुई तो छोड़ दिया। अभी मैं बॉस होती कंपनी की। विकास भी वहीं थे।'

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सुजाता की मुस्कुराहट में एक फीकी हंसी शामिल हो गई थी, 'तब फ्रेंड्स कहते थे, जॉब मत छोड़ो। सब छूट जाएगा। एक मेरी दोस्त थी- मनीषा, वह तो कई महीने लड़ती रही। कहा कि तू जॉब नहीं जिंदगी छोड़ रही है। तू ही छूट जाएगी पीछे। उसने विकास को भी खूब डांटा था। लेकिन पॉसिबल नहीं था घर दफ्तर एक साथ। अब तो १८ साल हो गए। लगता ही नहीं कि वह मैं थी।' 

सोनाली के हाथ की चम्मच धीरे-धीरे कांपने लगी थी। सुजाता अपनी कहानी सुना रही है या उसकी? यह तो उसके साथ हुआ था? बिल्कुल हूबहू। 

नहीं, बिल्कुल हूबहू नहीं। उसने इंटीरियर डेकोरेशन नहीं, पत्रकारिता का कोर्स किया था। उस समय बहुत कम लोग यह कोर्स करते थे। वे और नीलेश एक दफ्तर में नहीं थे। दोनों अलग अलग अखबार में रिपोर्टर थे। पहली बार १९९२ में अयोध्या में मिले थे। मस्जिद उसकी आंखों के सामने गिरी थी। वह दहशत से भरी थी। नीलेश उसे भीड़ से बचाता हुआ बाहर तक लाया था। 

मगर शादी ने उसके भीतर कुछ उगाया भी और कुछ बुझाया भी। तन्वी आई तो जीवन में एक नई हलचल आ गई। उसने पहले नौकरी छोड़ी फिर बाहर जाना छोड़ा और अंत में लिखना भी छोड़ दिया। घुटनों के बल चलती तन्वी धीरे-धीरे खड़ी हो गई और चल पड़ी। मगर सोनाली जैसे पहले चलना भूली और फिर खड़ा होना और फिर घुटनों के बल चलने लगी। अब तो उसका कोई काम नीलेश के बिना नहीं होता।

समोसा खत्म हो गया था, चाय भी खत्म हो गई थी और दोनों के बीच बात भी। कितनी कम बातें रह गई हैं उसके जीवन में? नीलेश की नौकरी, व्यस्तता, तन्वी का फ्यूचर, बाइयों की चिखचिख और कुछ टीवी सीरियल, कुछ फिल्में, कुछ टूटती बनती जोड़ियों की गॉसिप।

'मालूम, उनके बिना बरसों बाद मैं निकली हूं। घबराहट हो रही थी मगर अच्छा भी लग रहा था। अब तो मैं और आयरा सहेलियां हो गई हैं। हमने खूब गप की। मैंने बताया, कैसे पीजी में पढ़ते हुए हम लड़कों के साथ फिल्म देखने निकल जाते थे। उसे यकीन नहीं हो रहा था।' सुजाता हंस रही थी।

'अरे आपको पता है', सोनाली की आवाज उल्लास से चमकने लगी थी। 'एक बार मैं अपनी सहेली के साथ मसूरी चली गई थी। मां पापा सब नाराज़। तीन दिन घूमती रही। अब सोचती हूं- मैं ही थी क्या', बोलते-बोलते वह सकुचा गई।

'हमारी कितनी चीजें मिलती हैं, हम मेले में खोई हुई बहनें हैं शायद।' अब सुजाता हंस रही थी।

इतनी देर में सोनाली के भीतर बरसों से सोई पत्रकार जाग उठी। 'हिंदुस्तान की सारी औरतें मेले में खोई हुई बहनें हैं। या नहीं, वे मेले से बाहर खड़ी बहनें हैं जो तब मिल लेती हैं जब उनके पतियों को फुरसत नहीं होती।'

'जैसे हम मिल लिए।' सुजाता की आवाज में एक पुरानी लड़की की खनक लौट रही थी। एक टूटा हुआ पंख फिर जैसे जुड़ रहा था। 'बच्चियां छह बजे छूटेंगी। हमारे पास पांच घंटे हैं। हम लोग घूमने चलें?'

'यहां, इस अनजान शहर में?' सोनाली के भीतर जैसे कोई सोया हुआ झरना हिलने लगा था। लेकिन किसी अनजान अंदेशे से जैसे पांव बंधे थे, 'और इन लोगों को हमारी जरूरत पड़ी तो?'

'हां, शायद', अब अपने ही उत्साह से सुजाता सकुचाई लग रही थी। उसे लगा, उसने बच्चों जैसी बात कर दी।

लेकिन सुजाता के कमजोर पड़ते उत्साह को इस बार सोनाली ने थाम लिया। 'लेकिन, इन्हें क्या जरूरत पड़ेगी। हमारी बेटियां हमसे तेज हैं।'

अब दोनों चुप थीं। वे एक दूसरे में अपनी हिम्मत तौलती हुई  मुस्कुरा रही थीं। अचानक जैसे वे एक साथ खड़ी हो गईं। 'चलें?' दोनों ने एक साथ कहा और मुस्कुराती हुई चल दीं।

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अप्रैल के इस महीने में धूप तेज़ थी। दोनों ने अपने पर्स से काला चश्मा निकाला और पहन लिया। उस दिन पचास की उम्र छूती दो महिलाएं अचानक 25 बरस की युवतियों में बदल गई थीं। वे गोलगप्पे खाती हुई बेतहाशा हंस रही थीं। वे झील किनारे पानी में पांव डुबो कर बैठी हुई थीं। वे एक मॉल के एस्केलेटर से साथ उतरते हुए साझा सेल्फी लेने की कोशिश कर रही थीं। वे लगातार बात किए जा रही थीं। ‘हमारे समय ये मोबाइल फोन नहीं था।

अगर होता तो सारे पुराने दोस्तों की तस्वीरें बची होतीं‘- सुजाता ने हंसते हुए कहा। सोनाली को याद आया, मां के घर अब भी किसी दराज में एक एलबम पड़ा होगा जिसमें कॉलेज के फेयरवेल की तस्वीरें लगी हुई थीं। उनके ग्रुप ने उस दिन डांडिया किया था। पता नहीं, उस एलबम पर अब कितनी धूल पड़ गई होगी।‘

उसने सुजाता को मुस्कुराते हुए देखा और जवाब दिया, ‘लेकिन तब मोबाइल होता तो अब पता नहीं क्या आ गया होता। तब मोबाइल की तस्वीरें बेकार लगतीं। इतना लंबा हमारा मोबाइल थोड़े चलता कि सब बचा रहता? उससे अच्छा तो एलबम है। लेकिन एलबम कहां है, किसको पता।‘ सुजाता एक पल के लिए चुप हो गई।

अचानक जैसे समझ में आ गया कि उसका एलबम, उसके हिस्से की तस्वीरें ज़िंदगी ने कहां दफन कर दी है। लेकिन यह उदास होने की घड़ी नहीं है। ये चंद घंटे किसी फिल्म जैसे हैं जिसमें वे दोनों काम कर रही हैं। उन्होंने एक जगह रुक कर मेंहदी लगवाई। एक जगह रुककर मलाई बर्फ खाई। एक जादू था जो उन पर छाया हुआ था और शहर कुछ तन्मयता और कुछ हैरानी से उन्हें निहार रहा था।

लेकिन यह जादू टूटना था। पांच बज गए। लौटने का समय हो गया। कार फिर कैंपस के बाहर थी। दोनों निकलीं- दोनों ने एक-दूसरे का हाथ कस कर थाम रखा था। जैसे न जाने कब की बिछड़ी सहेलियां हों और अब न जाने कब मिलेंगी? कैंपस के भीतर की 200 मीटर की सड़क जैसे बहुत लंबी और खाली हो गई थी। 

‘सोनाली एक वादा करती हूं। अपनी बेटी को किसी भी हाल में नौकरी छोड़ने को नहीं कहूंगी। ये नहीं कहूंगी कि वह अपने पति पर निर्भर रहे कभी। दोनों साथ रहें, सुखी रहें, लेकिन एक-दूसरे के मददगार रहें। नहीं तो मर जाती है लड़की।‘

‘हां, जैसे हम मर गई हैं।‘ सोनाली जैसे किसी जमी हुई उदासी के भीतर से टहलती हुई बोल रही थी- ‘हमारी बेटियां वैसे भी हमारी जैसी नहीं होंगी।‘

वे बेटियां सामने से आ रही थीं। आयरा और तन्वी। दो मांएं उन्हें दूर से देख रही थीं- ऐसी दो सहेलियां जिन्होंने अपनी बेटियों को बचाने की साझा कसम खाई थी। दोनों ने एक-दूसरे को देख फिर सिर हिलाया और अपनी-अपनी बेटियों की ओर बढ़ गईं।  

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