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उसकी जिंदगी के तो उतने ही दिन बीतते हैं; उतने ही दिन जीती है वह जितने दिन हनीफ उसके साथ होते हैं। शेष दिन प्रतीक्षा और सिर्फ प्रतीक्षा में।

जीवन बसता है प्रतीक्षा के क्षणों में

राजेंद्र जी के लिए, जिनका होना मेरे लिए आश्वस्ति है…मैं जहाँ हूँ सिर्फ वहीं नहीं, मैं जहाँ नहीं हूँ वहाँ भी हूँ, मुझे यूँ न मुझमें तलाश कर कि मेरा पता कोई और है

शीर्षक के लिए प्रसिद्ध शायर राजेश रेड्डी का आभार

आभार साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, धर्मवीर भारती, अज्ञेय और सुधीर सक्सेना का भी जिनकी कविताएँ इस उपन्यास में कहीं-न-कहीं आई हैं।

धूप कमरे की खिड़की से घुस कर उसके शिथिल बदन से अठखेलियाँ करने लगी थी। उसकी किरणें उसका सारा ताप सारी थकन हरे ले रहा था। शरीर, मन सब जैसे हल्का हुआ जा रहा हो। अब उसकी नर्म गर्मी उसे सहलाती, छेड़ती, अंतत: परेशान करने लगी थी। वह थोड़ा सा खिसक लेती, वह थोड़ी दूर और फैल जाता। वह थोड़ा और खिसकती वह थोड़ा और फैलता... जैसे उसके इस आलस से उसे चिढ़ हो रही हो।

नंदिता अभी तक उस बिस्तर से चिपकी पड़ी थी; सुबह के साढ़े नौ हो जाने तक। वसीम को यहाँ से निकले हुए लगभग डेढ़ घंटे हो चुके थे और प्रो. हनीफ कई दिनों से घर आए ही नही थे। घर, हाँ अगर उसे वो घर की संज्ञा से नवाजते हों तो... यों उनका आना न आना हमेशा उनकी मर्जी से ही होता है और उसने कभी कोई प्रतिवाद या प्रतिरोध नहीं किया। उसके लिए यही कम नही था कि प्रो. हनीफ से उसका कोई रिश्ता था। जायज-नाजायज ये शब्द बड़े दुनियावी और तुच्छ थे उस रिश्ते के आगे... उसकी गहराईयों-ऊँचाइयों को छूने के लिए।

यहाँ कोई प्रश्न-प्रतिप्रश्न नहीं था और उत्तरों की श्रृंखला भी नहीं थी, न जवाबदेही ही। प्रो. हनीफ इसी से टिक पाते थे इस घर और रिश्ते पर... वह कृतार्थ हो लेती थी।

उसने कभी सोचा भी नहीं था प्रो. हनीफ की ऊँचाइयों को अपने कंधे से माप सकेगी; वे आकाश-कुसुम थे उसके लिए और वह आकाश-कुसुम अब उसकी झोली में था। वह यकीन करने की खातिर अब भी जब-तब टटोल लेती है अपना दामन। उस रिश्ते की छुअन, उसकी गर्मी क्या मौजूद है वहाँ... वह किसी स्वप्न को तो नहीं जी रही...?

उनके टँगे कपड़ों को वह आलमारी में टटोल आती है... टटोलने से याद आता है उसे, उनके गंदे कपड़े अभी धुलने को नहीं गए हैं। आज तो दे ही देना होगा उसे। वह अपनी अस्वस्थता -जन्य आलस को छोड़ चेतन होने लगती है। एक दिन और कितने-कितने तो काम... सामने थीसिस के पन्ने पड़े हैं अस्त-व्यस्त। वह उन्हें तरतीब से फाइल-बंद करके रख लेती है।

पता नहीं आगे कब...

वक्त मुट्ठी से फिसलता जा रहा है चुपचाप। पर उसे वक्त का यूँ बीतना पता ही नहीं चल पाता। उसकी जिंदगी के तो उतने ही दिन बीतते हैं; उतने ही दिन जीती है वह जितने दिन हनीफ उसके साथ होते हैं। शेष दिन प्रतीक्षा और सिर्फ प्रतीक्षा में। हनीफ टोकते हैं उसे अक्सर, ऐसे कैसे बिता देती हो सारा समय। कुछ तो पढ़ा-लिखा करो। थीसिस वहीं की वहीं अटकी पड़ी है। कैसे कटता है तुम से सारा का सारा वक्त।

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वह उनके नाक से उतरते चश्मे को फिर से नाक पर चढ़ाती हुई कहती है - 'आपकी याद में।'

'भाड़ में जाए यह याद। पढ़ाई-लिखाई...'

वह छोटे बच्चे की तरह उनके कंधे से लटक पड़ती है - 'कर लूँगी वह भी।'

'कब...? अभी...'

'नहीं, आपके जाने के बाद...'

'नहीं, अभी।'

'नहीं, आपके जाने के बाद...'

'अभी...'

अभी तो मैं आपके साथ बैठूँगी, बातें करूँगी। फिर खाना खाएँगे हम। अ... खाने से याद आया, सब्जी चढ़ा रखी थी गैस पर; कहीं जल न गई हो... कैसे खाएँगे आप... उसकी आँखों में चिंता की लकीरें हैं गहरी... नीली... भूरी...

वे लाड़ से देखते हैं उसे... खा लूँगा... पूरी तरह से न जली हो तो ... नहीं तो बाहर भी...

ट्रिन... ट्रिन... मोबाइल की हल्की सी टिनटिनाहट उसे बाहर धकेलती है स्मृतियों से।

वह एसएमएस पढ़ती है - 'तुम्हारे लिए कोई क्षमा नहीं है स्त्री / स्वर्ग के दरवाजे बंद हैं / कि तुम्हारे कारण ही / धकेला गया पुरुष पृथ्वी पर / नींद में चहलकदमी मत करो स्त्री / कि पाँवों की साँकल बज उठेगी / भूलो मत अभिसार के बाद, अभी-अभी नींद आई है तुम्हारे पुरुष को...' - एमीलिया

यह एमी भी... पता नहीं क्या-क्या लिख कर भेजती रहती है। अभी कल तो उसने... वह दुबारे इस कविता को पढ़ती है और चौंक उठती है। ये पंक्तियाँ कहीं उसी कविता की कड़ी तो नहीं।

वह 'इन बाक्स' में जाती है - 'स्त्री / बचा सको तो बचा लो अपना नमक / नमक के सौदागरों से / वे तुम्हें जमीन पर पाँव न धरने देंगे / कि कहीं तुम्हारे पाँव से झर न जाए रत्ती भर नमक... अगर्चे तुम बच गई स्त्री / लिखेंगे वे धर्मग्रंथों और सुनहरी पोथियों में/ कि दर-दर नमक बाँटती फिरती थी निर्लज्ज स्त्री...'

वह समझना चाहती थी एमी क्या कहना चाहती है, वह समझ रही थी एमी का मतलब क्या है... वह भरोसा नहीं करना चाहती थी एमी के कहने पर। एमी की शुक्रगुजार है वह। वह न होती तो प्रो. हनीफ से वह मिल भी कहाँ पाती। वह एमी ही थी जिसने इंटर की परीक्षाओं के बाद के खाली दिनों में उसे आर्ट्स क्लासेज ज्वाइन करवाया था जबरन। वह बेमन से जुड़ी थी सिर्फ एमी का साथ देने की खातिर।

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पर फिर... प्रो. हनीफ वहाँ गेस्ट फैकल्टी थे। वह पहली मुलाकात, अगर सिर्फ सुने और देखे जाने को भी मुलाकात कहते हों तो अब भी उसकी स्मृतियों में ज्यों की त्यों है। वह आँखें फाड़-फाड़ कर सुनती रहती उन्हें, देखती रहती उन्हें, एकटक। क्लास कब खत्म हो जाते उसे पता ही नहीं चलता अगर एमी बाजू पकड़ कर उठने को नहीं कहती - 'चल।'

वह प्रो. हनीफ के प्रभामंडल की जद में थी, बुरी तरह। उनकी आँखें, उनका चेहरा, सिर के कुछ सफेद बाल, उनका ऊँचा कद। एमी कहती यह उम्र होती ही है ऐसी जब लोग बुजुर्गों की तरफ आकर्षित होते हैं। फादर सिंड्रोम, पितृ-ग्रंथि कहते हैं इसे। वे बाहर आ खड़ी हुई थीं। मुझे जब पिता से कोई लगाव ही नही रहा फिर पितृ-ग्रंथि क्या...?

वही तो... कभी-कभी जो मिलता नहीं उसे हम तलाशते फिरते हैं बाहर-बाहर। तुम्हारे दिमाग मैं बैठा पिता का रोल माडल...

पिता शब्द उसे चुभता है। वह कहती है अब बस भी कर... पर एमी के अनुभव बोलते हैं, बोलते ही रहते हैं।

उबरने के लिए वह हनीफ सर का पहला एसएमएस निकालती है -

'यूँ तो था पास मेरे बहुत कुछ, जो मैं सब बेच आया।

कहीं ईनाम मिला और कहीं कीमत भी नहीं।

कुछ तुम्हारे लिए इन आँखों में बचा रखा है,

देख लो, और न देखो तो शिकायत भी नहीं।'

उनके लिए हैरत का सबब था यह एसएमएस। वे क्लास में हर लड़के का मोबाइल नंबर पता कर-कर के थक चुकी थीं। उससे ज्यादा शायद एमी...

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