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मुझे पीला रंग पसंद नहीं है। मतलब, डैफ़ोडिल देखने से पहले नहीं था। पर डैफ़ोडिल देखकर लगा, कोई हर्ज़ नहीं है। चलेगा, पीला रंग भी चलेगा।

शादी

आमतौर पर हिंदुस्तान में डैफ़ोडिल नहीं होते। अच्छा है। आमतौर पर जो मिल जाए, उसका मिलना भी क्या मिलना? फिर भी एक जगह है, जहां वे मिलते हैं। हिंदुस्तान की उत्तरी सरहद पर। कश्मीर की घाटी में। घाटी के उत्तरी हिस्से में ऊंचे-ऊंचे पहाड़ हैं। उन पहाड़ों के बीच बस एक शहर है।

शहर, नगर क़स्बा या गांव? पता नहीं। कभी इनमें से कोई एक रहा होगा। दुनिया भर के सैलानियों के धावा बोलने से पहले। अब तो बस वह गुलमर्ग है। और कुछ नहीं। गुलमर्ग यानी फूलों का रास्ता। एक रंगीन सफ़र या सैलानियों का बंदरगाह। हां सैलानी भी जहाज़ों की तरह होते हैं।

 उस जगह का यह नाम भी किसी सैलानी ने ही बख़्शा होगा।

बख़्शा था।

वह आया। पहली सर्दी में। पथरीले पहाड़ों पर जमी सफ़ेद बर्फ़ देखी। वहीं ठहर गया। घास फैलने लगी। पथरीले पहाड़ हरी घास के लहलहाते ढलवान बन गए। दूर तक हरा ही हरा। उसे अच्छा लगा भी और नहीं भी लगा। उसने फूलों की चंद क़िस्मों के अनगिनत बीज ढलानों पर छितरा दिए। और लौट गया।

बाक़ी काम मिट्टी-हवा-पानी और बर्फ़ के रक्षा-कवच ने कर डाला। और यूं कश्मीर घाटी के उत्तरी हिस्से में बसे गुलमर्ग में डैफ़ोडिल खिल उठे। और खिलते रहे, हर गर्मी में। सर्दी में बर्फ़ के नीचे अपने बीज सुरक्षित रखकर।

डैफ़ोडिल खिले और नर्गिस और आईरिस भी। गुलमर्ग में आए सैलानियों के लिए ये फूल देखना आम बात हो गई।

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मैंने पहले-पहल डैफ़ोडिल वहीं देखा। गुलमर्ग में। पीले रंग का बड़ा-सा फूल। चार पंखुड़ियां और बीच में एक कटोरा-सा। सब पीला। मुझे पीला रंग पसंद नहीं है। मतलब, डैफ़ोडिल देखने से पहले नहीं था। पर डैफ़ोडिल देखकर लगा, कोई हर्ज़ नहीं है। चलेगा, पीला रंग भी चलेगा।

वैसे मुझे डैफ़ोडिल देखने का, गुलमर्ग जाने का या कश्मीर की यात्रा करने का कोई ख़ास शौक़ न था। बल्कि मैं तो वहां के बारे में सुन-सुनकर और पढ़-पढ़कर तंग आ चुकी थी। लगता था जिसके पास भी थोड़ा-सा पैसा है, वह शादी कराने के फ़ौरन बाद कश्मीर भाग जाता है और वहां से लौटकर उसे बहिश्त का नाम दे देता है।

जैसे नई शादी हुए हर जोड़े के लिए वक़्ती बहिश्त का होना कोई ज़रूरी शर्त हो। अंग्रेज़ी में इस वक़्ती बहिश्त को हनीमून कहते हैं। वैसे डैफ़ोडिल की तरह हिंदुस्तान में आमतौर पर हनीमून भी नहीं मिलता। अच्छा ही है। बहुत-से लोग एक भुलावे से बचे रहते हैं। वरना, यह वक़्ती बहिश्त ज़मीन पर जहन्नुम के एहसास को कुछ और तीखा बना डालता है।

मुझे भुलावों का शौक़ नहीं है। मुझे बहिश्त का शौक़ नहीं है। मुझे कश्मीर जाने का शौक़ नहीं था। मुझे गुलमर्ग का शौक़ नहीं था।

मेरी शादी सुधाकर से हो चुकी थी। सुधाकर और मैं कॉलेज में साथ पढ़ते थे। हम एक-दूसरे को बुरे नहीं लगते थे। सुधाकर को नौकरी मिली तो उसे लगा, अब शादी कर लेनी चाहिए। मैंने बी.ए. पास किया तो लगा नौकरी-वौकरी क्या करनी, अब सीधे-सीधे शादी कर लेनी चाहिए।

सुधाकर ने सोचा होगा, बीना क्या बुरी है। मैंने भी सोचा, सुधाकर क्या बुरा है। जाना-पहचाना आदमी है। तीन साल साथ रहा, बुरा नहीं लगा। शायद इसी को प्रेम कहते हैं। और जो अब तक नहीं लगा, आगे चलकर ही क्योंकर लगेगा? अगर लगा भी तो औरों की ही क्या गारंटी है? यानी बुरा तो कोई भी किसी भी वक़्त लग सकता है।

और एक दिन पिक्चर देखकर हम बाहर निकले तो सुधाकर बोला-

“बीनू, मुझसे शादी करोगी?”
मैंने कहा, “कर लूंगी।”

हमारी शादी हो गई।             

संयोग कुछ ऐसा था कि सुधाकर और मैं एक ही जाति और प्रदेश के थे। दोनों बनिए और दोनों उत्तर प्रदेश के। लिहाज़ा न उसके माँ-बाप ने कुछ अड़ंगा लगाया, न मेरे माँ-बाप ने। ख़ुशी-ख़ुशी दान-दहेज का सामान ख़रीदा, मेहमान जुटाए, बारात चढ़वाई और अग्नि की साक्षी दिलवाकर पंडित से हमारे फेरे फिरवा दिए। प्रेम-विवाह हुआ भी और अपने शहर से भाग, कहीं परदेस में जाकर चोरी-छिपे शादी करने का थ्रिल तक नहीं मिल पाया।

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शादी होते ही सुधाकर बोला, “हनीमून के लिए तो एक ही जगह है- कश्मीर। वहां के लिए बुकिंग करा ली है।”
“मुझे भी जाना होगा?” मैंने पूछा।
सुधाकर बोला, “तुम्हारा सेंस ऑफ़ ह्यूमर बहुत अच्छा है।”
“ऐसा नहीं हो सकता था कि हम शादी से पहले कश्मीर भाग जाते?” मैंने कहा। सोचा, तब होता कोई थ्रिल।

“जब हमारी शादी में कोई बाधा नहीं थी तो वहां जाने की क्या ज़रूरत थी?” सुधाकर ने पूछा।
मैंने कहा, “हां, ज़रूरत तो नहीं थी। अब क्यों है?”

“अरे सारी ज़िंदगी यहां दिल्ली में पड़े-पड़े सड़ना है, कुछ दिन तो जी लें। कश्मीर को सब लोग, पता है, स्वर्ग बतलाते हैं, तो सारी ज़िंदगी पड़े-पड़े सड़ने के लिए अपने को अच्छी तरह तैयार करने, हम लोग कश्मीर चले गए।

सुधाकर ने सुन रखा था, पूरा कश्मीर स्वर्ग है। लिहाज़ा उसने क़सम खाई कि उसका कोई निसर्ग देखे बिना नहीं छोड़ेगा। और चूंकि हम हनीमून मनाने आए थे इसलिए ज़रूरी था कि स्वर्ग के इस आस्वादन में मैं सदा उसके साथ रहूं।

स्वर्ग की तलहटी श्रीनगर से शुरू होकर हम पहलगाम, चंदनवारी, वापस श्रीनगर, वूलर लेक, बनिहाल, वापस श्रीनगर होते-हवाते आख़िर ठीक बहिश्त के कंधों पर चढ़ गए, यानी गुलमर्ग जा पहुंचे।

टनमर्ग के आगे बस नहीं जाती, इसलिए यह सफ़र हमने घोड़ों पर चढ़कर तय किया। चढ़कर मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि घोड़े की सवारी करना हम दोनों में से कोई नहीं जानता था। रास्ता बेहद ख़ूबसूरत था। दोनों तरफ़ चीड़ के पेड़, ठंडी हवा वग़ैरह, सब-कुछ। घोड़ों पर बैठकर कुछ ही दूर चलने के बाद हम दोनों की पीठ में दर्द होने लगता था। इसलिए थोड़ी-थोड़ी देर बाद उन्हें रोक देना पड़ता था, और नीचे उतर आना पड़ता था।

पर हम अपनी यात्रा के इन अवकाशों को बेकार नहीं जाने देते थे। नीचे उतरकर हम एक-दूसरे को चूमने लगते थे और फिर आलिंगन में बंधकर कुछ दूर चलते चले जाते थे। साथ ही आस-पास के ख़ूबसूरत नज़ारों की तारीफ़ भी करते जाते थे। बहिश्त के दरवाज़े पर पांव रखते हुए ये सब करना ज़रूरी होता है, ख़ासकर तब जब आप हनीमून मनाने आए हों।

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