एपिसोड 1

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अनुक्रम: 

एपिसोड 1-4 : खून सफेद
एपिसोड 5-8 : गरीब की हाय 
एपिसोड 9-11 : बेटी का धन
एपिसोड 12-14 : सेवा-मार्ग
एपिसोड 15-16 : शिकारी राजकुमार
एपिसोड 17-18 : धर्मसंकट
एपिसोड 19-21 : बलिदान
एपिसोड 22-23 : बोध
एपिसोड 24-26 : सच्चाई का उपहार
एपिसोड 27-31 : ज्वालामुखी
एपिसोड 32-35 : पशु से मनुष्य
एपिसोड 36-42 : मूठ
एपिसोड 43-45 : ब्रह्म का स्वांग
एपिसोड 46-47 : विमाता
एपिसोड 48-50 : बूढ़ी काकी
एपिसोड 51-56 : हार की जीत
एपिसोड 57-58 : दफ्तरी
एपिसोड 59-60 : यमदूत
एपिसोड 61-62 : स्वत्व-रक्षा
एपिसोड 63-64 : पूर्व संस्कार
एपिसोड 65-66 : दुस्साहस
एपिसोड 67-68 : बौड़म
एपिसोड 69-70 : गुप्त धन
एपिसोड 71-73 : आदर्श विरोध
एपिसोड 74-75 : अनिष्ट शंका
एपिसोड 76-78 : सौत
एपिसोड 79-81 : सज्जनता का दंड
एपिसोड 82-83 : नमक का दारोगा
एपिसोड 84-85 : परीक्षा
एपिसोड 86-93 : उपदेश

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दोनों की आँखें आँसुओं से भरी थीं। देवकी रोती रही। जादोराय चुपचाप था। गाँव के दो-चार आदमियों से भेंट भी हुई, किसी ने इतना भी नहीं पूछा कि कहाँ जाते हो? किसी के हृदय में सहानुभूति का वास न था।

कहानी: खू़न सफ़ेद 

मानसिक वेदना 

चैत का महीना था लेकिन वे खलिहान, जहाँ अनाज की ढेरियाँ लगी रहती थीं, पशुओं के शरणास्थल बने हुए थे। जहाँ घरों से फ़ाग और बसन्त का अलाप सुनाई पड़ता, वहाँ आज भाग्य का रोना था। 

सारा चौमासा बीत गया, पानी की एक बूँद न गिरी। जेठ में एक बार मूसलाधार वृष्टि हुई थी, किसान फूले न समाए। खरीफ़ की फसल बो दी, लेकिन इन्द्रदेव ने अपना सर्वस्व शायद एक ही बार लुटा दिया था। 

पौधे उगे, बढ़े और फिर सूख गए। गोचर भूमि में घास न जमी। बादल आते, घटाएं उमड़तीं, ऐसा मालूम होता कि जल-थल एक हो जाएगा, परन्तु वे आशा की नहीं, दुःख की घटाएँ थीं।

किसानों ने बहुतेरे जप-तप किए। ईंट और पत्थर देवी-देवताओं के नाम से पुजाए, बलिदान किए, पानी की अभिलाषा में रक्त के पनाले बह गए, लेकिन इन्द्रदेव किसी तरह न पसीजे। न खेतों में पौधे थे, न गोचरों में घास, न तालाबों में पानी। बड़ी मुसीबत का सामना था। जिधर देखिए, धूल उड़ रही थी। 

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दरिद्रता और क्षुधा-पीड़ा के दारुण दृश्य दिखाई देते थे। लोगों ने पहले तो गहने और बर्तन गिरवी रखे और अन्त में बेच डाले। फिर जानवरों की बारी आई और अब जीविका का अन्य कोई सहारा न रहा, तब जन्म भूमि पर जान देने वाले किसान बाल-बच्चों को लेकर मज़दूरी करने निकल पड़े। 

अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए कहीं-कहीं सरकार की सहायता से काम खुल गया था। बहुतेरे वहीं जाकर जमे। जहाँ जिसको सुभीता हुआ, वह उधर ही जा निकला।

संध्या का समय था। जादोराय थका-माँदा आकर बैठ गया और स्त्री से उदास होकर बोला- दरख़ास्त नामंजू़र हो गई। यह कहते-कहते वह आँगन में ज़मीन पर लेट गया। उसका मुख पीला पड़ रहा था और आँतें सिकुड़ी जा रही थीं। आज दो दिन से उसने दाने की सूरत नहीं देखी। 

घर में जो कुछ विभूति थी, गहने कपड़े, बर्तन-भाँडे सब पेट में समा गए। गाँव का साहूकार भी पतिव्रता स्त्रियों की भाँति आँखें चुराने लगा। केवल तकाबी का सहारा था, उसी के लिए दरख़ास्त दी थी, लेकिन आज वह भी नामंजू़र हो गई। आशा का झिलमिलाता हुआ दीपक बुझ गया।

देवकी ने पति को करुण दृष्टि से देखा। उसकी आँखों में आँसू उमड़ आए। पति दिन भर का थका-माँदा घर आया है। उसे क्या खिलाए? लज्जा के मारे वह हाथ-पैर धोने के लिए पानी भी न लाई। जब हाथ-पैर धोकर आशा-भरी चितवन से वह उसकी ओर देखेगा, तब वह उसे क्या खाने को देगी? 

उसने आप कई दिन से दाने की सूरत नहीं देखी थी। लेकिन इस समय उसे जो दुख हुआ, वह क्षुधातुरता के कष्ट से कई गुना अधिक था। स्त्री घर की लक्ष्मी है घर के प्राणियों को खिलाना-पिलाना वह अपना कर्त्तव्य समझती है। और चाहे यह उसका अन्याय ही क्यों न हो, लेकिन अपनी दीनहीन दशा पर जो मानसिक वेदना उसे होती है, वह पुरुषों को नहीं हो सकती।

हठात उसका बच्चा साधो नींद से चौंका और मिठाई के लालच में आकर वह बाप से लिपट गया। इस बच्चे ने आज प्रायः काल चने की रोटी का एक टुकड़ा खाया था। और तब से कई बार उठा और कई बार रोते-रोते सो गया। 

चार वर्ष का नादान बच्चा, उसे वर्षा और मिठाई में कोई संबंध नहीं दिखाई देता था। जादोराय ने उसे गोद में उठा लिया और उसकी ओर दुःख भरी दृष्टि से देखा। गर्दन झुक गई और हृदय-पीड़ा आँखों में न समा सकी।

दूसरे दिन वह परिवार भी घर से बाहर निकला। जिस तरह पुरुष के चित्त अभिमान और स्त्री की आँख से लज्जा नहीं निकलती, उसी तरह अपनी मेहनत से रोटी कमाने वाला किसान भी मज़दूरी की खोज में घर से बाहर नहीं निकलता। 

लेकिन हा पापी पेट! तू सब कुछ कर सकता है! मान और अभिमान, ग्लानि और लज्जा के सब चमकते हुए तारे तेरी काली घटाओं की ओट में छिप जाते हैं।

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प्रभात का समय था। ये दोनों विपत्ति के सताए घर से निकले। जादोराय ने लड़के को पीठ पर लिया। देवकी ने फटे-पुराने कपड़ों की वह गठरी सिर पर रखी, जिस पर विपत्ति को भी तरस आता। 

दोनों की आँखें आँसुओं से भरी थीं। देवकी रोती रही। जादोराय चुपचाप था। गाँव के दो-चार आदमियों से भेंट भी हुई, किसी ने इतना भी नहीं पूछा कि कहाँ जाते हो? किसी के हृदय में सहानुभूति का वास न था।

जब ये लोग लालगंज पहुँचे, उस समय सूर्य ठीक सिर पर था। देखा, मीलों तक आदमी-ही-आदमी दिखाई देते थे। लेकिन हर चेहरे पर दीनता और दुख के चिन्ह झलक रहे थे।

बैसाख की जलती हुई धूप थी। आग के झोंके ज़ोर-ज़ोर से हरहराते हुए चल रहे थे। ऐसे समय में हड्डियों के अगणित ढाँचे, जिनके शरीर पर किसी प्रकार का कपड़ा न था, मिट्टी खोदने में लगे हुए थे, मानो वह मरघट भूमि थी, जहाँ मुर्दे अपने हाथों अपनी कबर खोद रहे थे।

बूढ़े और जवान, मर्द और बच्चे, सबके-सब ऐसे निराश और विवश होकर काम में लगे हुए थे, मानो मृत्यु और भूख उनके सामने बैठी घूर रही है। इस आफ़त में न कोई किसी का मित्र था, न हितू। 

दया, सहृदयता और प्रेम ये सब मानवीय भाव हैं, जिनका कर्ता मनुष्य है। प्रकृति ने हमको केवल एक भाव प्रदान किया है और वह स्वार्थ है। मानवीय भाव बहुधा कपटी मित्रों की भाँति हमारा साथ छोड़ देते हैं, पर यह ईश्वर-प्रदत्त गुण हमारा गला नहीं छोड़ता।


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