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मेहमान की तस्वीर लेकर अपनी सहेलियों के बीच इठलाती चुनिया ने जब उनके बैंक में अफ़सर होने की बात गर्व से बताई थी। पर्दे की ओट में छुपा वह अपनी सारी परेशानी व थकान तत्काल भूल गया था। 

मेहमान

रोने-पीटने की आवाज़ें लगभग थम चुकी हैं। वैसे बरामदे से सटे कमरे से महिलाओं की सिसकियों और रह-रहकर किसी के हिस्टीरियाई अंदाज़ में चीख पड़ने की आवाजे़ं अब भी जारी हैं, किन्तु घर के पुरुष अब तक धैर्य धर चुके हैं। पाँच घंटे से कुछ ऊपर हो चले हैं लाश को बरामदे में रखे हुए। घर की दायीं ओर उसकी बहन की दो सहेलियाँ लाश के इर्द-गिर्द बैठी, ताड़ के पंखे डुला रही हैं। 

सिल्क की महंगी चादर से ढकी लाश के सिरहाने एक टेबुल-फै़न रखा है, जो बीच-बीच में कट… कट… फट.....फट.... की मद्धिम ध्वनि के साथ चल उठता है। ऐसे समय में पंखा डुलाने वालियों को थोड़ा विश्राम मिल जाता और वे बुत की तरह सिर झुकाए चुपचाप बैठी रहतीं। बरामदे से हटकर मुख्य द्वार के बाहर की गली और गली के उस पार स्थित एक खाली मैदान में तीस-पैंतीस जन, अलग-अलग खेमों में गपियाते हुए, मिट्टी उठने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं। कुछ-एक के चेहरों पर पसरी उकताहट साफ़ पढ़ी जा सकती है। 

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अभी थोड़ी देर पहले ही, जब वह कफ़न-रामनामी आदि लेकर लौट रहा था, नुक्कड़ पर की चाय-दुकान में उसने कई परिचितों को जल्दी-जल्दी, चाय-बिस्कुट गटकते हुए भी देखा था। अब उसके अंदर भी खीझ पैदा होने लगी है। जब तक लाश उठेगी नहीं, बहन की चीखें थमने वाली नहीं। कल रात भी तो यही घर था शायद... जहाँ ठहाके थे कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे। 

कितने दिनों के अंतराल के बाद तो जाकर कल ही आए थे, उसकी इकलौती बहन के पति। पूरा परिवार उन्हें मेहमान ही कहकर घेरे रहता था। मेहमान थे भी उतने ही ज़िंदादिल और बातूनी। कल भी खाने की टेबुल पर, उसे छेड़ते हुए कह रहे थे, ‘लगता है छोटे भैया ने कसम खा ली है कि जब तक डिप्टी-कलक्टर नहीं बन जाएंगे, खुलकर हंसेंगे नहीं।’ मेहमान के इस मज़ाक पर वह हौले से मुस्कराते हुए अपनी पत्नी से बोला था, ‘मेहमान को जल्दी से खीर-वीर परोसो भई... आज बहुत शुभ-शुभ बोल रहे हैं!’ 

तभी मेहमान की थाली में गरमा-गरम कचौड़ियाँ डालतीं उसकी पत्नी ने भी चुटकी लेने के अंदाज़ में, पूरी नाटकीय भाव-भंगिमा के साथ, तुनकते हुए कहा था, ‘मैं क्यों खीर परोसूँ भला? आप ही तो उस दिन कह रहे थे कि डिप्टी-कलक्टर बनते ही मैं सबसे पहले तुम्हें तलाक दे दूँगा।’ उसकी पत्नी का वाक्य समाप्त होते-होते मेहमान समेत सबों के ज़ोरदार ठहाके गूँज उठे थे। इन ठहाकों के मंद पड़ते ही, मौक़ा ताड़ मंझले भैया ने भी व्यंग्य कस ही दिया था, ‘हाँऽ...भई.... लगता है इस घर की सारी परंपराएँ तोड़ने का ठीका अकेले छोटे को ही तो मिला है।’ 

इस बार भी कहकहे लगे, किन्तु वह इस परिवेश से कटकर, अचानक दो-ढाई वर्ष पीछे चला गया। तब बहन की शादी के लिए योग्य वर की तलाश ज़ोर-शोर से जारी थी। मंझले भैया व बड़े भैया ने अपने व्यापारिक संबंधों का पूरा फ़ायदा उठाते हुए, कई-कई लड़के सुझाए थे पिताजी को। लेकिन वही एकदम से अड़ गया था, ‘चुनिया की शादी होगी तो किसी अच्छे नौकरी-पेशेवाले लड़के से, अन्यथा नहीं।’ 

वह जानता था बहन की पसंद। एक दफ़ा चुनिया ने ही उसे बातों ही बातों में बताया था, ‘मुझे बिज़नेस वाले लोग एकदम पसंद नहीं। मंझले भैया या बड़े भैया को ही देखो, दुकान से आकर भी ग्यारह-बारह बजे तक तक भाभियों को यही बताते रहते हैं कि आज कैसे और कितना मुनाफ़ा कमाया तथा कल किस-किस के यहाँ तगादे के लिए आदमी भेजना है।’ और तब उसे अकेले ही कितनी दौड़-धूप करनी पड़ी थी। कितने व्यंग्य-बाण नहीं झेलने पड़े थे? पिताजी तो नाउम्मीद ही हो चले थे। चुनिया का चेहरा तक कुम्हला गया था। लेकिन अंततः उसने मेहमान के यहाँ शादी तय करने में सफलता पा ही ली थी। 

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मेहमान की तस्वीर लेकर अपनी सहेलियों के बीच इठलाती चुनिया ने जब उनके बैंक में अफ़सर होने की बात गर्व से बताई थी। पर्दे की ओट में छुपा वह अपनी सारी परेशानी व थकान तत्काल भूल गया था। सगाई के पश्चात्, जब बहन की पुलक-पगी हंसी उसने दुबारा सुनी थी, तब नाचते-कूदते एवं गुनगुनाते हुए घर के दैनिक कार्यों को अंजाम देने की उसकी पुरानी आदत उसे सूद समेत वापस लौटती नज़र आई थी। 

उस साल पी.सी.एस. में न बैठ पाने का उसके अंदर का रहा-सहा मलाल भी तब जाता रहा था। कुर्सियाँ सरकाए जाने की आहटें होने पर ही वह स्वयं को अपने इन ख़यालों से निजात दिला सका था। सभी लोग हाथ धोने को उठ रहे थे। हाथ धोकर सौंफ़-सुपारी मुँह में डाल, मेहमान ऊपर की मंज़िल के अपने कमरे की ओर जा रहे थे, तभी अचानक उनका पैर फिसल गया। सिर रेलिंग से टकराया और लुढ़कनिया खाता उनका खाया-पिया शरीर, सात-आठ सीढ़ियाँ नीचे आकर निश्चेष्ट हो गया। 

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