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‘मुझसे कह रहे हो ज़रूरी काम है, नाश्‍ता भी नहीं किया। असली काम तो मिसेज़ कासलीवाल से रंगरेलियां मनाने का है। यू ब्‍लडी चीट…’

कहानी : एक अंडरविअर की व्‍यथाकथा

भाग1: सेक्‍स एडिक्‍ट!


कुछ दिन शानदार होते हैं, कुछ शरीफ़ दिन होते हैं और कुछ बदमाश दिन भी होते हैं।

भला ये दिन भी कभी बदमाश हो सकते हैं? मनहूस दिन तो होते हैं। पर मैं उन्‍हें बदमाश दिन कहता हूं।

18 सितंबर, 2008 का दिन बदमाश दिन था। सुबह अख़बार देखा, पार्टी का एक फोटो छपा था। तस्‍वीर के केन्‍द्र में मैं खड़ा था। पर साले अज्ञानी सब-एडिटर ने कैप्‍शन दिया था : ‘मशहूर चित्रकार पंकज कुमार अपने एक मित्र के साथ।’ मुझे पहचानता नहीं है यह दो कौड़ी का सब-एडिटर? मैंने गुस्‍से में मैग्‍ज़ीन एडिटर राधिका को फ़ोन किया, ‘क्‍या हो रहा है यह मैडम आपके अख़बार में?’

राधिका शायद अभी पूरी तरह जागी हुई नहीं थी। बोली, ‘सुबह-सुबह क्‍यों बोर कर रहे हो मिस्‍टर नेक्‍स्‍ट सुबोध गुप्‍ता! चैन से सोने दो यार। देर रात तक ऑफिस में काम किया है। तुम्‍हारी तरह हर रात पार्टीबाज़ी और मस्‍ती में नहीं बीतती है।’

मैंने फ़ोन पटक दिया। अब दो टके के पेंटर पंकज कुमार का फ़ोन आने की बारी थी। ‘बॉस, यह तो गड़बड़ हो गया। यह कैसे हो सकता है कि वह फ़ोटोग्राफर आपको नहीं पहचानता था। कहीं आप उसकी जेब में सौ का नोट डालना तो नहीं भूल गए?’

‘अबे घोंचू राम, चल आज सुबह खुश हो ले। लगता है तुमने उस फ़ोटोग्राफर की जेब में पांच सौ का नोट डाल दिया था – मुझे न पहचानने के लिए।’

जैसे इतना ही काफ़ी नहीं था इस बदमाश दिन के लिए। मुझे गैलरी कुबेर की डाइरेक्‍टर श्रीमती कासलीवाल से मिलने जाना था। ग्‍यारह बजे मिलना तय हुआ था। पर मेरी गर्लफ्रेंड शोभा बिगड़ गई, अटैची बांध कर भाग गई। उसने मेरे बैग में कंडोम का पैकेट देख लिया था।

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‘मुझसे कह रहे हो ज़रूरी काम है, नाश्‍ता भी नहीं किया। असली काम तो मिसेज़ कासलीवाल से रंगरेलियां मनाने का है। यू ब्‍लडी चीट। ब्‍लडी सेक्‍स एडिक्‍ट! मुझे नहीं रहना है तुम्‍हारे स्‍टूडियो में।’

शोभा गुस्‍से में तमतमा रही थी। वह टैक्‍सी बुलाकर चली गई। और मिसेज़ कासलीवाल ने तीसरा झटका दिया। ‘सॉरी मिस्‍टर जय कुमार, गैलरी आपके कॉण्‍ट्रैक्‍ट को ख़त्‍म करने के लिए मजबूर है। पिछले छह महीनों में हम आपकी एक पेंटिंग भी नहीं बेच पाए हैं।’

कॉण्‍ट्रैक्‍ट ख़त्‍म होने का मतलब था हर महीने पांच लाख रुपये का भारी नुकसान। मिसेज़ कासलीवाल कहीं जाने की जल्‍दी में थी। ड्राइवर कार लेकर तैयार खड़ा था। वह झट से कार में बैठी।

पर मैं भी गुस्‍से में कार के सामने खड़ा हो गया।

‘बचकाना हरकतें मत करो जय कुमार। रास्‍ता छोड़ो।’

मैं क़रीब पांच मिनट तक अड़ा रहा। गैलरी का सिक्‍योरिटी गार्ड जब मेरी तरफ़ आने लगा, तो मैंने सीन से अलग हो जाना ही ठीक समझा। गैलरी का सारा स्‍टाफ़ तमाशा देख रहा था।

बहुत ही बदमाश दिन था यह। मैं वापस अपने स्‍टूडियो आ गया। मैंने हॉलैंड के अपने दोस्‍त रमेश गुलाटी को फ़ोन लगाया। कॉलेज में गुलाटी मेरा लंगोटिया यार था। पर वह हॉलैंड जाकर डेन हाग (द हेग) में बस गया था। हाल में फे़सबुक ने उससे दुबारा रिश्‍ता जोड़ा था। वह कई बार कह चुका था, ‘यार कभी इस दोस्‍त के ग़रीबखाने आओ। मालूम है स्‍टार हो गए हो पर इस फॉरगेटेन स्‍टार के स्‍टूडियो में भी कुछ दिन बिताओ। बोर न होने देने की गारंटी है।’

मैंने कुछ महीने पहले इतालवी दूतावास की मेहरबानी से एक साल का शैंगेन वीज़ा लिया था। मैंने अपने ट्रैवेल एजेंट को फ़ोन करके 19 सितंबर की सुबह का टिकट बुक करा लिया था। फ्लाइट खाली थी।

‘यार, गुलाटी, आज तेरी बड़ी याद आ रही थी। कल सुबह एयरपोर्ट आ जाओ, तुम्‍हारा यार आ रहा है। मुझे पता है, तुझे अचार बड़ा पसंद है। कोशिश करूंगा कस्‍टम को झांसा देने की। और हां, तुझे काजू की बर्फी भी तो पसंद है। एक किलो का डब्‍बा ऑर्डर कर दिया है।’

सुबह-सुबह मेरी फ्लाइट एम्‍सटरडम पहुंच गई। गुलाटी का हुलिया बदल गया था। लंबे बाल ग़ायब थे। क़रीब-क़रीब गंजा हो गया था। पंजाबी 'जफ्फियां' स्‍टाइल में उसका मिलना मुझे अच्‍छा लगा। मैं खु़द उस समय बहुत बेचारगी और हीन भावना का शिकार था। एक सैकेंडहैंड खटारा गाड़ी में गुलाटी ने मेरी अटैची रखी। मैं शायद उसको लेकर ग़लतफ़हमी में था। उसकी हालत पंजाब में काम की तलाश में ग़ैर-कानूनी ढंग से आए मज़दूरों से बेहतर नहीं थी। पता चला गाड़ी भी भारतीय दूतावास में काम कर रहे किसी दोस्‍त की है।

गुलाटी आठ साल से डेन हाग में था। शुरू में कुछ काम बिके, पैसा आया, एक मकान भी ख़रीद लिया। लेकिन पिछले तीन-चार सालों से हालत खस्‍ता थी। ‘अरे यार, अब तो यहीं के कुछ आर्टिस्‍ट कहते हैं भारत में कला बाज़ार की हालत बेहतर है। वे मुझे कहते हैं, हमारा कोई शो कराओ।’

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‘पिछले साल तक हमारे यहां आर्ट मार्केट ऊंचाई पर थी। तब तुम आते, सारा काम बिकवा देता। बोरों में नोट भरकर लोग पेंटिंग खरीदने आ रहे थे। न जाने अब वे कहां रहस्‍यमय ढंग से ग़ायब हो गए हैं।’

गुलाटी का छोटा-सा मकान था। पीछे का एक कमरा उसने पंजाब के ग़ैर-कानूनी ढंग से आए मज़दूरों को किराये पर दे रखा था। किराये से ही उसकी गाड़ी चल रही थी। एक कमरे में पांच लड़के रहते थे। मैं थोड़ा परेशान था, ‘तुमने तो भीड़ इकट्ठा कर रखी है अपने स्‍टूडियो में। टॉयलेट के लिए भी लाइन लगानी पड़ेगी।’

‘तुम चिन्‍ता न करो, यार। दो बेचारे तो सुबह तीन बजे उठकर काम पर चले जाते हैं। सात बजे के बाद यहां तुम्‍हें कोई नज़र नहीं आएगा। संडे के दिन सुबह से गुरुद्वारे के लंगर में व्‍यस्‍त रहते हैं।’

गुलाटी तैयार हो रहा था। उन दिनों वह ‘कूरियर ब्‍वॉय’ का फुटकर काम कर रहा था। थोड़ी-बहुत कमाई हो जाती थी।

‘यार, तुम दिल्‍ली आ जाओ, भला ये कोई पेंटरोंवाली ज़िंदगी है।’

गुलाटी के चेहरे पर फीकी मुस्‍कान थी। ‘यार, दिल्‍ली में तो और भी नर्क है स्‍ट्रगलिंग पेंटर के लिए। यहां कम-से-कम ज़िंदगी के कुछ आराम तो आसानी से मिल जाते हैं। थोड़ी मेहनत करो, बियर पियो, छोकरियां ‘एन्‍जॉय’ करो।’

और वह चल दिया ‘कूरियर ब्‍वॉय’ का थैला लिए हुए। कॉलेज के दिनों में उसकी पेंटिंग देखकर मैं कभी ईर्ष्‍या करता था। आज शायद वह पेंटिंग करना भी भूल गया है। 

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