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पहले प्रेम के पीछे क़ुर्बानी भी बहुत होती थी पर अब ऐसा नहीं के बराबर है, क्योंकि एक प्रेम चला जाता है तो दूसरा तुरंत उपस्थित हो जाता है। 

जनसंख्या और प्रेम

उन दिनों अपनी हालत काफी ख़स्ता हो चुकी थी। उधर शहर भी तेज़ी से बुढ़ौती की तरफ ढल रहा था। उसकी रोशनियाँ पीली पड़ चुकी थीं और उम्मीद नहीं थी कि अब वह कोई नया मोड़ ले सकेगा। मुझे ख़ास अपने से ही ताल्लुक रहा करता था, इसलिए मेरी चिंता भी निजी थी। लेकिन बाद में मुझे पता चला कि शहर ने किसी को भी नहीं छोड़ा है और सभी नागरिकों के साथ उसका व्यवहार तकरीबन एक जैसा है।

मैं प्रायः सोचा करता, काश मेरा भाग्योदय हो जाए और मुझे ऐसे शहर की शरण मिले, जिसका क्षेत्रफल बड़ा हो और जहाँ जनसंख्या उफन रही हो। हम अगर बहुत बड़ी हस्ती नहीं हैं तो किसी दूसरी चीज़ के मुक़ाबिले जनसंख्या ही हमारा बेहतर बचाव कर सकती है। हमारे शहर में इस प्रकार की संभावना नहीं बची थी। 

मैंने बहुत दिन तक, पुरानी इमारतों के सौंदर्य, तारकोल की सड़कों, बहुत-से हिस्सों की आरण्यक-जैसी शांति, पेड़-पौधों की बहुतायत तथा खाने-पीने की अच्छी दुकानों पर गर्व किया। देखते-देखते इमारतें टूटती गईं, अहातों में सियार बस गए, तारकोल की चमचमाती सड़कें गढ़ों से भर गईं और वृक्षों में पत्तियाँ कम हो गईं, ठूँठ निकलने लगे। मैंने पाया, अब मैं अपने गर्व को चलाये रखने में असमर्थ हो गया हूँ।

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अगर आप असलियत जानना चाहेंगे तो मैं कहूँगा कि इस शहर से छुट्टी पा लेने की मेरी तमन्ना के पीछे बड़े और मोटे सामाजिक कारणों की जगह व्यक्तिगत कारण ज़्यादा हैं। मैं उन्हीं के संबंध में कुछ बताना चाहता हूँ। मैं समझता हूँ कि गुप्त चीज़ों को जान लेने की तलब सभी लोगों में होती है। मैं खुद ही चीज़ों को खोलकर देखने के पक्ष में हूँ, भले बाद में मन खट्टा हो जाए और पछतावा होने लगे।

आप अगर कभी प्रेमी या प्रेमिका रहे हों तो आपने अवश्य रसीले लोगों के इस प्रश्न को बार-बार भोगा होगा, 'अच्छा बताइए, आपका कैसे स्टार्ट हुआ?'

'आपका कैसे स्टार्ट हुआ,' इस स्वाभाविक प्रश्न से अगर हम बिदकें नहीं तो इसका उत्तर दिलचस्प अफ़साना बन सकता है। इसे हम कम-से-कम, पाठशाला में किसी ख़ास व्यंजन का निर्माण कैसे होता है, सरीखी साधारण बात न समझें। यद्यपि मेरे सोचने का तरीका स्वस्थ नहीं है और मैं कम जला-भुना व्यक्ति नहीं हूँ, फिर भी मैं चाहता हूँ कि प्रेम की तुलना कम-से-कम तुच्छ चीज़ाें से न की जाए।

दरअसल हमारे शहर की जलवायु तीक्ष्ण है। ऐसी जगहों में प्रेम बहुतायत से होता है। हमारे यहाँ पड़ोसी प्रेम का भी रिवाज है। पहले प्रेम के पीछे क़ुर्बानी भी बहुत होती थी पर अब ऐसा नहीं के बराबर है, क्योंकि एक प्रेम चला जाता है तो दूसरा तुरंत उपस्थित हो जाता है। मेरा उदाहरण ही लें। मेरे ज़िंदा रहने की एकमात्र वजह यही है। यहाँ मैं बहुत लंबे समय तक जोश-ए-मोहब्बत की गिरफ़्त में रहा। मेरा खू़ब बंबू हुआ। धकाधक, कई गच्चे मैंने खाए, तब जाकर कहीं पक्का हो पाया हूँ। पक्का हो चुका हूँ, ऐसी मेरी अपनी धारणा है क्योंकि अभी मैं सुस्ता रहा हूँ। 

यह मेरा परीक्षाकाल नहीं है। मेरी वास्तविक इच्छा यह है कि अभी मैं थोड़ा खेलूँ-कूदूँ और फिर भिड़ंत करूँ, पर मैं अपने शहर से काफी डरा हुआ हूँ। यह सर्वमान्य सच्चाई है कि बड़े शहरों में भीड़ पागल तथा व्यस्त होती है, वहाँ खेलने-कूदने, लुकाछिपी की गुंजाइश रहती है। हमारे ज़माने के सभी पीड़ितों ओर विद्वानों का यह कहना है कि बड़े नगरों में प्रेम-कलापों के बीच कोई काज़ी नहीं होता।

बड़े शहरों में जब भी जाएँ, जन-स्थानों पर आप देखेंगे, लड़के के साथ लड़की या दो लड़कों के बीच मुस्कराती हुई एक लड़की या दो लड़कियों के साथ एक फर्राट लड़का। इस प्रकार के दृश्य प्यारे लगते हैं, उनसे जन-स्थानों की रंगीनी भी बढ़ती है। नर-मादा, दोनों को सुविधा हो जाती है और गुप्त क़िस्म का कोई हौवा रातों में स्वप्न बनकर उन्हें हैरान नहीं करता। ऐसी जगहों में अगर कोई लड़की किसी को अपनी सतीत्व सौंपना चाहे या सौंप दे तो दूसरे अलसेठ नहीं देते क्योंकि जनसंख्या ज़्यादा होती है। जनसंख्या वाली बात मामूली नहीं है, इसीलिए मैंने उसे दुहराया है।

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अब देखिए हमारे यहाँ क्या हुआ करता है। हमारे यहाँ, प्रेमी-प्रेमिका अथवा प्रेम अगर गुप्त न रहा सका, ज़ाहिर हो गया, तो पीछे-पच्चीस लग लेंगे। आपका प्रेम कितना सच्चा क्यों न हो, ये पच्चीस लोग अपने प्रयत्न के प्रति कभी निराश नहीं होते। इस शहर की एक पक्की प्रेमिका, बेचारी क्या करे, इन्हीं अनवरत प्रयत्नशील महात्माओं के कारण एक के बाद एक चार बार स्वामित्व बदलने को मजबूर हुई ओर इसमें उसे मज़ा भी आने लगा। इन दिनों वह अपने सबसे सज्जन ओर सुसंस्कृत प्रेमी के विरुद्ध हो गई है।

मैं असली नुक्ते पर जल्दी आता हूँ। मैं आपको सीधे बता दूँ कि मुझे बदा नहीं था। इसलिए बहुत बड़े शहर की बात को छोड़िए, मुझे दस लाख की आबादी भी नहीं मिली। हमारे शहर की आबादी बीस वर्ष में पच्चीस हज़ार बढ़ी है।

वे मेरे अभी तक के सबसे बुरे दिन थे। मेरी आत्मकथा में कोई सुरख़ाब नहीं लग रहा था। अट्ठाइस वर्ष की उम्र पार कर जाने के बाद भी अगर आप समाज को एक कहानी न दे सके, तो समाज आपको पिद्दी ही समझेगा। उन दिनों मैं बिल्कुल खाली था और भयंकर रूप से सोया करता था। मेरे डर जाने को समय आ गया था।

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