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उनके लिए तो अपनी बीमारी और अपनी तीमारदारी ही सबसे महत्त्वपूर्ण थी और इस हालत में अम्मा से सेवा करवाना वह अपना अधिकार समझते थे तो इसी तरह सेवा करना अम्मा का फर्ज़।

अम्मा

...और अंततः ब्रह्म मुहूर्त में बाबू ने अपनी आखिरी सांस ली। वैसे पिछले आठ-दस दिन से डॉक्टर सक्सेना परिवार वालों से बराबर यही कह रहे थे, “प्रार्थना कीजिए ईश्वर से कि वह अब इन्हें उठा ले… वरना एक बार अगर कैंसर का दर्द शुरू हो गया तो बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे ये।” परिवार वालों के अपने मन में भी चाहे यही सब चल रहा हो, पर ऊपर से तो सब एक दुखद मौन ओढ़े खड़े रहते, बिल्कुल चुपचाप! 

तब सबको आश्वस्त करते हुए डॉ. सक्सेना ही फिर कहते, “वैसे भी सोचो तो इससे अधिक सुखद मौत और क्या हो सकती है भला? चारों बच्चे सेटिल ही नहीं हो गए, कितना ध्यान भी रखते हैं पिता का… वरना आज के ज़माने में तो... बड़े भाग से मिलता है ऐसा घना-गुंथा संयुक्त परिवार, जिसके आधे से ज़्यादा सदस्य तो इसी शहर में रहते हैं और बराबर जो अपनी ड्यूटी निभाते ही रहे हैं, कहीं कोई चूक नहीं, कोई कमी नहीं।”

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परिवार के लोग चुप। मेरा मन ज़रूर हुआ कि उन्हीं की बात आगे बढ़ाते हुए इतना और जोड़ दूं कि कितनों को मिलते हैं आप जैसे डाॅक्टर, जो इलाज करते-करते परिवार के सदस्य ही बन गए… बाबू के तीसरे बेटे! पर कहा नहीं गया। मैं भी परिवार वालों के साथ चुप ही खड़ी रही।

“और सबसे बड़ी बात तो यह कि कितनों को नसीब होती है ऐसी सेवा करने वाली पत्नी? मैं तो हैरान हूं उनका सेवा-भाव देखकर। आखिर उम्र तो उनकी भी है ही… उसके बावजूद पिछले आठ महीनों से उन्होंने न दिन को दिन गिना, न रात को रात! बस लगातार…” और बिना वाक्य पूरा किए ही मुड़कर वे जाने लगते। 

पता नहीं क्यों मुझे लगता, जैसे मुड़ते ही वह अम्मा के इस सेवा-भाव के प्रति कहीं नत-मस्तक हुए हों और मैं सोचती कि चलो, कम से कम एक आदमी तो है जिसके मन में अम्मा की इस रात-दिन की सेवा के प्रति सम्मान है… वरना परिवार वालों ने इस ओर ध्यान देना ही छोड़ दिया है। बस, जैसे वो करती हैं तो करती हैं। किसी ने इसे उनके फर्ज़ के खाते में डाल दिया तो किसी ने उनके स्वभाव के खाते में तो किसी ने उनकी दिनचर्या के खाते में। 

सब के ध्यान के केंद्र में रहे तो केवल बीमार बाबू। स्वाभाविक भी था… बीमारी भी तो क्या थी, एक तरह से मौत का पैग़ाम। हां, मुझे ज़रूर यह चिंता सताती रहती थी कि बिना समय पर खाए, बिना पूरी नींद सोए, बिना थोड़ा-सा भी आराम किए जिस तरह अम्मा रात-दिन लगी रहती हैं तो कहीं वह न बीमार पड़ जाएं, वरना कौन देखभाल कर सकेगा बाबू की इस तरह? 

बाबू दिन-दिन भर एक खास तेल से छाती पर मालिश करवाते थे तो रात-रात भर पैर दबवाते थे। मैं सोचती कि बाबू को क्या एक बार भी ख़याल नहीं आता कि अम्मा भी तो थक जाती होंगी। रात में उन्हें भी तो नींद की ज़रूरत होती होगी या दिन में समय पर खाने की। पर नहीं, बाबू को इस सबका शायद कभी ख़याल भी नहीं आता था। उनके लिए तो अपनी बीमारी और अपनी तीमारदारी ही सबसे महत्त्वपूर्ण थी और इस हालत में अम्मा से सेवा करवाना वह अपना अधिकार समझते थे तो इसी तरह सेवा करना अम्मा का फर्ज़। 

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कई बार अम्मा को थोड़ी-सी राहत देने के इरादे से मैं ही कहती कि बाबू, लाइए मैं कर देती हूं मालिश… चार बज रहे हैं अम्मा खाना खाने चली जाएं, तो बाबू मेरा हाथ झटक कर कहते, “रहने दे। नहीं करवानी मुझे मालिश।” और इस उत्तर के साथ ही उनके ललाट पर पड़ी सलवटों को देखकर न फिर अम्मा के हाथ रुकते, न पैर उठते। उसके बाद तो मैंने भी यह कहना छोड़ ही दिया। 

तीन महीने पहले बाबू को जब नर्सिंग-होम में शिफ्ट किया तो ज़रूर मैंने थोड़ी राहत की सांस ली। सोचा, अब तो उनकी देखभाल का थोड़ा बोझ नर्स भी उठाया करेंगी… अम्मा को थोड़ी राहत तो मिलेगी। पर नहीं, नर्स से तो बाबू केवल दवाई खाते या बी. पी. चैक करवाते। बाकी की सारी सेवा-चाकरी तो अम्मा के ही ज़िम्मे रही। अम्मा रात-दिन बाबू के साथ नर्सिंग होम में ही रहतीं, और मालिश और पैर दबाने का काम भी पहले की तरह ही चलता रहता। हां, डाॅक्टर सक्सेना की विशेष सिफारिश पर रात में कभी कोई ज़रूरत पड़ जाए तो अम्मा के साथ रहने के लिए परिवार का कोई न कोई सदस्य आता रहता। 

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