एपिसोड 1
पहले साथी इसे हरिदास मूंघड़ा हर्षद मेहता कहते थे लेकिन हर्षद मेहता की मौत के बाद उसका नामांतरण "मिनिस्टर" हो कर रुक गया। जिसकी बोली वह लगाता, दो-तीन दिन उससे बड़े प्यार और इज्जत से पेश आता फिर पुचकारते हुए उससे कोई 1000 - 500 रुपये की मांग रखता।
जेल प्रसंग :
कल भोर में उठना है इसलिए आज रात सोचा था जल्दी सो जाऊंगा लेकिन नींद उस प्रेमिका की तरह हो गयी जिससे बिछुड़ कर शहर-शहर छाना लेकिन वो तो क्या, उससे मिलती-जुलती काया वाली भी कोई नहीं दिखी।
12 बजे रात तक साथियों की धूम रही। आखिर 14 वर्षों का साथ रहा। इतना तो सरकारी दफ़्तरों में क़लीग को भी नसीब नहीं होता। पार्टी में भी साथी इतने दिनों की यात्रा अक्सर पार नहीं कर पाते।
रिश्तेदारियों में भी ये कहां हो पाता है, कहीं न कहीं कोई न कोई अड़ंगा आ ही जाता है जिससे रास्ते बदल जाते हैं और जिनसे सुबह-ओ-शाम की मुलाकातें हों उनकी सालों खबर तक नहीं रहती; फिर केवल गंभीर बीमारी और मृत्यु संवाद से सखाचक्र पूरा हो जाता है।
ब्रजराज को 14 साल हो गए इस जेल में। 14 सालों में जिंदगी कितनी दूर निकल जाती है इसका अंदाजा वैसे तो कोई भी कर सकता है मगर जेल की जिंदगी का सही बयान कोई-कोई ही कर पा सकता है।
जैसे जन्म के बाद; गली मोहल्ले की जान-पहचान, स्कूल के दिनों की साथ-संगत, फिर हाई स्कूल के दोस्ताने, फिर कॉलेज के यारानों से आदमी सरकता-सरकता जीवन पाता है। वैसे भी जेल में एक लगभग नए जीवन की शुरुआत होती है। जब कैदी "नया मुर्गा' या "पंछी" बनकर उस चहारदीवारी के भीतर पहुँचता है।
वही स्कूलों-कॉलेजों वाले नए-पुराने, खट्टे-मीठे रिश्तों की शुरुआत, वही नोक-झोंक, हील-हुज्जत, रैगिंग, फिर झूमा-झटकी, कभी मार-पिटाई, फिर किसी बड़े, पुराने, हमदर्द कैदी "भाई" की तरफ से मान-मनौव्वल फिर न खतम होने वाली रातों और दिनों की बातचीत, अड्डे बाजियाँ, गिले-शिकवेे . . . अगर कोई ऐसा उपाय हो के आदमी भूल सके कि वो सजायाफ़्ता कैदी है तो जेल में बहुतेरे कैदियों को कोई विशेष तकलीफ महसूस नहीं होती।
वैसे तमाम बातों पर ये तो भारी है ही कि वो वहां अपनी मर्जी से कोई नहीं रहता, ना ही रह सकता है। उसे जो आस-पड़ोस वहां मिला होता है, उसे उसने चुना नहीं होता है। लेकिन जेल के बाहर भी ये कहां मुनासिब हो पाता है कि आदमी अपना आस-पड़ोस खुद चुने और मर्जी माफ़िक रह सके। और जैसे बाहर रहते-रहते उस जगह और लोगों से एक संबंध अनायास ही बन जाता है वैसा ही जेल में भी संभव है।
ये बात केवल दोस्ताने के लिए ही नहीं वरन चिढ़ और रंजिश पर भी लागू होती है। रात गोविंद ने ब्रजराज को एक पॉकेट सिगरेट दी थी, उस्ताद की सलामी। कल तो उस्ताद रुखसत हो जाएगा, इसलिए आखिरी भेंट, नजराना, "तोहफा ए रुखसत'।
गोविंद 36 साल का था। ब्रजराज से तकरीबन 4 साल छोटा। 5 सालों का साथ था। जेल के नियम-कायदों के बारे में लगभग जेल मंत्री के बराबर की जानकारी रखता था। उसके साथी कहते के बाहर रहता तो वो मिनिस्टर बन सकता था। उसका नाम भी गोविंद कोई-कोई ही जानता था बाकि तमाम लोग "मिनिस्टर' पुकारते थे।
नया कैदी आते ही उसे खबर हो जाती और आमदनी वार्ड से तीन-तीन हजार तक की बोली लगाकर उसे अपने वार्ड/सेल में ले आता था। उसका "इनवेस्टमेंट" सेंस इतना पक्का था के कभी उसे नुकसान नहीं उठाना पड़ा।
पहले साथी इसे हरिदास मूंघड़ा हर्षद मेहता कहते थे लेकिन हर्षद मेहता की मौत के बाद उसका नामांतरण "मिनिस्टर' हो कर रुक गया। जिसकी बोली वह लगाता, दो-तीन दिन उससे बड़े प्यार और इज्जत से पेश आता फिर पुचकारते हुए उससे कोई 1000 - 500 रुपये की मांग रखता। इसके बदले में उसे अच्छा बिस्तर, ठीक-ठाक खाना, शौच, नहाने वगैरह की पूरी आजादी दी जाती।
मिनिस्टर का कोना बिल्कुल सूरज के सामने पड़ता था। वहां सबसे ज्यादा धूप-रौशनी मिलती। इस बात का एहतियात रखा जाता के उसके पास वाली जगह नए कैदी को मिले और लोगों से कंबल भी एक-आध ज्यादा।
खुद मिनिस्टर के पास तो जैसे कम्बलों का कारोबार ही हो। उसके पास इतने कंबल कैसे पहुंचते थे आजतक किसी को पता नहीं चला। वो कंबल ही बिछाता। उसका ही सिरहाना बनाता, उसे ही ओढ़ता। इन्हीं कंबलों को तह कर एक सिंहासन बनता जिस पर वह शहंशाह की तरह बैठा करता।
उसके ठाठ के क्या कहने। जरूरत पड़ने पर नए कैदी को वो इक्का-दुक्का कंबल खुद भी देता। यहां कंबलों की बात कोई साधारण बात नहीं होती। इनमें मोक्ष, खुदाई छिपी होती है।
जेल की ठंडी शामों और ठिठुरती रातों में ये कंबल ही है जो साधारण और वीआईपी कैदी का फर्क बयां करते हैं। 1000 - 500 से शुरु होकर ये फरमाईश फिर महीने - तीन महीने में 100 - 200 माहवार पर सिमट आती।
क्योंकि इतने दिनों में आत्मीय परिचय, परिवार वालों से मेल मुलाकात, दोस्तों के रेफरेंस, कैदी का भाग्यहीन अतीत वगैरह कई मुद्दे सामने आ जाते और ये भी इनके यार-दोस्त हो जाते। कौवा भी कौवे का मांस नहीं खाता। वैसे सुयोग्य कैदी स्वेच्छा से भी इनके लिए साबुन, मिठाई, सिगरेट-बीड़ी, नशा वगैरह की व्यवस्था करते रहते।
मिनिस्टर यानी गोविंद किसी को नमस्ते-सलाम नहीं करता। (सरकारी) जेल के कर्मचारियों की बात और है। साथियों को वह हमेशा "राम राजा" कहा करता। कहो राम राजा . . . कभी-कभी "राम परजा" भी बोलते सुना था। दरअसल पूरी बात थी "राम राजा, राम परजा, राम साहूकार . . ." ये बात मिलते-जुलते रहने से काफी बाद में समझ में आती या बतायी जाती।
"साहूकारी" को मिनिस्टर सबसे बड़ा "धरम' समझता था। इसकी ट्रेनिंग उसे उसके गुरु से मिली थी। गुरु जिसका नाम शायद माँ-बाप ने जानकर ही गुरुदास रखा था।
उम्र में केवल 5 साल बड़ा था; मिनिस्टर को धंधे के गुर उसने ही सिखाए थे। पहले वो छोटी-मोटी राहजनी किया करता था। चाकू चमकाने में उस्ताद। लेकिन कोशिश यही रहे कि खून-खराबे की नौबत न आए।
वह गुरु की क्लास में शामिल हो गया। अपने इस निर्णय को वह आज तक जिंदगी का टर्निंग प्वाइंट मानता है और गुरु का नाम बड़े सम्मान से लेता है।
वह बैलून फुला कर उस पर रेशमी रूमाल डाला करता था और फिर अपने हुनर से ऐसी ब्लेड चलाता के कपड़ा दो टूक हो जाए पर बैलून न फटे। अपने धंधे को वो "कारीगरी" मानता था और किसी बढ़िया गिरहकट का जिक्र करे तो उसे बड़ा कारीगर बताया करता था। जेल तो मानो उसका घर जैसा था।
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कमेंट (8)
Yogesh Agrawal
चौर्यकला
1 likesYogesh Agrawal
आमदनी वार्ड!
1 likesYogesh Agrawal
वाह!
1 likesSuman Sharma
Quite intersting start, very curious to read ahead and unfold the plot!Highly recommended....
1 likesHarsh sharma
अद्भुत लेखन महोदय आपको प्रणाम
1 likesYogesh Agrawal
अद्भुत विषय... अभी पहला पेज ही पढा है। शीघ्र पढ़ने की उत्सुकता एवम हार्डकॉपी उपलब्ध हो तो दोस्तों को गिफ्ट करने की प्रतीक्षा।
1 likessudha singh
जी बिल्कुल नया विषय , ये सच है जो इंसान जहां भी रहता है एक परिवार सा बना लेता है , कितने अलग अलग खासियत के लोग होते हैं और हम हर किसी मे कुछ न कुछ ढूंढ ही लेते हैं ।
1 likesप्रफुल्ल
बिल्कुल नयापन लिए हुए है
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