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“हरसिंगार गिर कर भी पवित्र होते हैं। देवता को प्रिय होते हैं”

हरसिंगार

“दुर्गा माई को हरसिंगार बहुत भाते हैं”

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अम्मा ने कई बार बताया था। माई के लिए भर कार्तिक इधर उधर पड़ोसियों के अहाते में झांक-झांक कर उड़हल, चंपा, गुलाब… सब तोड़ती थी अम्मा। मगर हरसिंगार के लिए न उचकना, न झांकना। अम्मा के पैरों में खुद बिछ जाते थे, हरसिंगार और अम्मा खूब प्रेम से एक-एक कर गीली मिट्टी पर से फूल बीनती। पपीहा अपनी सूती फ्राक में अम्मा की सारी मेहनत समेटते जाती।

“हरसिंगार गिर कर भी पवित्र होते हैं। देवता को प्रिय होते हैं”

मिट्टी में सन कर भी, मिट्टी का होकर भी पवित्र होना। ये कहानियां सिर्फ पपीहा हीं नहीं इस देश की बेटियां पीढ़ियों से सुनती आई हैं। सीता भी तो श्वेत वस्त्र में जब लपकती आंच पर बैठी होगी, बिलकुल हरसिंगार सी दिखती होगी। सफ़ेद पंखुड़ियां….अग्नि सी लाल डंठल। बिलकुल हरसिंगार सी। पवित्र, बेदाग, देवता को प्रिय…. फिर भी मिट्टी में सनी… जो डालियों पर कभी न सजी।

पर पपीहा का मन कहां देवी देवताओं की कथा कहानियों में लगता था। बचपन में वैसे भी मन का कोई स्थाई पता तो होता नहीं। कभी सहेली की लाल रिबन में अटकता है तो कभी दुकान में सजी रंगीन झालर में उलझता है। पर पपीहा की ना तो कोई ऐसी सहेली थी और ना गंगटोक के उस छोटे से मोहल्ले में कोई ऐसी झालर वाली दुकान।

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पपीहा के मन का तो एक ही पता था। बाबा के स्टेशनरी की दुकान की सबसे ऊपर वाली दराज। रवींद्रनाथ ठाकुर की कविताएं, कहानियां…..सब धूल खाती इस एक दराज़ में तब तक सोती रहतीं जब तक पपीहा के स्कूल से लौटने का वक्त नहीं हो जाता। रोज़ स्कूल से लौट कर पपीहा दो तीन घंटे दुकान संभालती। बिक्री ज़्यादा थी नहीं और किताबें तो वैसे भी कोई नहीं खरीदता। तो पपीहा फुरसत से गुरुदेव के साथ हंसती, रोती, गाती।

ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। जल्द हीं रवींद्रनाथ ठाकुर ने वर्ड्सवर्थ के घर का रास्ता दिखाया और वर्ड्सवर्थ ने एलियट साहब से मुलाकात करा दी। फिर क्या था सिल्विया प्लाथ, यिट्स, बायरन सब जुड़ते गए। जो बचपन में गुमसुम अकेले घूमने वाली बच्ची थी.. अब पूरा कारवां साथ लिए घूमती थी। कॉलेज जाते-जाते पपीहा की डायरी उसकी खुद की लिखी टूटी-फूटी, कुछ पूरी, कुछ अधूरी कविताओं से भर गई।

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