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गलियों में बचते भागते उस प्राणी और उसके पीछे डंडे लिये दौड़ते कई लोग दूरबीन के लैंस में सिमट आये। उन आँखों में शर्त लगी कि आज ये लोग उस प्राणी को पकड़ पाएंगे या नहीं।

भुतहा योनि:   

एक 


श्मसान उर्फ जलते हुए मुर्दे कल्लू उर्फ कल्लन सिंह बघेल को अचानक लुभाने लगे हैं—क्यों, पता नहीं, कभी उसने सोचा नहीं। बालकनी में आ कोई बादल या चिड़िया ताकता हो जैसे, टुटासु पाये वाली खटिया पर अधलेटा कल्लू धधकती लकड़ियाँ देखता रहता है। टोपाज का पुराना जंगी ब्लेड आँखों से सटाएगा— जलती लाश देखते समय यह ब्लेड अचानक दूरबीन कैसे बन जाता है, उसने कभी ध्यान दिया नहीं —

दूर नदी किनारे बिछी चितायें नजदीक खिंची आयेंगी कि हाथ भर दूर ही पीली लपट उठ रही हो...इस मुर्दे को जलने में देर लग रही है यानी कोई मुटल्ला होगा, ये चटपट ढह गया माने कोई मरियल या फिर कोई छुटकल्ली औरत अम्मा जैसी।

कल्लू का गणित गजब। बचपन में जिस विषय में हर साल फेल हुआ, अब उसी पर जबरजस्त पकड़।

उसने हफ्ते भर में ही हिसाब बिठा लिया है किसी आदमी को ढहने में कितनी और कैसी लकड़ियाँ, कितना सामान और समय लगता है। टाल से खरीदी अरहर की सूखी लकड़ी जल्दी जलेगी, पेड़ से तोड़ी बबूल की गीली देर में। दो किलो लकड़ियाँ एक किलो वजन पर यानी मुर्दा पचास किलो का तो लकड़ियाँ सौ किलो, बदन में लहलहाती चर्बी तो ज्यादा वजन पर भी कम लकड़ियाँ। 

देसी घी की लपकती लपट हो तो लट्ठों की जरूरत कम, लेकिन अगर हरामज़ादे पड़ोसियों की फ़िक्र किये बगैर ट्रक का पुराना टायर या ट्यूब झौंक दो, तो घी और लकड़ी के बगैर भी अर्राटा और भक्काटा। टायर सबसे सस्ता सौदा। जब कल्लू मरेगा तो बीस एक किलो लकड़ी, आधी किलो घी, एक टायर और आध-पौन घंटा लग जायेगा फुंक में......बीस रुपये किलो लकड़ी, तीन सौ रुपये किलो घी यानी छह-सात सौ का कुंडा।

शुरुआत में यह कल्लू का बैठे-ठाले का धंधा हुआ करता था। वह बीमार पड़ा मुर्दों को देखता जी बहला लिया करता था, लेकिन अब यह उसके लिये अफीम की गोली बन गया है। सुबह से अपनी झुग्गी के पिछवाड़े बैठ जाएगा, टोपाज-दूरबीन आँख से सटा लेगा। सोहना सोचेगी बीमारी में उल-जलूल हरकत करने लग जाता है आदमी, उचटती सी निगाह कल्लू पर डाल चली जाएगी। किसी को पता नहीं चलता कि वह मुर्दे निहार रहा है, उसके पास मुर्दा-दूरबीन आ गयी है।

लेकिन कल्लू, कहीं तू खुद कोई मुर्दा ही तो नहीं।

पंद्रह दिन पहले शुरु जून जब पहली बार तूने टोपाज अपनी बायीं कलाई पर फिराया, फिर आँख से सटाया तो किलोमीटर दूर नदी पर जलती चिता अचानक सामने दिखी। हो सकता है वाकई कट गयीं हों नसें उस दिन और अब यह तेरा भूत है जो अपने साथी मुर्दों को देखता रहता है और टोपाज उस भुतहा योनि में जाने-लौटने का एक रास्ता बन गया है।

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दो 

जिस लम्हे नदी के इस बाजू टुटासु पाये वाली खटिया पर कल्लू टोपाज-दूरबीन लिये उछला क्योंकि सहसा उसकी तरफ एक काला प्राणी बिफरता हुआ आ रहा था, नदी के उस हाथ एक बारह मंजिली सरकारी इमारत की ग्यारहवीं मंजिल पर आधी बाजू का स्लेटी सफारी सूट पहने चार आदमी फुर्ती से उठ खड़े हुए। 

नदी के इस तरफ झुग्गियों की चकराती गलियों में भागते एक अलबेटेदार पूँछ वाले काले प्राणी के पीछे कई लोग दौड़े, आठ आँखें ग्यारहवीं मंजिल पर बने एक केबिन के आदमकद शीशे पर आ जुड़ीं। उन सबके पास विशाल दूरबीनें। गलियों में बचते भागते उस प्राणी और उसके पीछे डंडे लिये दौड़ते कई लोग दूरबीन के लैंस में सिमट आये। उन आँखों में शर्त लगी कि आज ये लोग उस प्राणी को पकड़ पाएंगे या नहीं।

आज पकड़ा जाएगा? सफारी सूट नम्बर एक।

आज एक..दो..तीन..पूरे सात लोग हैं। सफारी सूट नंबर दो।

वो नीली बनियान वाला कितना तेज भाग रहा है, इसे पकड़ लेगा...मेरे लगे तीन पर आठ। सफारी सूट नंबर चार।

नहीं पकड़ पाएगा...मेरे चार पर बारह। सफारी सूट नम्बर एक।

बात मत करो..उधर देखो...खेल छूट न जाये। नंबर दो।

मार डालो

उस गली से निकल रहा है

कल्लू के घर के पीछे से...ओ कल्लू...पकड़ 

आगे गया..तालाब के बगल में...

बच रहा है...निकल रहा है पुल के नीचे से ...

गया..गया...बच गया..

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और बची रह गई हांफती...छटपटाती.. दस-बारह लोगों की पसीने और गर्द में डूबी सांसें। 

और ग्यारहवीं मंजिल पर वे चार।

मैंने कहा था नहीं पकड़ पाएंगे ये लोग। सफारी सूट नंबर एक।

हरामज़ादे...इनसे एक जानवर तक नहीं पकड़ा जाता। सफारी सूट नंबर दो।

मेरी हजार रुपये से गयी। सफारी सूट नम्बर चार।


उन्होंने स्लाइडिंग खिड़कियाँ बंद की, वेनेशियन ब्लाइंड्स गिराये, उसी मंजिल पर बने अपने चैंबर में चले गये। यह इनका प्रिय खेल था, झुग्गियों की गलियां उनका रेस का मैदान था जहाँ वे उस बचते भागते प्राणी पर सट्टा लगाया करते थे।

अलबेटेदार पूँछ वाला वह काला प्राणी रहता पुल की बांयी झुग्गियों में था, लेकिन दांयी ओर धमक आया करता था। बस्ती वाले उसे पकड़ने भागा करते थे, लेकिन वह आज भी बच गया था। अपने मालिक निनुआ की झुग्गी के पिछवाड़े मस्ती में लोट रहा था, लोटपोट हो रहा था। 

कुछ दिन पहले तक कल्लू भी इसी प्राणी को पकड़ने दौड़ा करता था, लेकिन अब वह बीमार पड़ा लाशें देखता है या इस गुन्ताड़े में फंसा रहता है कि वह जिंदा है या मुर्दा। आज उन्तीस जून को मंदोड़ा तालाब से बाहर मरी पड़ी पायी गयी तो उसे लगा कि वह वाकई मर चुका है।

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