एपिसोड 1

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अनुक्रम

एपिसोड 1-3 : मेरा मज़हब, मेरी जान
एपिसोड 4-5 : ये शरीफ़ लोग 
एपिसोड  6-9 : कजरी
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मंदिर-मस्जिद के नाम पर दंगे हुए ही। ऐसा दंगा कि उसकी आंच पूरे मुल्क में महसूस की गई। उस दंगे की भी आग बुझ तो गई। लेकिन उसकी राख आज तक उड़ती रही है। उड़ती क्या रही है, उड़ाई जाती रही है।

कहानी: मेरा मज़हब, मेरी जान  

राख में कोई चिंगारी

हालात ऐसे हो चुके थे कि उन्हें हर वक़्त यही आशंका बनी रहती कि वह कभी भी मारे जा सकते हैं। हालांकि शुरू-शुरू में विश्वास नहीं होता कि कोई उन्हें मार भी सकता है। वह खुद से पूछते कि जब मेरी कोई ग़लती ही नहीं तो कोई मुझे मारेगा क्यों? और खुद ही जवाब देते कि ऐसा कहां होता है कि जब कोई ग़लती ही न हो तो किसी को कोई मारे?

ये सब खाली दिमाग की खुराफात है। बेमानी डर। उनके आस-पड़ोस में रहने वाले कई आलिम-फाजिल किस्म के लोग उनकी इन बातों पर मुस्कुराते और उनमें काली-सफेद दाढ़ी वाले जनाब तंज भी करते, ‘लगता है, आप हकीकत में कम, खयालों में ज़्यादा रहते हैं। मरने-मारने वालों के पास वजह भी होती है और उनके नजरिये से वह जायज भी होती है।’

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वह क्या कहते? ऐसे वक़्त पर चुप रह जाना ही बेहतर। क्योंकि बात से बात बढ़ती और वे साबित करने पर एकजुट हो जाते कि मजहबी मामले में किसी बहस, किसी दखल की कोई गुंजाइश नहीं। वे उन्हें अकेला पड़ता देख, नसीहत देने से भी बाज न आते, ‘मियां ,जिस बात की जानकारी नहीं, उसमें खामखा टांग नहीं अड़ाते।’

उन्हें झुंझलाहट होती। जी में आता कि पूछें,‘हर मज़हब में दो जोड़ दो बराबर चार ही होते हैं, जनाब, इसमें अलग से जानने वाली बात क्या है?’ लेकिन सबसे भली चुप। भले लोग यही करते हैं। उनकी भलमनसाहत भी उनसे यही कराती है। इधर तो यह भलमनसाहत कुछ ज़्यादा ही बढ़ गई थी। बात-बात पर चुप्पी। हर बात पर चुप्पी। 

उन्होंने सुना था कि देश की आज़ादी के बाद कई शहरों में मजहबी दंगे हुए और इस वजह से दोनों मजहबों के काफी लोग मारे गये। हां, बड़े-बुजुर्ग बताते रहे हैं कि दंगे तो आज़ादी से पहले भी होते थे और आज़ादी की लड़ाई के दौरान भी हुए। 

दंगे कभी भी हुए हों जायज कतई नहीं कहे जा सकते। उनका तो मानना है कि दंगे इंसानियत के नाम पर कलंक हैं और ये कभी होने ही नहीं चाहिए। हालांकि उनके मानने न मानने से क्या होता है? मंदिर-मस्जिद के नाम पर दंगे हुए ही। ऐसा दंगा कि उसकी आंच पूरे मुल्क में महसूस की गई। 

उस दंगे की भी आग बुझ तो गई। लेकिन उसकी राख आज तक उड़ती रही है। उड़ती क्या रही है, उड़ाई जाती रही है। कभी-कभी तो लगता है कि इस राख में कोई चिंगारी है, जो एक जरा-सा हवा का झोंका पाकर आग में तब्दील हो जाएगी।

शायद ये डर तभी से मन के किसी कोने में सिर उठाने लगा था। लेकिन तब भी यही तर्क उनके भीतर के डर को विश्वास में बदल देता कि जब उनकी कोई ग़लती ही नहीं,तो कोई उन्हें मारेगा क्यों? इस मुल्क में कानून है। कानून का राज है। हर किसी को जीने का हक है। सबको बराबरी का अधिकार है। इसलिए इतना तो तय है कि कोई किसी को बेजवह नहीं मारेगा। लेकिन अनुभवी लोग, आलिम-फाजिल लोग इसे मानने को तैयार नहीं। 

उनका कहना है कि उनकी सोच निहायत मासूम और अहमकाना है। वे उनसे पूछते हैं,‘मियां,मंदिर-मस्जिद के नाम पर लड़ाया तो मजहबों को ही गया न? एक मज़हब की अना को चैलेंज किया गया तो दूसरा चुप कैसे रहता? उसका पुरजोर जवाब नहीं दो तो वह आपको कमजोर समझकर दबायेगा। जीना मुहाल कर देगा। ऐसे में आप बताओ कि कोई चुप कैसे रहेगा?’

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कोई जवाब देते नहीं बनता। उन्हें इनकी बातों से, इनके तर्क से कहीं ज़्यादा डर लगने लगता है। वह जानते हैं कि भलमनसाहत चुप रहने में ही है। वह चुप रह जाते हैं। जिन दिनों मंदिर-मस्जिद वाला झगड़ा शुरू हुआ था,उन्हीं दिनों उनकी शादी की बात चली थी और ना-नुकुर कर इसे टालना भी चाहा था। लेकिन उनकी एक न चली थी। 

आखिरकार, उनकी शादी खालू की बेटी नासिरा से तय हो गई थी। वे लोग कराची से यहां आकर नासिरा के संग उनका निकाह करा गये थे। नासिरा और वह हर मियां-बीवी की तरह थोड़ा नरम, थोड़ा गरम। थोड़ा खट्टा, थोड़ा मीठा किस्म के हैं। लेकिन दोनों एक-दूसरे को भारत-पाकिस्तान के नाम पर छेड़ते भी रहते हैं। 

मसलन, हमारे मुल्क में ये है,तो तुम्हारे मुल्क में वो है। हमारे यहां का रिवाज तो ये है जी, तुम्हारे यहां का रिवाज तुम जानो। ये सब बस छेड़-छाड़ तक ही रहता, अगर मजीद भाईजान ने एक दिन ये न कहा होता,‘मियां,सच तो ये है कि पाकिस्तान इस्लाम के नाम पर हिन्दुस्तान के मुसलमानों को बदनाम करता रहता है। अलहदा होकर भी खामखा हमारा ठेकेदार बना बैठा है।’ 

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