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सतह पर जो दिखता है वो कई बार कितना भ्रामक होता है। हम कैसे कैसे निष्कर्ष निकाल लेते हैं। कितना कम जानते हैं लोगों को...

हादसा

3 मार्च 2020

रात के एक बजे हैं। मेरी नींद खुली है। गला सूख रहा है। अजीब-सी घुटन है हवा में। जैसे हवा सांस रोककर खड़ी हो और उसके पाँव वहीं जड़ हो गए हों। ठोस, जैसे कोई दीवार खड़ी हो गई हो और उमस के साथ उठती हो बासी गंध।

मेरा नाम वासन्ती है। मैं अपने टू-बेडरूम घर में अकेली रहती हूँ। इस मोहल्ले में सभी घर एक-मंज़िला हैं। कुछ छोटे, कुछ बड़े। पिछले 25 साल से जिस ऑफ़िस में काम करती हूँ, अब उसकी हेड हूँ। जीवन कभी ख़ुशी, कभी ग़म की तर्ज़ पर चलता रहा है, पर हमेशा कंट्रोल में रहा। बाहर आज कुत्तों के रोने की आवाज़ रह-रहकर उठ रही है।

आज कोविड पॉज़िटिव हुए तीसरा दिन है। तीन दिन पहले जब कॉफ़ी की ख़ुशबू नहीं ले पाई, तब ही लगा था कि कुछ तो गड़बड़ है। फिर नाक बहने लगी और गला जकड़ गया। आज क्वारंटीन का भी तीसरा दिन है। मुझे कोविड नहीं होता, अगर उस दिन मैं बाहर निकलकर उस भीड़ में नहीं जाती। 

यह बात क़रीब दो हफ़्ते पहले की है। उस दिन सायरन पर सायरन बज रहे थे। एम्बुलेंस की आवाज़, फिर पुलिस की गाड़ी। फिर रोने, चिल्लाने की आवाज़। मैंने बाहर निकलकर देखा और उत्सुकता की वजह से ठीक वहाँ जा पहुँची, जहाँ भीड़ जमा थी। अजीब-सी भगदड़ मची हुई थी।

कोई कह रहा था, “पंखे से लटक गई।”

“बहुत होशियार लड़की थी। जाने बच्चों को क्या हो जाता है।”

मैंने पास खड़ी औरत से पूछा, “कौन?”

“राकेश-सीमा की बेटी। आत्मजा।”

जवाब बेहद चौंकाने वाला था। वैसे तो हम पास ही रहते थे, पर मेरी उन लोगों से पहचान कोई ख़ास नहीं थी।

“फाँसी लगा ली। पलाश ऐन वक़्त पर नहीं पहुँचता, तो बचती नहीं।”

आत्मजा। उसका मासूम-सा चेहरा आँखों के सामने आ गया, जिस पर उदासी यहाँ-वहाँ जैसे ठहरी हुई हो। उम्र 17 होगी। कई बार स्कूल आते-जाते दिख जाती। लंबी, गोरी, चौड़ा माथा, साफ़ चेहरा, बॉब कट बाल, आँखों पर चश्मा, फ़्लैट चप्पल, जीन्स, टी-शर्ट। लगभग हमेशा ऐसी ही। देखकर कभी मुस्कुराती नहीं। उसकी चाल में एक आत्मविश्वास था, जो कई बार अकड़ की तरह लगता, पर उसमें एक आकर्षण था। हाथों में हरदम एक किताब, एक छोटा बैकपैक, हमेशा। 

कभी कोई सहेली साथ नहीं दिखी। कोई बॉयफ्रेंड भी नहीं। वह शर्मीली या संकोची भी नहीं थी बल्कि खु़द को लेकर बेहद आश्वस्त-सी लगती। माँ-बाप की इकलौती बेटी थी। पर यूँ लाड़ में बिगड़ी हुई भी नहीं। वह उनके साथ त्योहारों या बर्थडे पार्टी में भी नज़र नहीं आती। क्या मजाल कि नवरात्रि में ही दिख जाए या अपनी सहेलियों के साथ हंसी-ठिठोली करती देखी जाए। 

मोहल्ले में सब कहते थे कि बहुत होशियार और समझदार लड़की है। स्कूल में हमेशा फ़र्स्ट आती थी। सिटी टाइम्स में एक-दो बार उसकी तस्वीर भी छपी थी। मुझे तो अकड़ू ही लगी हमेशा। उन बच्चों की तरह जोकि उन बातों पर भी फ़ालतू इठलाते हैं, जो उन्हें सिर्फ़ अपने परिवार और परिवेश की वजह से हासिल हुई।

यह कल्पनातीत था कि वैसी लड़की ऐसा कोई क़दम उठाएगी।

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सतह पर जो दिखता है, वह कई बार कितना भ्रामक होता है। हम कैसे-कैसे निष्कर्ष निकाल लेते हैं। कितना कम जानते हैं लोगों को। उससे भी कम उनके मन को।

कहते हैं, पलाश ने बचा लिया। पलाश, आत्मजा का बचपन का दोस्त, लोकल कॉलेज में ही पढ़ता है। मोहल्ले का हीरो है। होली हो या दिवाली या जन्माष्टमी, उसके होने से अलग रौनक-सी बनी रहती। अपनी टोली के साथ दिन भर आवारागर्दी करता। हंसमुख, बदमाश और कोई-न-कोई ख़ुराफ़ात मचाता। पूरा मोहल्ला उसे जानता भी था और चाहता भी। लड़कियां आस-पास मंडराती रहतीं। वह कभी किसी आंटी का भारी शॉपिंग बैग घर पहुँचा देता, तो कभी किसी को बाइक पर बैठाकर अस्पताल छोड़ देता।

कहते हैं, आत्मजा की मम्मी, सीमा ने पुलिस को फ़ोन किया था। पुलिस ने ही फांसी से उतारा। सीमा बिलकुल सन्न-सी मिली थी। एकदम स्तब्ध, जैसे कुछ भी समझने की हालत में नहीं हो। मेरी बात होती है सीमा से कभी-कभार। दरअसल, सीमा और मेरे घर, दोनों जगहों पर एक ही बाई काम करती है – ‘सविता’। पलाश के घर भी। बाई आई कि चली गई, बस ऐसी ही कुछ पूछताछ होती है आपस में।

वैसे, अजीब-सा माहौल है इन दिनों। चारों तरफ़ कोविड-19 के चर्चे हैं। दुनिया के तमाम लोग सतर्क रहने लगे हैं। चीन के वुहान शहर में शुरू हुई महामारी दुनिया के दूसरे हिस्सों में दिखने लगी है। लोग बड़ी तादाद में बीमार होने लगे हैं। सभी देश अपनी सीमाएं बंद करने की पहल करने लगे हैं। समंदर में फंसे जहाज़ को तट से लगने की अनुमति नहीं दी जा रही। क्रूज़ शिप में लोग बीमार होने लगे हैं। 

ऑस्ट्रेलिया ने तो महीने पहले से ही चीन की तरफ़ से आनेवाले सभी विमानों पर प्रतिबंध लगा दिया है। भारत में भी एक-दो केस के बाद अब चिंता गहराने लगी है। बोर्ड की सारी परीक्षाएं समय पर हो भी सकेंगी कि नहीं, अब इस बात पर चिंता होने लगी है। छात्र सब सताए हुए हैं। जाने कितने बरस की कोचिंग पूरी होती परीक्षा के साथ। हो ही सकता था कि आत्मजा की उदासी शायद ऐसी ही किसी वजह से हो।

पलाश का ऐन वक़्त पर पहुँचना कैसा संयोग था। आत्मजा का दोस्त। अर्नब-आहना का बेटा। दोनों परिवारों में खू़ब बनती थी। उनके घर के किचन, गार्डन के पिछवाड़े में मिलते थे। बीच से फ़ेंस हटाकर वहीं उन्होंने उसे एक बड़ा-सा गार्डन बना दिया था। ढेर सारे फूलों के पौधे। रजनीगंधा और सेवंती। बीच में लॉन और उस पर एक बड़ी-सी लोहे की मेज़ रखी थी। वहीं पास में बारबेक्यू करने का सामान। गार्डन चेयर्स। एक छोटा-सा फव्वारा भी। सड़क से उनका गार्डन दिखता था। दोनों दंपती अक्सर वहाँ साथ दिखते। ख़ासकर रविवार और छुट्टियों के दिन। दोनों परिवार बरसों से साथ थे। बच्चे भी साथ ही बड़े हुए होंगे।

मैंने एंबुलेंस को जाते देखा था। सीमा-राकेश भी एम्बुलेंस में बैठ गए थे। पलाश को पता नहीं क्यों, पुलिस थाने ले गई थी। और इस अफ़रा-तफ़री के बीच एक नौजवान मुझे ढूंढ़ता मिल गया।

“मेरा नाम नील है। आप वासन्ती आंटी हैं?”

“हाँ, क्यों?”

मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। उसकी पीठ पर एक बड़ा, भारी-भरकम बैकपैक और हाथ में एक सूटकेस था। 24-25 साल का नौजवान होगा। मैंने पहले उसे यहाँ कभी नहीं देखा।

“बुआ ने कहा, मैं घर की चाभी आपको दे दूँ। सविता मौसी ले जाएँगी।”

“बुआ?”

“ओह सॉरी। आहना, पलाश की मम्मी। वह मेरी बुआ लगती हैं। पलाश को पुलिस थाने ले गई। बुआ चिंता में उसके पीछे पुलिस स्टेशन गई हैं।”

नील। अच्छा नाम है। आहना का भतीजा। मैंने फिर से उसका ऊपर से नीचे तक निरीक्षण किया।

“तुम कहीं जा रहे हो?”

“मम्मी-पापा के पास। थोड़ी देर में फ़्लाइट है। छुट्टियों में अमेरिका से आया था। सोचा, पहले बुआ-फूफा और पलाश को मिल लूँ, फिर घर जाऊँगा। आज ही यह सब हो गया।”

“कितने बजे है फ़्लाइट?”

“चार घंटे बाद।”

“अरे! बहुत देर है अभी। क्या करोगे इतनी जल्दी जाकर?”

बातों-बातों में पता चला, नील इसी शहर में, बोर्डिंग स्कूल में पढ़ा था। आहना-अर्नब के घर लगभग हर वीकेंड आ जाया करता था। अपने घर पहुँचने में डेढ़ घंटे की फ़्लाइट लेनी पड़ती। वहाँ इंटरनेशनल एयरपोर्ट नहीं था।

मैं उसे घर ले आई। चाय पिलाई। नाश्ता कराया। वह बहुत जल्द हिल-मिल गया।

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नील हंसमुख था। हैंडसम भी। सॉफ़्टवेयर इंजीनियर। इस विज़िट में शादी के लिए लड़की देखना चाहता था। अच्छा लगा उससे मिलकर।

चाभी मैंने रख ली। मैंने कहा कि एयरपोर्ट मैं छोड़ दूंगी। वह मान गया।

नील। उसकी आँखें नीली थी। शायद इसलिए यह नाम दिया हो। नील यहाँ से गया तो, पर गाँव पहुँचते ही बीमार पड़ गया। बाद में पता चला कि कोविड पॉज़िटिव है। कल सविता ने बताया कि सीरियस है। उसका चेहरा बार-बार जे़हन में उभर आता है। तीन दिन पहले मेरा कोविड टेस्ट पॉज़िटिव आया, तो पहले दिल बहुत घबराया। ऊपर से म्युनिसिपैलिटी वाले बोर्ड और लगाकर चले गए। डर लगा बहुत। इंश्योरेंस के काग़ज़ ठीक किए। दफ़्तर में बताया। फिर लगा शायद हालत बहुत ख़राब नहीं होगी।

मन उस दिन से ही बेचैन है। मोहल्ले में आत्मजा को लेकर अलग-अलग तरह की बातें होने लगी हैं। हर किस्म की अफ़वाह है। मुझे तो ख़ैर इतना ही पता था, जितना सविता बताती। मोहल्ले के वॉट्सऐप ग्रुप में भी कुछ-कुछ बातें पता चलतीं। चारों तरफ़ यही घटना चर्चा में थी...

“बेबी पढ़ने में बहुत होशियार थी, पर एक-दो हफ़्ते से बहुत उदास-उदास-सी थी। पता है दीदी, पुलिस ने उनका कमरा सील कर दिया है।”

सविता की बातें ख़त्म नहीं होतीं। सुनते-सुनते मेरे मन में आत्मजा के कमरे का पूरा ख़ाका बैठ गया था।

मैं आत्मजा के बारे में अक्सर सोचती। उसके कमरे के बारे में।

मेरी कल्पना में, कमरे में अलग-अलग विषयों की किताबों को सलीके से बुक रैक में सजाया हुआ। एक पानी का जग। एक ड्राई फ्रूट्स का डिब्बा और कई सारी कलमें और शार्प की हुई पेंसिलें मेज़ पर रखी हुईं। अक्सर एक नोटबुक खुली हुई, जो पंखे की हवा से लगातार पन्ने बदलती है। एक मोबाइल, जो हमेशा साइलेंट पर रहता है।

दीवार पर एक तस्वीर, आत्मजा के बचपन की, सीमा ने उसे गोदी में उठाया हुआ और राकेश सीमा को थामे हुए। एक नोटिस बोर्ड, जिस पर आने वाली परीक्षा का टाइमटेबल पिन किया हुआ है। कई सारे अलग-अलग रंगों के पोस्ट इट नोट्स। मेरी कल्पना में आत्मजा का कमरा साफ़ नज़र आता।

मगर बहुत सोचने पर भी मैं पंखा नहीं सोच पाती, न ही उसके फाँसी लगाने की कल्पना कर पाती।

मन ख़राब है। नींद नहीं आती आजकल। बुखार भी चढ़ने लगा है; अब पैरासिटामोल लेकर सोने की कोशिश करूँगी।

“दीदी, ओ दीदी! दरवाज़े के पास थाली रख दी है। थर्मस में काढ़ा भी है। संतरे का जूस गिलास में रखा है। घर का बाक़ी काम हो गया। मैं जा रही हूँ।” सविता की आवाज़ से नींद खुली है। घड़ी देखी, सुबह के नौ बज रहे हैं।

मन कोई अच्छी ख़बर सुनने को तरस रहा है। मुँह का स्वाद गुल है। थक जाती हूँ जल्दी। गला दुखने लगा है। जैसे गले के अंदर, पीछे की तरफ़ कोई घाव हो। सारे दिन बुखार-सा लगता है। थकान भी उतनी ही। कोविड भी होना लिखा था।

“अरे, सुन तो, बता के जा, आत्मजा ठीक है?”

“नहीं पता दीदी। अभी भी सीरियस ही हैं शायद। पुलिस कमरे से बेबी का फ़ोन, लैपटॉप और जाने क्या-क्या ले गई है। पलाश बाबा को रोज़ थाने बुलाते हैं। कोई कह रहा था कि बेबी के फ़ोन पर आख़िरी सारे फ़ोन पलाश बाबा ने ही किए थे।”

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