एपिसोड 1

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मेरी पहली रचना और अन्य निबंध 

अनुक्रम-

मेरी पहली रचना: एपिसोड- 1,2 

साहित्य का उद्देश्य: एपिसोड- 3,4,5,6,7

जीवन में साहित्य का स्थान: एपिसोड- 8,9,10

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साहित्य का आधार: एपिसोड- 11

कहानीकला एपिसोड- 12,13

वह इनके मन का भाव ताड़ गयी। ऐसी अल्हड़ न थी और नखरे करने लगी। केशों में तेल भी पडऩे लगा, चाहे सरसों का ही क्यों न हो। आंखों में काजल भी चमका, ओठों पर मिस्सी भी आयी और काम में ढिलाई भी शुरू हुई...

एपिसोड- 1 

मेरी पहली रचना

उस वक्त मेरी उम्र कोई 13 साल की रही होगी। हिन्दी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढऩे-लिखने का उन्माद था। मौलाना शहर, पं. रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मोहम्मद अली हरदोई निवासी, उस वक्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे। इनकी रचनाएं जहां मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था। उस जमाने में रेनाल्ड के उपन्यासों की धूम थी। उर्दू में उनके अनुवाद धड़ाधड़ निकल रहे थे और हाथों-हाथ बिकते थे। मैं भी उनका आशिक था।

स्व. हजरत रियाज ने जो उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे और जिनका हाल में देहांत हुआ है, रेनाल्ड की एक रचना का अनुवाद ‘हरम सरा’ के नाम से किया था। उसी जमाने में लखनऊ के साप्ताहिक ‘अवध-पंच’ के सम्पादक स्व. मौलाना सज्जाद हुसैन ने, जो हास्यरस के अमर कलाकार हैं, रेनाल्ड के दूसरे उपन्यास का ‘धोखा’ या ‘तिलिस्मी फानूस’ के नाम से अनुवाद किया था। ये सारी पुस्तकें मैंने उसी जमाने में पढ़ीं। और पं. रतननाथ सरशार से तो मुझे तृप्ति ही न होती थी। उनकी सारी रचनाएं मैंने पढ़ डालीं। उन दिनों मेरे पिता गोरखपुर में रहते थे और मैं भी गोरखपुर के ही मिशन स्कूल में आठवीं में पढ़ता था, जो तीसरा दर्जा कहलाता था। रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था।

मैं उसकी दुकान पर जा बैठता था और उसके स्टाक से उपन्यास ले-लेकर पढ़ता था। मगर दुकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दुकान से अंग्रेजी पुस्तकों की कुंजियां और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और इसके मुआवजे में दुकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था। दो-तीन वर्षों में मैंने सैंकड़ों ही उपन्यास पढ़ डाले होंगे। जब उपन्यासों का स्टाक समाप्त हो गया, तो मैंने नवलकिशोर प्रेस से निकले हुए पुराणों के उर्दू अनुवाद भी पढ़े, और ‘तिलिस्मी होशरूबा’ के कई भाग भी पढ़े।

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इस वृहद तिलस्मी ग्रंथ के सत्रह भाग उस वक्त निकल चुके थे और एक-एक भाग बड़े सुपररायल आकार के दो-दो हजार पृष्ठों से कम न होगा और इन सत्रह भागों के उपरांत उसी पुस्तक के अलग-अलग प्रसंगों पर पचीसों भाग छप चुके थे। इनमें से भी मैंने कई पढ़े। जिसने इतने बड़े ग्रंथ की रचना की, उसकी कल्पना शति कितनी प्रबल होगी, इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। कहते हैं कि ये कथाएं मौलाना फैजी ने अकबर के विनोदार्थ फारसी में लिखी थीं। इनमें कितना सत्य है, कह नहीं सकता, लेकिन इतनी वृहद् कथा शायद ही संसार की किसी भाषा में हो। पूरी एंसाइक्लोपीडिया समझ लीजिए। एक आदमी तो अपने साठ वर्ष के जीवन में उनकी नकल भी करना चाहे, तो नहीं कर सकता। रचना तो दूसरी बात है।

उसी जमाने में मेरे एक नाते के मामू कभी-कभी हमारे यहां आया करते थे। अधेड़ हो गए थे, लेकिन अभी तक बिन-ब्याहे थे। पास में थोड़ी सी जमीन थी, मकान था, लेकिन धरती के बिना सब कुछ सूना था। इसलिए घर पर जी न लगता था। नातेदारियों में घूमा करते थे और सबसे यही आशा रखते थे कि कोई उनका ब्याह करा दे। इसके लिए सौ दो सौ खर्च करने करो भी तैयार रहते। क्यों उनका ब्याह नहीं हुआ, यह आश्चर्य था। अच्छे खासे हृष्ट-पुष्ट आदमी थे, बड़ी-बड़ी मूंछें, औसत कद, सांवला रंग। गांजा पीते थे, इसमें आंखें लाल रहती थीं। अपने ढंग के धर्मनिष्ठ भी थे। शिवजी को रोजाना जल चढ़ाते थे और मांस-मछली नहीं खाते थे।

आखिर एक बार उन्होंने भी वही किया, जो बिन-ब्याहे लोग अक्सर किया करते हैं। एक चमारिन के नयन-बाणों से घायल हो गए। वह उनके यहां गोबर पाथने, बैलों को सानी-पानी देने और इसी तरह के दूसरे फुटकर कामों के लिए नौकर थी। जवान थी, छबीली थी और अपने वर्ग की अन्य रमणियों की भांति प्रसन्नमुख और विनोदिनी थी। ‘एक समय सखि सुअरि सुंदरि’-वाली बात थी। मामू साहब का तृषित हृदय मीठे जल की धारा देखते ही फिसल पड़ा। बातों-बातों में उससे छेड़छाड़ करने लगे। वह इनके मन का भाव ताड़ गयी। ऐसी अल्हड़ न थी और नखरे करने लगी। केशों में तेल भी पडऩे लगा, चाहे सरसों का ही क्यों न हो। आंखों में काजल भी चमका, ओठों पर मिस्सी भी आयी और काम में ढिलाई भी शुरू हुई।

कभी दोपहर को आयी और झलक दिखलाकर चली गयी, कभी सांझ को आयी और एक तीर चलाकर चली गई। बैलों को सानी-पानी मामू साहब खुद दे देते, गोबर दूसरे उठा ले जाते, युवती से बिगड़ते क्योंकर? वहां तो अब प्रेम उदय हो गया था। होली में उसे प्रथानुसार एक साड़ी दी, मगर अबकी गजी की साड़ी न थी। खूबसूरत-सी हवा दो रुपए की चुंदरी थी। होली की त्योहारी भी मामूल से चौगुनी थी। और यह सिलसिला यहां तक बढ़ा कि वह चमारिन ही घर की मालकिन हो गयी।

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