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घर के लोग जान चले थे, रासमणि आज नहीं तो कल मर जाएगी। यही सोचकर बाबूजी उसका विवाह नहीं करना चाहते थे, लेकिन वह तो 'मरजिया' हो गई। मर-मर के जी उठने वाली। 

मरजिया


सदानंद पंडित ने समय का अनुमान लगाया… सूरज देवता कोनसिया घर के मुंडेर पर ताड़-भर ऊँचा रह गए थे। नीम की छाया पूरवी चरन तक सरक आई थी। ‘अढ़ाई से ऊपर हो गया जजमान! बारात तो छिने गाँव से बाहर-साढ़े बारह बजे ही निकल पड़ी होगी। इमलिया घाट पर उनका पड़ाव भी डल चुका होगा।’ मानो वह संजय की तरह दूर बैठे-बैठे सारे दृश्य देख रहे हों, ‘अब इधर भी बिनौकी (भोजपुरी भाषी इलाकों में कई जगह विवाह के दिन स्त्रियों द्वारा पड़ोस में जाकर गाना गाते हुए भिक्षा मांगने का रिवाज़) मँगवाने की तैयारी होनी चाहिए, उधो सिंह जी! मेहारारुओं से कह दें कि यहाँ का लोकाचार जल्द फरिया लें। इमलिया घाट कोई लंका कोस नहीं, जो आने में देर लगे। छव बजते-न-बजते बारात जनवासे पर आ लगेगी।’

उद्धव सिंह ने कुम्हारिन के माथे से भरुका का खांचा शीघ्रता से उतरवाते हुए बड़े लड़के से कहा, ‘रामजवाहिर! ई चीज-बस्त का हिसाब-किताब बाद में। माई के पास जाके कहो कि पंडिज्जी बिनौकी मँगवाने के लिए आयसु दे रहे हैं।'

'रामजवाहिर गाँव-जवार से इम्दाद में आए खाट-खटोले, चादर-तोशक पर 'कठपिनिसिन' से निशान लगाकर लिस्ट बना रहा था। उसने 'कठ पिनिसिन' कान पर खोंसी और कॉपी काँख से दबाते हुए भीतर चला गया। औरतें पहले से ही तैयार थीं। रासमणि को सगुनी पियरी साड़ी पहनाई गई, सिंदूर और काजल की एक-के-बाद-एक खिंची सात लकीरों वाली पीली पट्टी ललाट पर चिपकाई गई। उसने मुँह में सुपारी रखी, एक हाथ में कजरोटा और दूसरे हाथ में खोइचा पकड़कर चल पड़ी बिनौकी माँगने। रासमणि ने सबसे पहले माँ के आगे खोइचा फैलाया। औरतों ने गीत काढ़ लिया था…

'उठहु  धिया हो, रासमनी धिया…
अम्मा तोहरा के हरदी लगाई…
अजस सोहाग के खोइचा भराइ' 

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उद्धव बहू ने प्राण से भी प्यारी बेटी के घुटने और कुहनी पर हल्दी लगाते हुए ग्यारह रुपए व पाँच लच्छे कच्चे पीले सूत से खोइचा भर दिया। रासमणि टोले-मुहल्ले की ओर बढ़ चली। उसके साथ-साथ औरतों का गिरोह झूमर गाते हुए चलने लगा…

'बाग में मिलना, बगरचा में मिलना
कब होइहें मिलनवा मेरो रे गुंइया... 
कुंओ पं मिलना, कुंइअओ प मिलना
रस गागर भरा दो मेरो रे गुंइया...

रासमणि का दिल बाग-बाग हो रहा था। झूमर के प्रत्येक बोल के साथ जैसे वह अपने 'गुंइया' से अभिसार करने लग गई हो और कितना ही मिलने के बावजूद प्रीत की रस गगरी भरने से बाक़ी रह जा रही हो। हाय, प्रीत तो वही… बार-बार जिसे पाकर भी मन न अघाय, हृदय का कलश छलक-छलक कर खाली ही रह जाय। न जाने कैसे होंगे वह? 

सदानंद पंडित और बाबूजी के बीच वर व घर से सम्बन्धित बातचीत को वह किवाड़ों की ओट होकर कितने चाव से सुना करती थी। पंडिज्जी जैसे रूप-गुण का बखान करते वह तो रासमणि की कल्पनाओं से मेल खाता ही था। उमर तनिक ज्यादा है तो क्या हुआ? अपनी कौन कम है। चौबीस की तो इसी माघ श्रीपंचमी के दिन हो गई। बाप रे! गाँव-गवई में चौबीस बरस की धिया कुँवारी रह जाए! कितने तो ताने सुनते पड़ते थे रासमणि को सखी-सहेलर भी हमदर्दी के बोल-बचन बोलते व्यंग्य-बाण छोड़ जातीं। 

दादी तो उठते-सोते पचास गंडे बातों से परिछावन करती रहती। अपने जाने रासमणि ने किसी पखेरू तक का रोयाँ न दुखाया, किसी काम से 'ना' नहीं कहा, लेकिन थोड़े परिश्रम के बाद ही सीने में घड़का होने लगता, दम फूल-फूल जाता। बाबूजी ने ओझा-गुणी, वैद्य-हकीम किसी को नहीं छोड़ा; फिर भी वह आए दिन बेहोश हो जाती। सदर अस्पताल के बड़का डॉक्टर से दिखलाया गया, तब कहीं जाकर असल रोग का पता चला। 

कैसे तो उसने बताया था, कलेजे में चार-चार ठो कबजा रहता है, जिसमें से दो ठो जाम हो गया है और यह दो बार लम्बी बेहोशी झेल चुकी है, यदि तीसरी बार बेहोश हुई तो इस संसार से अंतिम विदाई समझो। डाक्टर ने कड़े काम करने से मना कर दिया था… एकदम साफ़ मना… लेकिन उसे क्या पता कि खेती-बाड़ी वाले गृहस्थ के घर में कोई लड़की का 'सिरजना' लेकर आए और काम न करे! वहाँ तो सीधे मुँह यही पूछा जाता है लड़की से, 'काम प्यारा कि चाम प्यारा?' जो लड़की यह बोले कि मुझे तो चाम (रूप-सौंदर्य) प्यारा है तो समझो कि वह सबके चित्त से उतर गई। इन्द्रलोक की अप्सराएँ भले नाच-गाना त्याग दें, लेकिन गृहस्थ के घर की औरतें लड़कियाँ मरते दम तक काम-धाम, सेवा-टहल नहीं छोड़ सकतीं। 

खैर, डाक्टर की सुझायी दवाइयाँ चलती रहीं और उसी के साथ चंद्रलोचन गुनिया के बताए अनुसार बाबूजी (पिता) केतु ग्रह का जाप भी करते रहे। उनमें से ही किसी का अकबाल कि पिछले कुछ सालों से रासमणि ठीक चली आ रही है। वैसे हलका-फुलका काम भी करने से धड़का तो होता है, लेकिन तीसरी बेहोशी नहीं हो पाई, अन्न भी लगने लगा, देह बहाल हो आई। घर के लोग जान चले थे, रासमणि आज नहीं तो कल मर जाएगी। यही सोचकर बाबूजी उसका विवाह नहीं करना चाहते थे, लेकिन वह तो 'मरजिया' हो गई। मर-मर के जी उठने वाली। 

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विवाह की कहीं 'साइत' बैठती भी तो जलने वाले डाही-मोखालिफ लगी लगाई काट देते अथवा कौन जाने उसका नसीब ही बाँक हो उठता! बाबूजी ने हार-थककर बात चलानी ही छोड़ दी। इस पर भी चैन कहाँ? गाँव-गिरान के लोग मदद तो करते नहीं, ऊपर से बाबूजी को विषबुझी 'कइन' चुभो देते- 'जवान बेटी बछेड़ी की तरह पोस रहे हो, कल को कहीं पाँव फिसल गए तो चुल्लू भर पानी भी न मिलेगा डूब मरने के वास्ते।' 

रासमणि सब कुछ देखती सुनती और मन-ही-मन कसकती रहती। वह किसी से किस मायने में कम थी… रंग न सही चंपई, गेंहुआ तो था, नैन-नक्श तीखे थे, लेकिन क्या करे वह, जब प्रारब्ध ने ही कभी न छूटने वाला रोग लगा दिया तो? वह आठों याम तड़पती रहती। विधना उसे उठा क्यों नहीं लेते? यह भी अपने वश का तो ठहरा नहीं। जवानी की बयस और जेठ की बरखा काे भागते देर लगती है भला! रासमणि की उमर चाँड़ होती गई, बीमारी के बावजूद देह ठौर-कुठौर से लौकी की लत्तर की तरह निश्वरत चली गई, आँखों में बलुआही नदी की नाई पानी रिसता रहा, चेहरे पर फीकी ही सही ललाई उभर तो गई, लेकिन माँग सिंदूरी न हुई। 

उसके साथ की कितनी सहेलियाँ भले घर की पतोहू होकर लड़कोर भी हो गईं और कितनी तो दुबारा-तिबारा उम्मीद से हैं किसी के मार्फ़त यह सुनकर कि फलानी का दूल्हा आया है, तो ढिमकानी ससुराल जा रही है, तो चिलानी का गदेला एकदम माँ की गुराई लिए हुए है, रासमणि कुहँक कर रह जाती। अब तो दुखियारी रासमणि की पूरे गांव में एक ही सहेली रह गई थी, शिवानी काकी की विधवा बेटी जानकी। 

रासमणि जानकी को समझती थी और जानकी रासमणि को जानती थी कि बिना पुरुष के काँधे के स्त्रियाँ कितनी बकलोली (बुद्धिहीन) हो जाती हैं, छिन्न-भिन्न हो जाती हैं पगडंडी की दूब की तरह। दोनों सहेलियाँ गाहे-बगाहे अंकवार भेंटकर रोतीं और फिर एक-दूजे को ढांढ़स भी बंधातीं। ज्यादा ढांढ़स जानकी ही बँधाती कि रासमणि तेरी तो आस अभी चूकी नहीं है री, तनिक मेरी ओर निरख… मेरा दुख तो अब चिता के साथ ही जलेगा और दूजी चिता तो नित जलती रहती है मुझ अभागन की छाती में… सचमुच विधवा जानकी की पीर अनब्याही रासमणि के दर्द से बड़ी थी।


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