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अनमोल सर को कसकर झटका लगा। जब रोल के लिए नाम की घोषणा हुई थी, तब तो यह बेहद ख़ुश थी। फिर अचानक इसे क्या हो गया? 

अशरफ़ में क्या बुराई है?


मुनरी के रोल के लिए अनमोल सर ने जैसे ही सविता के नाम की घोषणा की, क्षणभर को उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। लेकिन साथी कलाकारों की तालियों की गूंज से वह अपने-आप में लौटी और विजयी मुद्रा में अपना दाहिना हाथ हवा में उठाकर कंधे तक इस झटके से खींचा कि भीतर की खु़शी चेहरे पर छलक आई। गर्दन घुमाकर आस-पास बैठे साथी कलाकारों को देखा। रजनी और पुष्पा के उतरे चेहरे देखकर एकबारगी उसका दिल ‘धक’ कर गया। लेकिन उसने सिर झटककर अपनी खु़शी को संयत कर लिया। 

अनमोल सर ने जब रजनी को मुनरी काकी का और पुष्पा को मुनरी की सहेली का रोल दिया, तो उसने कहीं ज़्यादा ज़ोर से और देर तक तालियां बजाकर खु़शी का इज़हार किया। लेकिन उनकी चुप्पी बरकरार देखकर उनके भीतर क्या चल रहा है, यह अंदाज़ लगा पाना उसके लिए मुश्किल हो रहा था।  

अब अनमोल सर ने पुरुष पात्रों के लिए एक-एक कर कलाकारों के नामों की घोषणा शुरू कर दी थी। रमेश यादव को छड़ीदार, राजीव सिंह को सरदार और जगेश को दीवान जी का रोल मिला। सभी खु़श थे। हॉल लगातार तालियों से गूंज रहा था। लेकिन अब तक गोधन के रोल के लिए किसी कलाकार के नाम की घोषणा न होने से, सब में ग़ज़ब की उत्सुकता व्याप्त थी। अपनी ही खींची लंबी चुप्पी और सस्पेंस के बीच हॉल में शुरू हुई खुसुर-फुसुर को अनमोल सर ने लक्ष्य किया। उनके होंठों पर टिकी मुस्कराहट गाढ़ी होती गई। अचानक ही वह नाटकीय अंदाज़ में अपने बग़ल में बैठे हारमोनियम मास्टर सतीश जी से मुख़ातिब हो गए, ‘सतीश बाबू, गोधन का रोल कौन करेगा, यह आप ही बताइए!’

सतीश जी भी कम नटकिया नहीं हैं। बोलने से पहले उन्होंने गला साफ़ किया गोया अलाप लेने की तैयारी कर रहे हों। फिर हॉल में मौजूद रंग मंडली के एक-एक कलाकार का यूं मुआयना किया जैसे वह उस चेहरे को ढूंढ़ रहे हों, जो गोधन का रोल करने के योग्य हो। आख़िरकार उन्होंने भूमिका बांधी, ‘गोधन के रोल के लिए हमको ऐसा कलाकार चाहिए, जिसका गला सुरीला हो। गाता बढ़िया हो। काहे से कि अनमोल सर जो स्क्रिप्ट लिखे हैं, उसमें गोधन को गाना भी है। इसी सबको ध्यान में रखकर हम गोधन के रोल के लिए किसी ऐसे कलाकार का चुनाव करना चाहते हैं, जिसके गले में सुर हो और बॉडी लैंग्वेज में चपलता हो।’

रंग मंडली के सभी कलाकार मन ही मन अपने साथियों में से अपने हिसाब से किसी नाम का कयास लगाते रहे और धैर्य से सतीश जी के बोलने की प्रतीक्षा करते रहे। सतीश जी ने दुबारा गला साफ़ किया। फिर जैसे सुर को साधते हुए बोले, ‘स्क्रिप्ट की मांग को ध्यान में रखकर हम चाहते हैं कि गोधन का रोल अशरफ़ करे!’

सस्पेंस खुल चुका था। रोमांच के इस चरम पर तालियां बेसाख़्ता बजनी शुरू हुईं। हक्का-बक्का अशरफ़ सबका मुंह ताकता ख़ुद भी तालियां बजाने लगा, मानो वह खु़द के लिए नहीं, अपने किसी साथी कलाकार के लिए खु़शी ज़ाहिर कर रहा हो। और जब उसे यह अहसास हुआ कि अशरफ़ वही है और खु़द के लिए ताली बजाना ठीक नहीं, तो अपने-आप में लजा-सा गया। यह लाज उसके मासूम चेहरे पर पसरती हुई आंखों के कोरों पर आकर ठहर गई। उसने कनखियों से सविता की ओर देखा। सविता का चेहरा सपाट था। वह दूसरे कलाकार साथियों की तरह ताली भी नहीं बजा रही थी। यह कुछ ऐसा था कि पता नहीं क्या तो उसके अंदर कसक गया!

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अनमोल सर ने सबको शांत कराने के साथ ही कल से विधिवत रिहर्सल शुरू करने की घोषणा की तो सारे कलाकार भदभदाकर उठ खड़े हुए। हॉल उनकी बातों-आवाज़ों से भर गया। वे एक-एक कर हॉल से बाहर निकलते गये। हॉल में आवाज़ों की अनुगूंज फिर भी बनी रही। हॉल की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि आवाज़ रहे न रहे, उसकी अनुगूंज देर तक बनी रहती थी। इस बाबत अनमोल सर ने एक बार संजीव जी का ध्यान भी आकर्षित किया था, ‘यह हॉल रिहर्सल के लिए बहुत मुफ़ीद है।’

‘अच्छा? ऐसा क्या?’ अजय जी ने आश्चर्य से पूछा था।

‘नाटक के संवादों की अनुगूंज जब कलाकार सुनता है, तो उससे उसके सेल्फ़ इंप्रोवाइजे़शन में मदद मिलती है।’ अनमोल सर ने अपनी बात स्पष्ट की थी। 
अजय जी मुस्करा पड़े थे, ‘ऐसा सोचकर तो नहीं बनवाया गया था। लेकिन यह रिहर्सल के लिए उपयोगी है, तो अच्छी बात है। आप इस हॉल का इस्तेमाल कीजिए!’

तब से अनमोल सर हर नाटक का रिहर्सल इसी हॉल में कराते हैं। यहां तक कि वर्कशॉप और अनौपचारिक बैठकें भी। वह तमाम अनुगूंजों को देर तक महसूसते हैं और हर अनुगूंज को इस कदर पहचानते हैं कि वह बता सकते हैं कि कौन-सी आवाज़ किस कलाकार की है। लेकिन आश्चर्य कि अभी-अभी जो आवाज़ उन्होंने सुनी, वह कतई पहचान में नहीं आई। बोल तो सविता ही रही थी, लेकिन आवाज़ उसकी है, यक़ीन नहीं आया।

‘सर, हम ई रोल नहीं करेंगे!’ दीवार से सटकर खड़ी सविता ने सिर झुकाए दबी जु़बान में जब यह कहा तो उसकी अनुगूंज में उसकी आवाज़ की अजनबियत साफ़ नुमायां थी। 

हॉल में अकेली सविता रह गई थी। हारमोनियम मास्टर सतीश जी पान की पीक थूकने बाहर जा चुके थे।

अनमोल सर को सहसा अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। उन्होंने खु़द को यक़ीन दिलाने के लिए तस्दीक करनी चाही, ‘क्या कह रही हो तुम?’
‘सर, हम ई रोल नहीं करेंगे!’ सविता ने अपनी बात दुहराई। उसके चेहरे पर कोई ज़िद-सी चस्पां थी।

अनमोल सर को कसकर झटका लगा। जब रोल के लिए नाम की घोषणा हुई थी, तब तो यह बेहद खु़श थी। फिर अचानक इसे क्या हो गया? वजह जानने की उत्सुकता में उन्होंने सहज आत्मीयता से पूछा, ‘क्या बात है, क्यों नहीं करना चाह रही रोल?’

सवाल के साथ ही अनमोल सर के मन में आशंका सिर उठाने लगी कि कहीं सविता के घरवालों ने नाटक करने से मना तो नहीं कर दिया? अगर ऐसा हुआ तो उनका अब तक का सारा किया-कराया बेकार चला जाएगा। वह बेचैनी से पहलू बदलकर सविता का जवाब सुनने की प्रतीक्षा करने लगे। सविता चुप थी, जैसे भीतर ही भीतर खु़द से लड़ रही हो। अनमोल सर ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया। धैर्य से उसकी मनःस्थिति का अंदाज़ा लगाते रहे।

‘सर, हमको कोई दूसरा रोल दे दीजिए!’ कोई वजह बताए बगै़र सविता एक-एक शब्द बेहद कठिनाई से बोल पाई।

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अनमोल सर ने राहत की सांस ली कि उनकी आशंका निर्मूल थी। उन्होंने सविता को अपने नज़दीक आने का इशारा किया। उसके क़रीब आते ही उन्होंने उसे प्यार से समझाने की कोशिश की, ‘देखो बेटा, कौन-सा रोल किसे सूट करेगा, यह डायरेक्टर को देखना पड़ता है। हमने तुमको मुनरी का रोल दिया है, तो कुछ सोच-समझकर ही दिया है।’

सविता आश्वस्त नहीं दिखी। उसके चेहरे पर उहापोह साफ़ नज़र आ रही थी। उसमें अनमोल सर की बात काटने का साहस नहीं था, इसलिए कोई जवाब देने के बजाय, वह एक सख़्त चुप्पी ओढ़े यथावत खड़ी रही।

अनमोल सर की बेचैनी और बढ़ गई। उन्होंने इस बार उसके सिर पर हाथ फिराते हुए प्यार से पूछा, ‘सविता बोलो! आख़िर बात क्या है? मैं डायरेक्टर ही नहीं, तुम्हारे बड़े भाई जैसा हूं। मन में कोई बात है, तो खुलकर बताओ!’

अनमोल सर की आश्वस्ति से सविता का साहस बढ़ा। अटकते-अटकते ही सही, उसके मन की बात होठों पर आई, ‘सर, अशरफ़ गोधन बनेगा, तो हम मुनरी का रोल नहीं करेंगे?’

‘क्यों? अशरफ़ में क्या बुराई है?’ अनमोल सर की आंखों ही नहीं, आवाज़ में भी गहरा विस्मय था।
‘वह मुसलमान है!’ सविता का निहायत ठंडा स्वर और हॉल में सिहरन-सी दौड़ गई।   

अनमोल सर का चेहरा फक पड़ गया था। वह बड़ी देर तक सन्नाटे में डूबे खुद से ही जूझते रहे। सामने देखा, उनकी चुप्पी से सहमी हुई सविता अपने दाहिने पैर के अंगूठे को फर्श पर घिस रही थी। यह बेहद कठिन स्थिति थी। सवाल, जवाब, संवाद, समझाइश का कोई अर्थ नहीं रह गया था। उन्होंने बग़ैर प्रतिक्रिया व्यक्त किए सविता को घर जाने का इशारा किया, ‘जाओ! बाद में बात करेंगे।’


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