एपिसोड 1

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8 கருத்துகள்

अनुक्रम

एपिसोड 1 : भूमिका
एपिसोड 2-7 : अलग्योझा
एपिसोड 8-12 : ईदगाह
एपिसोड 13-18 : माँ 
एपिसोड 19-25 : बेटों वाली विधवा
एपिसोड 26-28 : बड़े भाई साहब
एपिसोड 29-33 : शांति
एपिसोड 34-36 : नशा
एपिसोड 37-41 : स्वामिनी
एपिसोड 42 : ठाकुर का कुआँ
एपिसोड 43-46 : घर-जमाई
एपिसोड 47-48 : पूस की रात
एपिसोड 49-50 : झांकी
एपिसोड 51-53 : गुल्ली-डंडा
एपिसोड 54-56: ज्योति
एपिसोड 57-61 : दिल की रानी
एपिसोड 62-66 : धिक्कार
एपिसोड 67-69 : कायर
एपिसोड 70-73 : शिकार
एपिसोड 74-75 : सुभागी
एपिसोड 76-77 : अनुभव
एपिसोड 78-81 : लांछन
एपिसोड 82-83 : आख़िरी हीला
एपिसोड 84-85 : तावान
एपिसोड 86-89 : घासवाली
एपिसोड 90-92 : गिला
एपिसोड 93-94 : रसिक सम्पादक
एपिसोड 95 : मनोवृत्ति

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जिनकी आँखें श्मशान में या क़ब्रिस्तान में भी सजल नहीं होतीं, वे लोग भी उपन्यास के मर्मस्पर्शी स्थलों पर पहुँचकर रोने लगते हैं।

भूमिका

एक आलोचक ने लिखा है कि इतिहास में सब कुछ यथार्थ होते हुए भी वह असत्य है, और कथा-साहित्य में सब कुछ काल्पनिक होते हुए भी वह सत्य है। इस कथन का आशय इसके सिवा और क्या हो सकता है कि इतिहास आदि से अन्त तक हत्या, संग्राम और धोखा का ही प्रदर्शन है, जो असुन्दर है, इसलिए असत्य है। 

लोभ की क्रूर-से-क्रूर, अहंकार की नीच-से-नीच, ईर्ष्या की अधम-से-अधम घटनाएँ आपको वहाँ मिलेंगी और आप सोचने लगेंगे, मनुष्य इतना अमानुषीय है, थोड़े से स्वार्थ के लिए भाई-भाई की हत्या कर डालता है; बेटा बाप की हत्या कर डालता है और राजा असंख्य प्रजाओं की हत्या कर डालता है। 

उसे पढ़कर मन में ग्लानि होती है, आनन्द नहीं और जो वस्तु आनन्द नहीं प्रदान कर सकती, वह सुन्दर नहीं हो सकती और जो सुन्दर नहीं हो सकती, वह सत्य भी नहीं हो सकती। जहाँ आनन्द है, वहीं सत्य है। साहित्य काल्पनिक वस्तु है पर उसका प्रधान गुण है आनन्द प्रदान करना, और इसलिए वह सत्य है। मनुष्य ने जगत में जो कुछ सत्य और सुन्दर पाया है, और पा रहा है, उसी को साहित्य कहते हैं और गल्प भी साहित्य का एक भाग है। मनुष्य-जाति के लिए मनुष्य ही सबसे विकट पहेली है।

वह खु़द अपनी समझ में नहीं आता है। किसी-न-किसी रूप में वह अपनी ही आलोचना किया करता है, अपने ही मनोरहस्य खोला करता है। मानव-संस्कृति का विकास ही इसलिए हुआ है कि मनुष्य अपने को समझे। अध्यात्म और दर्शन की भाँति साहित्य भी इसी खोज में लगा हुआ है, अन्तर इतना ही है कि वह उद्योग में रस का मिश्रण करके उसे आनन्दप्रद बना देता है इसलिए अध्यात्म और दर्शन केवन ज्ञानियों के लिए हैं, साहित्य मनुष्य मात्र के लिए। 

जैसा हम ऊपर कह चुके हैं, गल्प या आख्यायिका साहित्य का एक प्रधान अंग है। आज से नहीं, आदिकाल से ही। हां, आजकल की आख्यायिका और प्राचीनकाल की आख्यायिका में समय की गति और रुचि के परिवर्तन से बहुत कुछ अन्तर हो गया है। प्राचीन आख्यायिका कुतुहल प्रधान होती थी या अध्यात्म विषयक। उपनिषद और महाभारत में आध्यात्मिक रहस्यों को समझाने के लिए आख्यायिकाओं का आश्रय लिया गया है।

जातक भी आख्यायिका के सिवा और क्या है? बाइबिल में भी दृष्टान्तों और आख्यायिकाओं के द्वारा ही धर्म तत्व समझाए गए हैं। सत्य इस रूप में आकर साकार हो जाता है और तभी जनता उसे समझती है और उसका व्यवहार करती है। वर्तमान आख्यायिका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और जीवन के यथार्थ स्वाभाविक चित्रण को अपना ध्येय समझती है।

उसमें कल्पना की मात्रा कम, अनुभूतियों की मात्रा अधिक होती है बल्कि अनुभूतियाँ ही रचनशील भावना से अनुरंजित  होकर कहानी बन जाती हैं; मगर यह समझना भूल होगी कि कहानी जीवन का यथार्थ चित्र है। जीवन का चित्र तो मनुष्य स्वयं हो सकता है, मगर कहानी के पात्रों के सुख-दुःख से हम जितना प्रभावित होते हैं, उतना यथार्थ जीवन से नहीं होते, जब तक निजत्व परिधि में न आ जाए। 

कहानियों के पात्रों में हम एक ही दो मिनट के परिचय में निजत्व हो जाता है, और हम उनके साथ हँसने और रोने लगते हैं-उनका हर्ष और विषाद हमारा अपना हर्ष और विषाद हो जाता है; बल्कि कहानी पढ़कर वह लोग भी रोते या हँसते देखे जाते हैं, जिन पर साधारणतः सुख-दुःख का कोई असर नहीं पड़ता। 

जिनकी आँखें श्मशान में या क़ब्रिस्तान में भी सजल नहीं होतीं, वे लोग भी उपन्यास के मर्मस्पर्शी स्थलों पर पहुँचकर रोने लगते हैं। शायद इसका यह कारण भी हो कि स्थूल प्राणी सूक्ष्म मन के उतने समीप नहीं पहुंच सकते, जितने कि कथा के सूक्ष्म चरित्र के। कथा के चरित्रों और मन के बीच में जड़ता का वह पर्दा नहीं होता, जो एक मनुष्य के हृदय को दूसरे मनुष्य के हृदय से दूर रखता है। और अगर हम यथार्थ को हूबहू खींचकर रख दें तो उसमें कला कहाँ हैं? 

कला केवल यथार्थ की नकल का नाम नहीं है। कला दीखती तो यथार्थ है पर यथार्थ होती नहीं। उसकी खू़बी यह है कि वह यथार्थ न होते हुए भी यथार्थ मालूम हो। उसका मापदण्ड भी जीवन के मापदण्ड से अलग है। जीवन में बहुधा हमारा अन्त उसी समय हो जाता है, जब वह वांछनीय नहीं होता। जीवन किसी का दायी नहीं है।

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उसके सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण में कोई क्रम, कोई सम्बन्ध ज्ञात नहीं होता। कम-से-कम मनुष्य के लिए वह अज्ञेय है, लेकिन कला-साहित्य मनुष्य का रचा हुआ जगत है और परिमित होने के कारण सम्पूर्णतः हमारे सामने आ जाता है और जहां वह हमारी मानवी न्याय-बुद्धि या अनुभूति का अतिक्रमण करता हुआ पाया जाता है, हम उसे दण्ड देने के लिए तैयार हो जाते हैं। कथा में अगर किसी को सुख प्राप्त होता है, तो इसका कारण बताना होगा।

दुःख भी मिलता है तो उसका कारण बताना होगा। यहाँ कोई चरित्र मर नहीं सकता, जब तक मानव-न्याय-बुद्धि उसकी मौत न माँगे! स्त्रष्टा को जनता की अदालत में अपनी हर एक कृति के लिए जवाब देना पड़ेगा। कला का रहस्य भ्रान्ति है पर वह भ्रान्ति जिस पर यथार्थ का आवरण पड़ा हो। हमें यह स्वीकार कर लेने में संकोच न होना चाहिए कि उपन्यासों ही की तरह आख्यायिका की कला भी हमने पच्छिम से ली है।

कम-से-कम इसका आजकल का विकसित रूप तो पच्छिम का ही है। अनेक कारणों से जीवन की अन्य धाराओं की तरह ही साहित्य में भी हमारी प्रगति रुक गई और हमने प्राचीन से जौ-भर इधर-उधर हटना भी निषिद्ध समझ लिया। 

साहित्य के लिए प्राचीनों ने जो मर्यादाएँ बाँध दी थीं, उनका उल्लंघन करना वर्जित था। अतएव काव्य, नाटक, कथा किसी में भी हम आगे कदम न बढ़ा सके। कोई वस्तु बहुत सुन्दर होने पर भी अरुचिकर हो जाती है, जब तक उसमें कुछ नवीनता न लायी जाये। एक ही तरह के नाटक, एक ही तरह के काव्य पढ़ते-पढ़ते आदमी ऊब जाता है, और वह कोई नई चीज़ चाहता है, चाहे वह उतनी सुन्दर और उत्कृष्ट न हो।

हमारे यहाँ तो यह इच्छा उठी ही नहीं, या हमने इतना कुचला कि वह जड़ीभूत हो गई। पश्चिम प्रगति करता रहा, उसे नवीनता की भूख थी, मर्यादाओं की बेड़ियों से चिढ़। जीवन के हर एक विभाग में उसकी इस अस्थिरता की, असंतोष की बेड़ियों से मुक्त हो जाने की छाप लगी हुई है। साहित्य में भी उसने क्रान्ति मचा दी। 

शेक्सपियर के नाटक अनुपम हैं पर आज उन नाटकों का जनता के जीवन में कोई सम्बन्ध नहीं। आज के नाटक का उद्देश्य कुछ और है, आदर्श कुछ और है, विषय कुछ और है, शैली कुछ और है। कथा-साहित्य में भी विकास हुआ और उसके विषय में चाहे उतना बड़ा परिवर्तन न हुआ हो, पर शैली तो बिलकुल ही बदल गई।

अलिफ़-लैला उस वक्त का आदर्श था, जिसमें बहुरूपता थी, वैचित्र्य था, कुतूहल था, रोमांस था; पर उसमें जीवन की समस्याएँ न थीं, मनोविज्ञान के रहस्य न थे, अनुभूतियों की इतनी प्रचुरता न थी, जीवन सत्य-रूप में इतना स्पष्ट न था। उसका रूपान्तर हुआ और उपन्यास का उदय हुआ, जो कथा और ड्रामा के बीच की वस्तु है। पुराने दृष्टान्त भी रूपान्तरित होकर गल्प बन गए। 

मगर सौ वर्ष पहले यूरोप भी इस कला से अनभिज्ञ था। बड़े-बड़े उच्च कोटि के दार्शनिक तथा ऐतिहासिक या सामाजिक उपन्यास लिखे जाते थे लेकिन छोटी कहानियों की ओर किसी का ध्यान न जाता था। हाँ, परियों और भूतों की कहानियाँ लिखी जाती थीं किन्तु इसी एक शताब्दी के अन्दर या उससे भी कम समझिए, छोटी कहानियों ने साहित्य के और सभी अंगों पर विजय प्राप्त कर ली है और यह कहना ग़लत न होगा कि जैसे किसी जमाने में कवित्त ही साहित्यिक अभिव्यक्ति का व्यापक रूप था, वैसे ही आज कहानी है।

और उसे यह गौरव प्राप्त हुआ है यूरोप के कितने ही महान कलाकारों की प्रतिभा से, जिसमें बालजॉक, मोपाँसा, चेखव, टॉलस्टाय, मैक्सिम गोर्की आदि मुख्य हैं।

हिन्दी में पच्चीस-तीस साल पहले तक गल्प का जन्म न हुआ था। आज तो कोई ऐसी पत्रिका नहीं, जिसमें दो-चार कहानियाँ न हों, यहाँ तक कि कई पत्रिकाओं में केवल कहानियाँ ही दी जाती हैं। कहानियों के इस प्राबल्य का मुख्य कारण आजकल का जीवन-संग्राम और समयाभाव है, अब वह ज़माना नहीं रहा कि हम ‘बोस्ताने ख़याल’ लेकर बैठ जाएं और सारे दिन उसी के कुंजों में विचरते रहें। 

अब तो हम संग्राम में इतने तन्मय हो गये हैं कि हमें मनोरंजन के लिए समय नहीं मिलता, अगर कुछ मनोरंजन स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य न होता, और हम विक्षिप्त हुए बिना अट्ठारह घण्टे काम कर सकते, तो शायद हम मनोरंजन का नाम भी न लेते लेकिन प्रकृति ने हमें विवश कर दिया है, इसलिए हम चाहते हैं कि थोड़े-से-थोड़े समय में अधिक-से-अधिक मनोरंजन हो जाए, इसलिए सिनेमा-गृहों की संख्या दिन-दिन बढ़ती जाती है। 

जिस उपन्यास के पढ़ने में महीनों लगते, उसका आनन्द हम दो घंटे में उठा लेते हैं। कहानी के लिए पन्द्रह-बीस मिनट में काफ़ी हैं, अतएव हम कहानी ऐसी चाहते हैं कि वह थोड़े-से-थोड़े में कही जाए, उसमें एक वाक्य, एक शब्द भी अनावश्यक न आने पाए, उसका पहला ही वाक्य मन को आकर्षित कर ले और अन्त तक उसे मुग्ध किए रहे, उसमें कुछ चटपटापन हो, कुछ ताज़गी हो, कुछ विकास हो और उसके साथ ही कुछ तत्व भी हो। 

तत्वहीन कहानी से चाहे मनोरंजन भले हो जाए, मानसिक तृप्ति नहीं होती। यह सच है कि हम कहानियों में उपदेश नहीं चाहते लेकिन विचारों को उत्तेजित करने के लिए, मन के सुन्दर भावों को जागृत करने के लिए, कुछ-न-कुछ अवश्य चाहते हैं। वही कहानी सफल होती है, जिसमें इन दोनों में से, मनोरंजन और मानसिक तृप्ति में से एक अवश्य उपलब्ध हो।

सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो। साधु पिता का अपने कुव्यसनी पुत्र की दशा से दुखी होना मनोवैज्ञानिक सत्य है। इस आवेग में पिता के मनोवेगों को चित्रित करना और तदनुकूल उसके व्यवहारों को प्रदर्शित करना, कहानी को आकर्षक बना सकता है। 

बुरा आदमी भी बिलकुल बुरा नहीं होता, उसमें कहीं-न-कहीं देवता अवश्य छिपा होता है, यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। उस देवता को खोलकर दिखा देना सफ़ल आख्यायिक का काम है। विपत्ति पर विपत्ति पड़ने से मनुष्य कितना दिलेर हो जाता है, यहाँ तक कि वह बड़े-से-बड़े संकट का सामना करने के लिए ताल ठोंककर तैयार हो जाता है। 

उसकी सारी दुर्वासना भाग जाती है। उसके हृदय के किसी गुप्त स्थान में छिपे हुए जौहर निकल आते हैं और हमें चकित कर देते हैं, यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। एक ही घटना या दुर्घटना भिन्न-भिन्न प्रकृति के मनुष्यों को भिन्न-भिन्न रूप से प्रभावित करती है। हम कहानी में इसको सफलता के साथ दिखा सकें, तो कहानी अवश्य आकर्षक होगी। 

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किसी समस्या का समावेश कहानी आकर्षक बनाने का सबसे उत्तम साधन है। जीवन में ऐसी समस्याएँ नित्य ही उपस्थित होती हैं और उनसे पैदा होने वाला द्वंद्व आख्यायिका को चमका देता है। सत्यवादी पिता को मालूम होता है कि उसके पुत्र ने हत्या की है। वह उसे न्याय की वेदी पर बलिदान कर दे, या अपने जीवन-सिद्धान्तों की हत्या कर डाले?

कितना भीषण द्वंद्व है! पश्चाताप ऐसे द्वंद्वों का अखंड स्त्रोत है। एक भाई ने दूसरे भाई की सम्पत्ति छल-कपट से अपहरण कर ली है, उसे भिक्षा माँगते देखकर क्या छली भाई को ज़रा भी पश्चाताप न होगा! अगर ऐसा न हो, तो वह मनुष्य नहीं है। 

उपन्यासों की भाँति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रधान होती हैं, कुछ चरित्र-प्रधान। चरित्र-प्रधान कहानी का पद ऊँचा समझा जाता है, मगर कहानी में बहुत विस्तृत विश्लेषण की गुंजाइश नहीं होती। यहाँ हमारा उद्देश्य सम्पूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं, वरन् उसके चरित्र का एक अंग दिखाना है। 

यह परमावश्यक है कि हमारी कहानी से जो परिणाम या तत्व निकले, वह सर्वमान्य हो और उसमें कुछ बारीकी हो। यह एक साधारण नियम है कि हमें उसी बात में आनन्द आता है, जिससे हमारा कुछ सम्बन्ध हो। जुआ खेलने वालों को जो उन्माद और उल्लास होता है, वह दर्शक को कदापि नहीं हो सकता। 

जब हमारे चरित्र इतने सजीव और आकर्षक हैं कि पाठक अपने को उसके स्थान पर समझ लेता है तभी उसे कहानी में आनन्द प्राप्त होता है। अगर लेखक ने अपने पात्रों के प्रति पाठक में यह सहानुभूति नहीं उत्पन्न कर दी, तो वह अपने उद्देश्य में असफल है। पाठकों से यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि इन थोड़े दिनों में हिन्दी गल्पकला ने कितनी प्रौढ़ता प्राप्त कर ली है।

पहले हमारे सामने केवल बाँग्ला कहानियों का नमूना था। अब हम संसार के सभी प्रमुख गल्प-लेखकों की रचनाएं पढ़ते हैं, उन पर विचार और बहस करते हैं, उनके गुण-दोष निकालते हैं और उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकते। 

अब हिन्दी गल्प-लेखकों में विषय, दृष्टिकोण और शैली का अलग-अलग विकास होने लगा है, कहानी जीवन के बहुत निकट आ गई है। उसकी ज़मीन अब उतनी लम्बी-चौड़ी नहीं है। उसमें कई रसों, कई चरित्रों और कई घटनाओं के लिए स्थान नहीं रहा। अब वह केवल एक प्रसंग का, आत्मा की एक झलक का सजीव हृदयस्पर्शी चित्रण है। इस एक-तथ्यता ने उसमें प्रभाव, आकस्मिकता और तीव्रता भर दी है।

अब उसमें व्याख्या का अंश कम, संवेदना का अंश अधिक रहता है। उसकी शैली भी अब प्रवाहमयी हो गयी है। लेखक को जो कुछ कहना है, वह कम-से-कम शब्दों में कह डालना चाहता है। वह अपने चरित्रों के मनोभावों की व्याख्या करने नहीं बैठता, केवल उनकी तरफ इशारा कर देता है। 

कभी-कभी तो संभाषणों में एक-दो शब्दों से ही काम निकाल लेता है। ऐसे कितने ही अवसर होते हैं, जब पात्र के मुँह से एक शब्द सुनकर हम उसके मनोभावों का पूरा अनुमान कर लेते हैं। पूरे वाक्य की ज़रूरत ही नहीं रहती, अब हम कहानी का मूल्य उसके घटना-विन्यास से नहीं लगाते।

हम चाहते हैं, पात्रों की मनोगति स्वयं घटनाओं की सृष्टि करे! घटनाओं का स्वतंत्र कोई महत्व ही न रहा, उनका महत्व केवल पात्रों के मनोभावों को व्यक्त करने की दृष्टि से ही है-उसी तरह जैसे शालिग्राम स्वतंत्र रूप से केवल पत्थर का एक गोल टुकड़ा है लेकिन उपासक की श्रद्धा से प्रतिष्ठित होकर देवता बन जाता है। 

खुलासा यह कि गल्प का आधार अब घटना नहीं, मनोविज्ञान की अनुभूति है। आज लेखक केवल कोई रोचक दृश्य देखकर कहानी लिखने नहीं बैठ जाता। उसका उद्देश्य स्थूल सौन्दर्य नहीं। वह तो कोई ऐसी प्रेरणा चाहता है, जिसमें सौन्दर्य की झलक हो और उसके द्वारा वह पाठक की सुन्दर भावनाओं को स्पर्श कर सके। 

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