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उसे लगा कि इस अर्धनग्न लड़की के चेहरे पर आमंत्रण नहीं दयनीयता है। कामुकता नहीं बेचारगी है। यह तो जानी-पहचानी सी लग रही है। इसका चेहरा किसी से मिलता है। लेकिन कौन? यह उसके मोहल्ले, उसके परिवार की ही लड़की हो सकती है।

नौकरी की मज़बूरी 

एक अर्धनग्न लड़की थी सामने, मॉनिटर पर। सुमित की नजरें उसके शरीर के घुमाव के साथ कभी ऊपर कभी नीचे हो रही थीं। सुमित ने माउस क्लिक किया और वैसी ही दूसरी लड़की सामने आ खड़ी हुई। क्या यह उससे अलग है? किस मायने में?

एक बार फिर सुमित की नजरें उसकी गोलाइयों में उलझी। उसे कुछ अलग नहीं लगा। फिर उसने लड़की की आंखों में झांका। यहां कुछ अलग था। इस लड़की की आंखों में जो आमंत्रण था, वह पिछली वाली से अलग था। कुछ-कुछ नशा जैसा।

सुमित के कानों में उसके फीचर एडिटर तपस्वी नाथ के स्वर गूंजे,‘वत्स, फोटो ऐसा ढूंढो कि रीडर देखते ही फनफना जाए।’ फनफनाने का आशय समझाने के लिए उन्होंने होंठ भींचकर एक खास तरह की मुद्रा बनाई, जिस पर वहां खड़े उनके कुछ सहकर्मी जोर से हंस पड़े। हालांकि सुमित की इच्छा हुई कि साले तपस्वी की चुटिया पकड़कर घसीट डाले, पर उसने अपने ऊपर काबू रखा।

तपस्वी ने फिर अपने पीले दांत निकालकर कहा, ‘शरमाओ मत बालक। जो काम तुम छुप-छुपाकर करते हो वह अब तुम्हें ऑफिसियली करना है। ऐसा सौभाग्य किसे प्राप्त होता है भला। तुम्हें तो सारे पोर्न साइट्स का पता होगा ही।’ 

सुमित ने तत्काल आपत्ति की, ‘मैं कोई पोर्न साइट नहीं देखता।’ इस पर फिर तपस्वी ने ठहाका लगाया और सुमित को कई ऐसे साइटों के नाम बता दिए और सूत्र वाक्य की तरह कहा, ‘वत्स, पोर्न साइट आज की पत्रकारिता का एक जरूरी हिस्सा है।’ 

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सुमित को न सिर्फ एक कामुक तस्वीर खोजनी थी बल्कि उस पर चार लाइन की एक कविता भी लिखनी थी। यह सब अखबार के आखिरी पेज पर छपना था। इस कॉलम का नाम था- हॉट ऑफ द डे। कुछ समय पहले तक इस जगह पर ‘थॉट ऑफ द डे’ छपता था। सुमित को बताया गया कि उसकी काव्य प्रतिभा को देखते हुए ही यह जिम्मेदारी दी गई थी। हालांकि सुमित जानता था कि उसकाे टॉर्चर किया जा रहा है। 

शुरू-शुरू में अर्धनग्न तस्वीरें देखकर वह शरमा जाता था। इधर-उधर देखता कि कोई देख न ले। जल्दी से एक फोटो डाउनलोड कर लेता। कुछ तस्वीरों ने उसे रोमांचित किया था लेकिन जल्दी ही वह ऊब सा गया। फिर उसे हर अधनंगी लड़की एक जैसी ही लगने लगी। तपस्वी नाथ ने उसे टोका था कि वह कुछ अलग तरह की चीज निकाले।

फिर उसने एक दिन खुद बताया कि कैसे एक नग्नता दूसरी नग्नता से अलग होती है। स्त्री शरीर पर लंबा लेक्चर दिया उसने। इस तरह सुमित के सामने नई चुनौती पैदा हुई। ऐसी तस्वीर खोजी जाए जो पहले से छपी फोटो से अलग हो। उसकी खोजी गई तस्वीर से तपस्वी नाथ जल्दी संतुष्ट ही नहीं होता था।

उसके मन लायक फोटो खोजने के बाद ऐसी पंक्तियां लिखनी होती थीं जो उसे भा जाए। सुमित दो कौड़ी की एक कविता के दलदल में घंटों धंसता था। फिर छटपटाता हुआ चार लाइनें निकाल पाता। तपस्वी नाथ उसमें भी मीन-मेख निकालता। फिर बार-बार उसमें संशोधन करवाता। वैसे कुछ दिनों बाद कविता का मामला थोड़ा आसान हो गया।

कुछ ही शब्द, कुछ ही उपमाएं थीं जिन्हें फेंट-फांटकर लिख देना था। उसने ऐसे शब्दों की एक सूची बना ली था- कातिल अदा, मस्त जवानी, सपनीली आंखें, नमकीन मस्तियां वगैरह वगैरह। लेकिन फोटो खोजने और कविता लिखने के बाद सुमित को अजीब सा अहसास होता। लगता जैसे उसने फिनाइल की गोली निगल ली हो या मिट्टी का तेल पी लिया हो। वह बड़ी देर बाद खुद को सामान्य बना पाता था। ऐसा रोज ही होता था। अपना काम खत्म करने के बाद वह घंटों घूमता, कभी सिगरेट फूंकता, कभी पान खाता। आज भी ऐसा ही होना था। 

सुमित ने माउस क्लिक कर जब तीसरी लड़की निकाली तो उसके सीने में धुकधुकी हुई। उसे लगा कि इस अर्धनग्न लड़की के चेहरे पर आमंत्रण नहीं दयनीयता है। कामुकता नहीं बेचारगी है। यह तो जानी-पहचानी सी लग रही है। इसका चेहरा किसी से मिलता है। लेकिन कौन? यह उसके मोहल्ले, उसके परिवार की ही लड़की हो सकती है।

सुमित झटके से उठा और बाहर चला आया। आकर यंत्रवत पान की दुकान पर खड़ा हो गया। पान वाले ने बिना कुछ कहे सिगरेट बढ़ा दिया। सुमित ने सिगरेट सुलगा ली। बार-बार उस लड़की का चेहरा सामने आ रहा था। एक साथ कई कहानियां और फिल्में उसके भीतर उमड़ने-घुमड़ने लगी थीं। हो सकता है इस बेचारी को ऐसा पोज देने के लिए मजबूर किया गया हो। मुमकिन है किसी ने प्रेम के जाल में उसे फांस लिया हो और धोखे से वैश्यालय पहुंचा दिया हो। या फिर अपने घर का खर्च चलाने के लिए वह खुद ही यह काम करने लगी हो। 

सुमित ऐसी कई कहानियां लिखने के बारे में सोचा करता था। कई बार उसने उन्हें कागज पर उतारने की कोशिश भी की थी पर उसकी कहानी एक मुकम्मल कहानी का रूप नहीं ले पाती थी। कई बार वह उनका अंत नहीं ढूंढ पाता था। उसका यह भी सपना था कि वह डॉक्यूमेंट्री फिल्में बनाएगा, जिनके जरिए वह बड़े-बड़े रैकेट का पर्दाफाश करेगा।

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वह खुफिया कैमरे लेकर अपराधियों के अड्डों, वैश्यालयों, थानों पर पहुंच जाएगा। उसकी यही सोच उसे पत्रकारिता तक ले आई थी। पर उसे कहां पता था कि यहां उसके सपनों का गला घोंट दिया जाएगा। 

पत्रकारिता का पीजी डिप्लोमा करने के बाद हिंदी के एक नामी अखबार में जब उसे नौकरी मिली तो उसे लगा कि उसने अपनी मंजिल पा ली है। उसे महसूस हुआ कि वह ऐसे बौद्धिक तबके का एक हिस्सा बन गया है जो बुराइयों से लड़ रहा है , जो एक बेहतर समाज बनाने में लगा है। सुमित ने एक रिपोर्टर के रूप में पूरे जोश के साथ काम शुरू किया। उसे जो कहा जाता, उससे कई गुना वह करके लाता।

उसे नगर निगम की बीट सौंपी गई थी। वह उसकी खबरें निकालने के लिए मेयर से लेकर कार्यपालक अधिकारी से बातें करता लेकिन उसके साथ ही सफाईकर्मियों की समस्याओं पर भी स्टोरी तैयार करता। वह सफाईकर्मियों के मोहल्ले में जा-जाकर उनसे बात करता। शहर में कूड़े के लग रहे अंबार पर खबर करने जाता तो कूड़ा ढोने वाली गाड़ी के ड्राइवरों की जिदंगी के कई अछूते पहलुओं पर भी स्टोरी ले आता जो कभी नहीं छपती थी। अपने मन से लाई गई स्टोरीज ही उसकी सबसे बड़ी कमी मानी गई। 

एक दिन चीफ रिपोर्टर भंडारी जी ने उसे टोका, ‘तुम ये सब क्यों ले आते हो यार?’ सुमित पहले तो थोड़ा घबराया फिर साहस करके बोला,‘ सर, यही तो असली स्टोरीज है। मेयर या कमिश्नर तो यही कहेगा कि हम ये करने जा रहे हैं वो करने जा रहे हैं। और यह हर किसी को मालूम है कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला है।’

भंडारी जी हंसकर बोले, ‘अखबार में कुछ रुटीन चीजें छापनी पड़ती हैं। पर तुम जो ये सब ला रहे हो... सफाईकर्मी और ड्राइवर, ये सब डाउन मार्केट चीजें हैं यार। इस अखबार में ये चीजें नहीं छपतीं..। हमारा पाठक वर्ग अलग है। वह पॉजिटिव चीजें पढ़ना चाहता है। ....हां अगर कोई सफाईकर्मी का बेटा केबीसी में आ जाए या इंडियन आइडल में आ जाए या कोई बारहवीं में नाइंटी पर्सेट ले आए तो वह हमारे लिए खबर है…।’

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