एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1 : संसार की सारी औरतें एक दिन की छुट्टी ले लें तो?
एपिसोड 2 :
जिन्होंने भोजन को बचाया: अफ़्रीका की ग़ुलाम माताएं
एपिसोड 3 : मारिया मेन्दलीवा: द मदर ऑफ़ कैमिस्ट्री
एपिसोड 4 : जीन डुवाल: ब्लैक वीनस
एपिसोड 5 : जोसेफ़ीन बेकर: इन्द्रधनुष का सपना
एपिसोड 6 : फ़्रीदा काहलो: बम के गिर्द लिपटा मुलायम रिबन
एपिसोड 7 : अमला शंकर: आधे देवता की पूरी देवी
एपिसोड 8 : काली एलिस: तीन शताब्दियों में जीवित इतिहास
एपिसोड 9 : स्टीफ़न हॉकिंग की औरतें: एक आकाशगंगा ऐसी भी
एपिसोड 10 : सूज़न बी. एंथनी: उसने कह दिया, “नहीं!”
एपिसोड 11 : इक़बाल बानो: लाज़िम है
एपिसोड 12 : बेयाट्रीस वुड: किताबें, चॉकलेट और जवान लड़के
एपिसोड 13 : एमिली डिकिन्सन: पाँच सौ बार जी हुई मौत
एपिसोड 14 : जुन्को ताबेई: अन्तरिक्ष की सबसे ऊंची पर्वतश्रृंखला
एपिसोड 15 : डॉ. विश्वनाथन शांता: अपराध नहीं होती बीमारी
एपिसोड 16 : अलेक्ज़ैन्ड्रा डेविड-नील: संसार की पहली हिप्पी
एपिसोड 17 : बेरिल कुक: जीवन का उत्सव
एपिसोड 18 : बॉबी गिब और कैथरीन स्वाइटज़र: चल कर नहीं दौड़ कर हासिल होगी ज़िन्दगी
एपिसोड 19 : परवीन शाकिर: मौसम की पहली बारिश
एपिसोड 20 : सोफ़िया टॉलस्टॉय: नहीं लिखी गईं कितनी सारी कहानियाँ
एपिसोड 21 : सू टाउनसेंड: अदृश्य लोगों की उपस्थिति दर्ज़ करने की ज़िद
एपिसोड 22 : लीबी राणा: तुम अपना रंजो-ग़म अपनी परेशानी मुझे दे दो
एपिसोड 23 : सोफ़ी शॉल: छठा पैम्फलेट
एपिसोड 24 : उर्सुला इगुआरान: एकाकीपन के एक सौ सोलह साल
एपिसोड 25 : फ़्लोरेंस ग्रिफिथ जॉयनर: सबसे तेज़ भागने वाली फ़ैशन डिज़ाइनर
एपिसोड 26 : अल्लाह जिलाई बाई की मूमल: राजस्थान का जीवनजल
एपिसोड 27 : आशा रानी: नैहर छूटो जाय
एपिसोड 28 : मारिया आना मोत्सार्ट: खामोश करा दिया गया एक पियानो
एपिसोड 29 : नाडिया अंजुमन: एक बेआवाज़ रुलाई
एपिसोड 30 : सोफ़िया लॉरेन: दो स्त्रियाँ
एपिसोड 31 : ओरियाना फ़ल्लाची: सत्ताएं जिसकी हिम्मत से काँपती थी 
एपिसोड 32 : नाज़िया हसन: आप जैसा कोई
एपिसोड 33 : एलिज़ाबेथ डेविड: एन ऑमलेट एंड अ ग्लास ऑफ़ वाइन
एपिसोड 34 : मेरसेदेस बार्चा पारदो: अकेले गाबो ने नहीं
एपिसोड 35 : मॉड गॉन: महाकवि की एकतरफा मोहब्बत
एपिसोड 36 : कमील क्लॉडेल: पेरिस की शकुन्तला
एपिसोड 37 : फ्रांसुआ ज़ीलो: पिकासो के फ़ोटोग्राफ़ वाली सुन्दर स्त्री
एपिसोड 38 : कलकत्ते की बेग़म जॉनसन: ग़ज़ब की औरत
एपिसोड 39 : ऐन हैथअवे: शेक्सपीयर का दूसरा सबसे अच्छा पलंग
एपिसोड 40 : सतपुली की विजेश्वरी: हिमालय की बड़ी बेटी
एपिसोड 41 : माची तवारा: जापान की 'सैलैड एनीवर्सरी'
एपिसोड 42 : अन्ना अख़्मातोवा: कवि की भूमिका में माँ
एपिसोड 43 : अलेक्सा पाप्पास: द रन इज़ मोर इम्पोर्टेन्ट दैन द रेस
एपिसोड 44 : होमी व्यारावाला: डालडा 13
एपिसोड 45 : रेहाना जब्बारी: अभी सुंदरता की क़द्र नहीं है
एपिसोड 46 : ईवा एकेब्लाड: उसके पहले इतना ख़ास न था आलू
एपिसोड 47 : लिसा स्थालेकर: अनाथालय से बाईस गज की पट्टी तक
एपिसोड 48 : मन्दिरा चक्रबर्ती: उसे मुट्ठी भर बीज दो
एपिसोड 49 : नाडिया नदीम: पूरे संसार की बहादुर बेटी-बहन
एपिसोड 50 : मर्लिन मुनरो: परमेश्वर ने भी नहीं उठाया उसका टेलीफ़ोन
एपिसोड 51 : नीलो बेग़म: तू कि नावाक़िफ़-ए-आदाब-ए-शहंशाही थी
एपिसोड 52 : मैरी ऐन्तोइनेत: झूठ की चक्की से गिलोटीन तक
एपिसोड 53 : हेडा स्टर्न: चौदह आदमियों के बीच अकेली औरत
एपिसोड 54 : लीला नायडू: कोई भी एंगल ग़लत नहीं था उसके जीवन में
एपिसोड 55 : पुष्पा रावत: एकदम सही निर्णय
एपिसोड 56 : गेर्ता पोहोराइल और आंद्रे फ़्रीडमान: एक अनूठी प्रेमकहानी
एपिसोड 57 : एडिथ और ईगोन शीले: एक और अनूठी प्रेमकहानी

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वे पुरुषों को अहसास दिलाना चाहती थीं कि उनके द्वारा किया जाने वाला काम भी देश के संचालन में बराबर का महत्व रखता है कि दिन भर नवजात के कपड़े धो रही औरत किसी कम्पनी के सीईओ से कमतर काम नहीं करती।

संसार की सारी औरतें एक दिन की छुट्टी ले लें तो?

जब यूनाइटेड नेशंस ने 1975 को महिला वर्ष घोषित किया तो यूरोप के एक देश की महिलाओं ने सचमुच में उसका उत्सव मनाने का फ़ैसला लिया। उस समय कुल दो लाख बीस हज़ार की आबादी वाला यह देश था आइसलैंड। देश के सबसे बड़े पाँच महिला संगठनों ने तय किया कि 24 अक्टूबर को सारी औरतें छुट्टी ले लेंगी यानी हड़ताल पर चली जाएंगी। वे कोई काम नहीं करेंगी – न खाना बनाएंगी, न सफ़ाई करेंगी, न बच्चों की देखरेख।

आइसलैंड के इतिहास में उस दिन को ‘द लॉन्ग फ़्राइडे’ के नाम से याद किया जाता है। सारे सुपरमार्केटों से रेडीमेड खाना समाप्त हो गया। दफ़्तर अपने बापों के साथ आए बच्चों से भर गए थे जिनसे बवाल न मचाने की मिन्नत की जा रही थी। उन्हें चॉकलेट-टॉफ़ियाँ रिश्वत के बतौर दी जा रही थीं। स्कूल, नर्सरियाँ और खाना तैयार करने वाली फ़ैक्ट्रियाँ या तो बंद पड़े थे या उनमें क्षमता से कई गुना कम काम हो रहा था। पूरा देश अपंग हो गया था।

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औरतों ने पूरे देश में बीस जुलूस निकाले। राजधानी रेक्याविक के मुख्य चौक पर पच्चीस हज़ार औरतें इकठ्ठा हुईं। इतनी कम आबादी वाले देश के हिसाब से यह अकल्पनीय रूप से बड़ी संख्या थी। ये औरतें अपने हिस्से के संसार में बराबर का हक़ माँग रही थीं। उनका कहना था एक जैसा काम करने के लिए पुरुषों और महिलाओं को दिए जाने वाले पारिश्रमिक अलग-अलग क्यों होते हैं? यही कामकाजी महिलाएं घरों के भीतर का सारा काम भी करती थीं। उनके नाम देश की किसी भी टेलीफ़ोन डायरेक्टरी में नहीं थे।  वे पुरुषों को अहसास दिलाना चाहती थीं कि उनके द्वारा किया जाने वाला काम भी देश के संचालन में बराबर का महत्व रखता है कि दिन भर नवजात के कपड़े धो रही औरत किसी कम्पनी के सीईओ से कमतर काम नहीं करती।

ज़्यादातर पुरुषों ने इस प्रदर्शन को एक लतीफ़े से ज़्यादा तवज्जो नहीं दी लेकिन आइसलैंड के समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर गढ़ा गया नैरेटिव उस दिन पूरी तरह बदल गया। 

अगले साल यानी 1976 में आइसलैंड ने जेंडर आधारित समानता का क़ानून पास किया जिसके तहत स्कूलों और काम करने की जगहों पर आदमी-औरत के बीच भेदभाव समाप्त कर दिया गया। पाँच साल बाद विग्दिस फिनबोदोतिर आइसलैंड की पहली प्रेसीडेंट बनीं। संसार के इतिहास में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गईं किसी भी देश की वे पहली मुखिया बनीं और सोलह बरस अपने पद पर बनी रहीं। आज आइसलैंड में बिना किसी तरह के आरक्षण के संसद में स्त्री-पुरुष सदस्यों की बराबर संख्या है। पिछले दस सालों से जेंडर आधारित समानता के इंडेक्स पर आइसलैंड दुनिया में पहले नंबर पर क़ाबिज़ है। ‘द इकॉनोमिस्ट’ उसे कामकाजी महिलाओं के लिए सर्वश्रेष्ठ देश बताता है।

जब 1981 में रोनाल्ड रीगन अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो शपथ ग्रहण का सीधा प्रसारण आइसलैंड में भी हुआ। टीवी पर उसे देख रही एक महिला से उसके दस साल के बच्चे ने हैरत करते हुए पूछा, “ऐसा कैसे हो सकता है! यह तो आदमी है। राष्ट्रपति तो औरतें होती हैं न?” यूरोप में राष्ट्रपति का ओहदा हासिल करने वाली पहली महिला बनीं विग्दिस फिनबोदोतिर ख़ुद अपनी माँ और तीन साल की बेटी के साथ उस प्रदर्शन में मौजूद थीं। उन दिनों वे रेक्याविक थिएटर कम्पनी की कला निर्देशक थीं और 24 अक्टूबर वाले प्रदर्शन के लिए सारी रिहर्सल्स रद्द करवा कर पहुंची थीं। 

आधुनिक संसार में महिलाओं की सामाजिक स्थिति कैसी शोचनीय रही है इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि उन्हें वोट देने का अधिकार सबसे पहले 1893 में न्यूजीलैंड में हासिल हुआ। 1913 तक ऐसा करने वाले देशों की सूची में केवल तीन नाम और जुड़ सके – ऑस्ट्रेलिया, फ़िनलैंड और नॉर्वे। हैरत होती है कि स्विट्ज़रलैंड जैसे देश तक में ऐसा 1971 में हो सका। हालांकि आइसलैंड की महिलाओं को यह अधिकार 1915 में मिल चुका था, तब से लेकर ‘द लॉन्ग फ़्राइडे’ तक वहाँ की संसद में कुल नौ महिलाओं को चुन कर आने का मौक़ा मिल सका था। अकेले 1975 में यह संख्या तीन थी जो कुल क्षमता का पाँच फ़ीसदी थी। 

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रेक्याविक की उस ऐतिहासिक रैली में सबसे पहले एक गृहिणी ने भाषण दिया। उसके बाद दो सांसदों का नंबर आया और फिर महिला संगठनों से जुड़ी दो महिलाओं का। आख़िरी स्पीच एडलहेडर ब्यार्नफ्रेड्सडोटीर ने दी। वे स्कूलों और अस्पतालों में साफ़-सफ़ाई, कपड़े धोने और खाना पकाने जैसे काम करने वाली महिलाओं के संगठन की मुखिया थीं। उन्होंने जीवन में कभी भाषण नहीं दिया था लेकिन उनकी बातों की ईमानदारी ने वहाँ मौजूद हर किसी को भावविभोर कर दिया। अगले चुनाव में एडलहेडर ब्यार्नफ्रेड्सडोटीर सांसद बनीं। 

आइसलैंड की पुरानी कहावत है – “क़दमों के निशानों को बर्फ़ बहुत जल्दी ढँक देती है” यानी चीज़ें बहुत जल्दी इतिहास में दफ़न हो जाती हैं। इस घटना के साथ ऐसा नहीं हुआ। अगले दिन को याद करती हुईं विग्दिस फिनबोदोतिर ने एक साक्षात्कार में कहा, “अगले दिन सब कुछ सामान्य तरीक़े से शुरू तो हुआ लेकिन हर कोई इस बात को जान गया था कि अगर हमारे समाज ने खड़ा रहना है तो पुरुष और स्त्री दोनों को बराबर सम्मान और अधिकार दिए जाने होंगे। पूरे देश का सोचने का तरीक़ा बदला हुआ था। पाँच साल बाद जब राष्ट्रपति का चुनाव हुआ, विग्दिस फिनबोदोतिर ने तीन पुरुष प्रत्याशियों को हराकर जीत दर्ज़ की। उनकी कार्यशैली इस क़दर लोकप्रिय हुई कि अगले तीन में से दो चुनावों में उन्हें निर्विरोध राष्ट्रपति चुना गया। आज उनके देश की संसद में 44 प्रतिशत सांसद महिलाएं हैं। 

24 अक्टूबर 1975 की उस ऐतिहासिक हड़ताल ने सिद्ध किया कि कोई भी महिला ग़ैर-कामकाजी नहीं होती और ‘वर्किंग वूमन’ पुरुषों द्वारा चलाया गया जुमला है। हर औरत वर्किंग वूमन होती है अलबत्ता ज़्यादातर औरतों को उनके काम के बदले कोई रक़म हासिल नहीं होती। आज भी दुनिया का 75% ऐसा काम औरतें करती हैं जिसके लिए कोई मेहनताना नहीं दिया जाता।

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