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साँप जो किसी कनस्तर, बोरी या झाड़ी के पीछे छिप अपने एकमात्र देव शिवशंभो को याद कर रहा होता, दो-तीन मिनट में पालतू कुत्ते में बदल जाता...

दो तस्वीरें

इस कॉलोनी की दो आँखों की दो पुतलियों में दो तस्वीरें हमेशा ज़िंदा रहेंगी - एक साँपों के मरने की, दूसरी बंडू काका के हँसने की। 

कॉलोनी में पुराने लोगों को याद है कि शुरुआती दिनों में कैसे साँपों की घिग्घी बँध जाती थी। अगर आप झाड़ियों के पास से गुज़र रहे हों, सरसराहट की आवाज़ आने पर लगे कि आसपास कोई साँप होगा, तो सिर्फ़ इतना कह दीजिए- बुलाऊँ क्या बंडू काका को, बस, साँप को साँप सूँघ जाएगा। सरसराहट की जगह सन्नाटा सरक आएगा। कई लोगों ने तो अपनी आँखों से बदहवास साँप को भागते देखा है- बंडू काका के नाम के ख़ौफ़ से। ऐसा था उसका नाम। 

मज़ाक़ लग रहा? वही है, पर दाल में नमक बराबर। पुराने लोग तो इसे हक़ीक़त के माफ़िक़ ही सुनाते हैं।

साँप पकड़ने वाला बंडू काका इस कॉलोनी का सबसे लोकप्रिय और रहस्यमय व्यक्तित्व वाला इंसान था। लोगों में समय काटने के लिए जिन तीन मुद्दों पर सबसे ज़्यादा बात होती थीं, उनमें पहले नंबर पर होती थी कॉलोनी की लड़कियों की छाती-फोड़ जवानी (जिनकी बड़ी होती लड़कियाँ थीं, वे ऐसी चर्चाओं से वॉकआउट कर जाया करते थे), दूसरी, लड़कियों का झोंटा पकड़कर उनके सिर पर आ बैठे भूत को पटक-पटक रुलाने वाली पहाड़िन आंटी, जो अपने माथे पर तीसरी आँख से भी बड़ी बिंदी लगाती थीं और तीसरी, बंडू काका साँप पकड़ने वाले की, जो छड़ी से साँपों को बाँध देता था, उनके मुँह से ख़ून गिरा देता था और उन्हें उनकी दुम पर खड़ा कर देता था।

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बंडू काका हर जगह नहीं पाया जाता था। घर पर खोजना तो उसकी ‘इंसलेट’ होती थी। 

वह कहता था कि व्यस्त और कामकाजी लोग घर पर नहीं मिला करते। 

लोग कहते थे कि उसे ऊपरवाले ने धरती के लोगों को साँपों से बचाने के लिए भेजा है। 

कांबा में भट्‌ठी चलाने वाला तुकोबा दारूवाला कहता था कि उसको ऊपरवाले ने मेरी फुल टंकी ख़ाली करने के वास्ते भेजा है। 

कुछ कर्मचारीनुमा लोग, जो आपसी बातचीत में हमेशा कंपनी के बढ़ते ख़र्चों पर चिंता जताते थे, कहते कि ऊपरवाले ने उसे कंपनी का माल मुफ़्त में मारने के लिए भेजा है। 

स्पष्ट है, बंडू काका को ऊपरवाले ने अलग-अलग मक़सदों से भेजा था और वह इस धरती पर अपनी बहुमुखी भूमिका निभा भी रहा था- बाक़ायदा।

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हल्ला किसी भी वक़्त हो सकता था। साँपों के कलाई नहीं होती और उस पर कोई घड़ी भी नहीं होती, सो वे बिना समय देखे कहीं भी प्रकट हो जाते थे। जिसके सामने होते, उसकी फटकर गुफा हो जाती थी। ऐसी अ-प्रागैतिहासिक गुफाओं से जो आवाज़ निकलती थी, वह भाषा में बंडू काका का नाम होती थी। उस वक़्त वह कहीं भी हो; भले अपनी कल्पनाओं में जिमी कार्टर या रोनाल्ड रीगन के साथ ‘इंडो-यूएस संयुक्त सर्प-उन्मूलन कार्यक्रम’ की अध्यक्षता कर रहा हो या देसी-विदेशी किसी एक्ट्रेस के बूब्स के साथ फुटबॉल खेल रहा हो, जाने कैसे उस जगह तुरंत हाज़िर हो जाता। वह अपने साथ कोई छड़ी लेकर नहीं चलता था, आसपास से कोई डंठल उठा लेता। जाने कैसे अंदाज़ा लगा लेता कि इस डंठल के कान कहाँ होंगे और उसमें कुछ फुसफुसाता।

डंठल भी उसकी बात समझ जाता और ज़मीन पर पड़ा आराम फ़रमाने का स्वांग करने लगता। साँप जो किसी कनस्तर, बोरी या झाड़ी के पीछे छिप अपने एकमात्र देव शिवशंभो को याद कर रहा होता, दो-तीन मिनट में पालतू कुत्ते में बदल जाता। आकर उस डंठल को सूँघता। उसके बाद साँप का काम तमाम। किसी लाठी-गोजी से नहीं। अपने आप। सूँघते ही साँप उछलता। फिर गिर पड़ता। उसके बाद थोड़ा-सा रेंगता। थोड़ा-सा घिसटता। और पड़ जाता। एक्शन फिल्मों के खलनायक की तरह मर जाने के बाद भी चौंकाने वाला एक झटका खाता। लोगों को अपनी आख़िरी साँस से डराता। फिर खेल ख़त्म। बंडू काका के चेहरे पर एक हँसी थरथराती। हवा में साँप की लाश लहराती। ज़मीन पर पटक दी जाती। और फिर बंडू काका ज़ोर से हँसता। उसकी आवाज़ आसपास की तमाम झाड़ियों में घुस जाती। ऊँचा सुनने वाले साँप भी हदस कर अपनी झाड़ियों में खो जाते। नागिनें अपने बच्चों को समझातीं- बाहर मत निकलो, वहाँ बंडू काका साँप पकड़ने वाला खड़ा है। सँपोले अपनी माँ के पेट से चिपक जाते और बेआवाज़ रोते। फुफकार सिसकियों में बदल जाती। 

दहशतज़दा लोगों की आँखों में दो तस्वीरें बन जातीं- एक साँप के तड़पने की, दूसरी बंडू काका के हँसने की। 

इन दोनों तस्वीरों को कोई भुला नहीं सकता।

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