एपिसोड 1

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अनुक्रम 

एपिसोड 1-5 : ब्रह्महत्या
एपिसोड 6-9 : अभिशप्त

नए एपिसोड, नई कहानी
एपिसोड 10-14 : एक बूढ़े की मौत

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अवचेतन में अपराधबोध... क्या सचमुच? नहीं... ऐसा नहीं हो सकता। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं किया। यहाँ तक कि कभी किसी का बुरा सोचा भी नहीं।

कहानी : ब्रह्महत्या

सपना

इधर मैं एक गहरे अंतर्द्वंद्व में हूँ। इस अंतर्द्वंद्व का कारण और कुछ नहीं मेरा एक सपना है जो कुछ दिनों से लगातार मेरी नींद हराम कर रहा है। सुबह उठता हूँ तो लगता है कि जैसे शरीर में जान ही नहीं रही, हाथ-पैर काँपने लगते हैं। स्नावयिक शक्ति क्षीण पड़ती जा रही है। कुछ भी याद नहीं रहता। छोटी-छोटी बातें तक भूल जाता हूँ। भूख लगती नहीं। सर में हमेशा दर्द रहता है। लगता है जैसे कोई भारी बोझ मेरे सिर पर रखा हुआ है और मैं कभी भी इस बोझ के नीचे कुचलकर मर जाऊँगा।

सपना आता है तो डर लगता है और नहीं आता तो डर और भी बढ़ जाता है। सोचता हूँ खु़दा न खास्ता सपने की बात अगर कहीं सच हो गई तो क्या होगा। जेठ की भरी दुपहरी में यही सब सोचकर कँपकँपी छूट जाती है। तंत्र-मंत्र, व्रत-उपवास सब करके देख लिए, कुछ हल नहीं निकला।

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सपना जब आता है तो मैं एक दूसरी ही दुनिया में चला जाता हूँ जहाँ कहीं कोई ज़मीन नहीं है। सिर्फ बादल हैं और बादलों पर तैरती हुई मृतात्माएँ... इतिहास पुरुष भी, जिनके क़िस्से-कहानियाँ हम अक्सर इतिहास की किताबों में पढ़ते थे या जिनके चित्र देखकर हमारा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता था। वे सब जो हमारी कल्पनाओं में थे या कल्पनाओं के बाहर, एकाएक सपनों में तैरने लगते हैं।

सपनों में जहाँ कोई ज़मीन नहीं है वहीं दंडाधिकारी अपनी गुरु गंभीर आवाज़ में हम सबके कर्मों का लेखा-जोखा सुना रहे हैं। किसने कितने पाप किए, किसने कितने पुण्य? ...हर क्षण का हिसाब है! मृतात्माएँ रो रही हैं, गिड़गिड़ा रही हैं। बड़ा ही वीभत्स दृष्य है। एक तरफ लोगों के शरीरों से चमड़ी उधेड़ी जा रही है तो दूसरी तरफ तेल के खौलते कड़ाहे में लोगों को पकड़कर डाला जा रहा है। लोग बिलबिला रहे हैं। मैं यह सब देखकर काँप जाता हूँ कि अचानक एक वीभत्स-सी छाया हाथ में लाल जलती सलाखें लिए मेरी ओर बढ़ती है। मैं भागने को होता हूँ कि चार-पाँच बलिष्ठ छायाएँ मुझे पकड़ लेती हैं। दंडाधिकारी कह रहे हैं कि मैंने दुनिया का सबसे जघन्य पाप किया है कि मैं ब्रह्महत्या का दोषी हूँ!

मेरा अपराध सिद्ध हो जाता है। अपने भैंसे पर बैठे धर्मराज मुझे मेरा दंड सुनाते हैं। महाराज चित्रगुप्त एक कुटिल मुस्कान के साथ अपना बही-खाता बंद कर रहे हैं। हाथ में जलती सलाखें लिए वह वीभत्स छाया एक बार फिर मेरे निकट आ जाती है। गर्म जलती सलाखें मेरी आँखों में घुसेड़ी जा रही हैं। फिर उसी से मेरे पेट में छेद किया जाता है। आँतें बाहर... गुर्दे से खून चू रहा है। मैं चीखने को होता हूँ तो चीख नहीं पाता। जु़बान तालू से सिल गई है। मैं कुछ देख नहीं सकता... बोल भी नहीं सकता। कान में पिघला हुआ शीशा उड़ेल दिया जाता है। अब मैं कुछ सुन भी नहीं सकता। मेरा पूरा अस्तित्व चीख-चीखकर विरोध कर रहा है मगर मेरा विरोध कहीं दर्ज नहीं होता। मैं एक साथ अंधा, गूँगा, बहरा सब बना दिया गया हूँ।

तभी एक आकाशवाणी होती है और कहती है कि 'तूने निषिद्ध को देखा, निषिद्ध को सुना, निषिद्ध को किया - ले अब उसका परिणाम भोग!'

यह सपना मेरे लिए रोज़ का क़िस्सा है। एक मनोचिकित्सक से राय ली तो उसने कहा कि मेरे अवचेतन में कहीं कोई अपराधबोध है जो निरंतर मेरे सपनों में प्रस्फुटित हो रहा है। अवचेतन में अपराधबोध... क्या सचमुच? नहीं... ऐसा नहीं हो सकता। मैंने कभी किसी का बुरा नहीं किया। यहाँ तक कि कभी किसी का बुरा सोचा भी नहीं।

कभी-कभी बिना सोचे ही बहुत कुछ हो जाता है। जैसे यही कि बिना कुछ सोचे इस वक़्त मैं अपने कंप्यूटर पर बैठा हूँ। पासवर्ड डालते ही कंप्यूटर में पीं-पीं की आवाज होती है। मेरी फाइल मेरे सामने है। बटन दबाते ही मेरा बायोडाटा आता है। मेरा नाम... कद-काठी समेत स्वास्थ्य संबंधी तमाम विवरण इसमें दर्ज हैं। एक-एक कर मैं उन सबको पढ़ना शुरू करता हूँ। 

मुझे लगता है कि मैं यह सब किसी और के बारे में पढ़ रहा हूँ। इस पूरी आँकड़ेबाजी में मैं कहाँ था? मैं सोचने लगता हूँ। कुछ याद नहीं आता। मैं अपना हाथ हवा में हिलाता हूँ और अपने सिर का एक बाल नोंच लेता हूँ। जिस समय मैं अपने सिर का वह बाल नोंच रहा था ठीक उसी समय कंप्यूटर पर एक 'डायलॉग बॉक्स' उभरता है जो मुझसे पूछता है कि क्या मैं अपनी वंशावली के बारे में कुछ जानना चाहता हूँ? मैं अनचाहे ही 'यस' क्लिक कर देता हूँ। 

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शायद मेरे सिर से नोंचे हुए बाल और मेरी इस वंशावली में कहीं कोई अंतरंग और गूढ़ संबंध है... क्या पता? कंप्यूटर स्क्रीन पर मेरा वंशवृक्ष उभर आया है। मैं इस वंशवृक्ष को पढ़ता हूँ। पढ़ता नहीं, बल्कि देखता हूँ। यह देखना कुछ अलग तरह से देखना है। जैसे इतिहास में सोलोमन की तलवार को देखना या नोआखोली के वीराने में गांधी की लाठी को देखना। कुछ वैसे ही जैसे स्वप्न में मैं मृतात्माओं को देखता हूँ।

स्वप्न में मृतात्माओं को देखना क्या सोलोमन की तलवार या गांधी की लाठी को देखने जैसा होता है? क्या पता... 

फिलहाल तो मैं एक फटेहाल-सा घर देख रहा हूँ जहाँ के लोग कभी अन्न को तरसते थे। 

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