एपिसोड 1

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लाडिली के कमरे में से दस-बारह तीर और कमान ले के धनपत तथा दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए मायारानी सुरंग में घुसी। जब कैदखाने के दरवाजे पर पहुंची तो दरवाजा ज्यों-का-त्यों बन्द पाया।

असली सूरत

बयान - 1

मायारानी की कमर में से ताली लेकर जब लाडिली चली गई तो उसके घंटे भर बाद मायारानी होश में आकर उठ बैठी। उसके बदन में कुछ-कुछ दर्द हो रहा था जिसका सबब वह समझ नहीं सकती थी। उसे फिर उन्हीं खयालों ने आकर घेर लिया जिनकी बदौलत दो घण्टे पहले वह बहुत ही परेशान थी। न वह बैठकर आराम पा सकती थी और न कोई उपन्यास इत्यादि पढ़कर ही अपना जी बहला सकती। 

उसने अपनी आलमारी में से नाटक की किताब निकाली और शमादान के पास जाकर पढ़ना शुरू किया, पर नान्दी पढ़ते-पढ़ते ही उसकी आंखों पर पलकों का पर्दा पड़ गया और फिर आधे घंटे तक वह गम्भीर चिन्ता में डूबी रह गई, इसके बाद किसी के आने की आहट ने उसे चौंका दिया और वह घूमकर दरवाजे की तरफ देखने लगी। धनपत उसके सामने आकर खड़ी हो गई और बोली -


धनपत - मेरी प्यारी रानी, मैं देखती हूं कि इस समय तू बहुत ही उदास और किसी गम्भीर चिन्ता में डूबी हुई है, शायद अभी तक तेरी आंखों में निद्रादेवी का डेरा नहीं पड़ा।


माया - बेशक ऐसा ही है, मगर तेरे चेहरे पर भी...।


धनपत - मैं तो बहुत घबड़ा गई हूं क्योंकि अब यह बात लोगों को मालूम हुआ चाहती है। मैं खूब जानती हूं कि तुम्हारी कट्टर रिआया उसे जी-जान से..।


माया - बस-बस, आगे कहने की कोई आवश्यकता नहीं, इसी सोच ने तो मुझे बेकाम कर दिया है।


धनपत - मैं थोड़े दिनों के लिए तुमसे जुदा हो जाना उचित समझती हूं और यही कहने के लिए मैं यहां तक आई हूं।


माया - (घबड़ाकर) तुझे क्या हो गया है मुंह से बात भी सम्हालकर नहीं निकालती!


धनपत - हां-हां, मुझसे भूल हो गई, इस समय तरद्दुद और डर ने मुझे बेकाम कर रखा है।

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माया - अच्छा तो तू मुझसे जुदा होकर कहां जाएगी?


धनपत - जहां कहो।


माया - (कुछ सोचकर) अभी जल्दी न करो, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह कब्जे में आ ही चुके हैं, सूर्योदय के पहले ही मैं उनका काम तमाम कर दूंगी।


धनपत - मगर उसका क्या बन्दोबस्त किया जाएगा जिसके विषय में चण्डूल ने तेरे कान में...।


माया - आह, उसकी तरफ से भी अब मुझे निराशा हो गई, वह बड़ा जिद्दी है।


धनपत - तो क्यों नहीं उसकी तरफ से भी निश्चिन्त हो जाती हो?


माया - हां, अब यही होगा।


धनपत - फिर देर करने की क्या जरूरत है?


माया - मैं अभी जाती हूं, क्या तू भी मेरे साथ चलेगी?


धनपत - मैं चलने को तैयार हूं, मगर न मालूम उसे (चण्डूल को) यह बात क्योंकर मालूम हो गई।


माया - खैर, अब चलना चाहिए।


अब मायारानी का ध्यान कैदखाने की ताली पर गया। अपनी कमर में ताली न देखकर बहुत हैरान हुई। थोड़ी देर के लिए वह अपने को बिल्कुल ही भूल गई पर आखिर एक लम्बी सांस लेकर धनपत से बोली -


माया - आफत आने की यह दूसरी निशानी है।


धनपत - सो क्या मेरी समझ में कुछ भी न आया कि यकायक तेरी अवस्था क्यों बदल गई और किस नई घटना ने आकर तुझे घेर लिया।

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माया - कैदखाने की ताली जिसे मैं सदा अपनी कमर में रखती थी, गायब हो गई।


धनपत - (घबड़ाकर) कहीं दूसरी जगह न रख दी हो।


माया - नहीं-नहीं, जरूर मेरे पास ही थी। चल लाडिली से पूछूं, शायद वह इस विषय में कुछ कह सके।


मायारानी धनपत को साथ लिए लाडिली के कमरे में गई मगर वहां लाडिली थी कहां जो मिलती। अब उसकी घबड़ाहट की कोई हद्द न रही। एकदम बोल उठी, ‘बेशक लाडिली ने धोखा दिया।’


धनपत - उसे ढूंढ़ना चाहिए।


मायारानी - (आसमान की तरफ देखकर और लम्बी सांस लेकर) आह, यह पहर भर के लगभग रात जो बाकी है मेरे लिए बड़ी ही अनमोल है। इसे मैं लाडिली की खोज में व्यर्थ नहीं खोना चाहती। इतने ही समय में मुझे उस जिद्दी के पास पहुंचना और उसका सिर काटकर लौट आना है। कैदियों से भी ज्यादे तरद्दुद मुझे उसका है। हाय, अभी तक वह आवाज़ मेरे कानों में गूंज रही है जो चण्डूल ने कही थी। खैर, वहां जाते-जाते कैदखाने को भी देखती चलूंगी, (जोश में आकर) कैदी चाहे कैदखाने के बाहर हो जायं मगर इस बाग की चहारदीवारी को नहीं लांघ सकते। जा, बिहारीसिंह और हरनामसिंह को बहुत जल्द बुला ला।


धनपत दौड़ी हुई गई और थोड़ी ही देर में दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए लौट आई। वे दोनों ऐयारी के सामान से दुरुस्त और हर एक काम के लिए मुस्तैद थे। यद्यपि बिहारीसिंह के चेहरे का रंग अच्छी तरह साफ नहीं हुआ था, तथापि उसकी कोशिश ने उसके चेहरे की सफाई आधी से ज्यादा कर दी थी, आशा थी कि दो ही एक दिन में वह आईने में अपनी असली सूरत देख लेगा।


कैदखाने का रास्ता पाठकों को मालूम है, क्योंकि तेजसिंह जब बिहारीसिंह की सूरत में यहां आए थे तो मायारानी के साथ कैदियों को देखने गए थे।


लाडिली के कमरे में से दस-बारह तीर और कमान ले के धनपत तथा दोनों ऐयारों को साथ लिए हुए मायारानी सुरंग में घुसी। जब कैदखाने के दरवाजे पर पहुंची तो दरवाजा ज्यों-का-त्यों बन्द पाया। कैदखाने की ताली और लाडिली के गायब होने का हाल कहके बिहारीसिंह और हरनामसिंह को ताकीद कर दी कि जब तक मैं लौटकर न आऊं तब तक तुम दोनों बड़ी होशियारी से इस दरवाजे पर पहरा दो। इसके बाद धनपत को साथ लिये हुए मायारानी बाग के तीसरे दर्जे में उसी रास्ते से गई जिस राह से तेजसिंह भेजे गए थे।

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