एपिसोड 1

वह चोर आंखों से लड़की की छातियों की तरफ देख रहा था। कमरे का चौकीदार, जो कि अभी तक चुपचाप बैठा था, अपनी जगह से उठा और उसने लड़की समेत सभी पागलों को बाहर खदेड़ दिया।

अंबिकापुर


मेरा स्थानांतरण भोपाल से अम्बिकापुर हुआ था। मैं पहले दिल्ली गया और वहां से उत्कल एक्सप्रेस पकड़ कर अंबिकापुर आ रहा था। जिले का नाम था - सरगुजा और ज़िला मुख्यालय - अंबिकापुर। 

यह नाम मैंने अब तक नक्शे में ही देखा था। अंबिकापुर रेलवे लाइन से जुड़ा नहीं है। अनूपपुर से गाड़ी बदल कर बिश्रामपुर जाना पड़ता है और फिर वहां से जीप या मिनी बस मिल जाती है। बिश्रामपुर से अंबिकापुर की दूरी तकरीबन पच्चीस किलोमीटर है। 

उस समय उत्कल एक्सप्रेस सुबह लगभग नौ बजे अनूपपुर पहुंचती थी। अनूपपुर में उतरने के बाद बिश्रामपुर के लिए गाड़ी दोपहर तीन बजे मिलती थी। नौ बजे से लेकर तीन बजे तक का वक़्त वहीं रेलवे स्टेशन पर गुजारना पड़ता था। लगभग छह घंटे या उससे भी कुछ ज़्यादा। कुछ निश्चित नहीं था। इस गाड़ी के बारे में सुन रखा था कि जब चल पड़े, वही उसका सही वक़्त होता है। 

मैंने कुली को आवाज़ दी। कुली मेरी ओर ही देख रहा था। कुली के साथ रेल की पटरियां पार करता हुआ मैं एक नंबर प्लैटफार्म पर पहुंच गया। उसने मेरा सामान एक कमरे में रख दिया। कमरे के बाहर लिखा था ‘उच्च श्रेणी विश्राम गृह’। मैं वहीं फाइबर की एक लाल रंग की कुर्सी पर बैठ गया। 

अनूपपुर रेलवे स्टेशन काफी गंदा था। बिश्रामपुर इस कदर बदबू से भरा था कि वहां बैठे अधिकांश लोग जैन मुनियों की तरह नाक और मुंह पर पट्टी बांध कर बैठे नज़र आ रहे थे। 

इसी कमरे में नीचे फर्श पर कुछ लोग बेसुध, बेखबर सो रहे थे। शायद उनकी गाड़ी के आने में अभी वक़्त था या फिर वे देर रात वहां पहुंचे होंगें। इनमें से कुछ के मुंह खुले थे। एक बुज़ुर्गवार की धोती ऊपर तक सरक आयी थी। कुछ लोग अपने अपने ब्रीफकेस सिर के नीचे रख कर लेटे थे। एक आदमी ने, जिसकी अटैची काफ़ी बड़ी होने के कारण सिर के नीचे नहीं आ रही थी, चेन के एक सिरे से अटैची बांध रखी थी और दूसरा सिरा अपने पैर में लपेट कर ताला लगा दिया था। कमरे के पीछे की दीवार के साथ एक दरवाजा था जिसके भीतर संडास था। ऐसा लगता था कि दूर-दूर से लोग यहीं पाखाना करने आते हैं। 

बाहर बरामदा था। बरामदे के साथ लगी दीवार पर एक बोर्ड था जिसमें अनूपपुर रेलवे स्टेशन से होकर गुजरने वाली गाड़ियों के वक़्त का ब्यौरा था, पर अधिकतर लोग बोर्ड के साथ लगे सहायक स्टेशन मास्टर के कमरे में जा कर ही अपनी अपनी गाड़ी के आने का सही वक़्त पूछते। सहायक स्टेशन मास्टर यात्रियों के साथ बहुत बदतमीजी से पेश आता। उसके चीखने की आवाज़ बाहर तक आती। 

मैंने भी एक बार सोचा कि बिश्रामपुर तक जाने वाली गाड़ी के बारे में पूछूं लेकिन मैं जल्दी में नहीं था। सुबह के करीब पौने दस बजे थे और मेरी गाड़ी का निर्धारित समय तीन बजे का था। गाड़ी को रवाना भी अनूपपुर से ही होना था, कहीं कलकत्ता या अमृतसर से नहीं आना था कि रास्ते में लेट हो जाए। मैंने सुन रखा था कि यह गाड़ी यहां से ही देर से चलती थी। सहायक स्टेशन मास्टर की ऊंची और भद्दी आवाज़ सुनने की मुझे ज़रूरत नहीं थी। 

मेरे सामने एक आदमी सो रहा था। उसने अपना सिर एक बड़े से काले बक्से के साथ टिका रखा था। शायद उसके पास बक्से को बांधने की लोहे की चेन नहीं थी। बक्सा इतना बड़ा था कि अगर उसे कोई एकाएक अपनी जगह से हटा दे तो उस आदमी का सिर धड़ाम से नीचे गिर कर चटख सकता था। 

अचानक ही एक कुत्ता वहां आ गया और अपनी एक टांग ऊपर उठा कर उस बक्से के ऊपर पेशाब करने लगा। देखते ही देखते कुत्ते का पेशाब बक्से के ऊपर नक्शा बनाता हुआ फैल गया, जिसकी धार नीचे उस आदमी के सिर पर बहने लगी जो अपना सिर बक्से के साथ टिका कर, इत्मीनान से सो रहा था। 

वह आदमी हड़बड़ा कर उठ बैठा जैसे कि अचानक बाढ़ आ गयी हो। फिर उसकी नजर कुत्ते पर पड़ी जो कि थोड़ी ही दूरी पर एक तरफ खड़ा हो कर उसे घूर रहा था। 

उस आदमी ने कुत्ते को देखा तो उसकी समझ में आ गया कि माजरा क्या है। वह बुरी तरह झल्ला गया। उसके मुंह से एक भद्दी साी गाली निकली, ‘मादरचोद’। 

आसपास बैठे कुछ लोग जो अब तक चुप थे, वे हंस पड़े। कुत्ता अपनी एक टांग ऊपर उठाकर बाहर भाग गया। 

मेरे सामने की कुर्सी पर तीस-बत्तीस वर्ष की उम्र का एक युवक बैठा था। उसका चेहरा पारदर्शी था। दुबला-पतला, नाटा सा। लगभग मेरी ही उम्र का या शायद दो-तीन साल छोटा। मैं करीब तीस का था। वह मुझसे कुछ अधिक छोटा भी हो सकता था। उसका भोला सा चेहरा देख कर लग रहा था कि वह दृश्य वह अपने भीतर कहीं समेट नहीं पा रहा था। 

       कुत्ता बाहर गया तो दो पागल कमरे में दाखिल हो गये। उनके पीछे-पीछे तेरह चैदह साल की एक लड़की भी थी। वह भी शायद पागल थी। उसके सिर के बाल खुले थे। मुंह गंदा था, जिसमें से लार बाहर टपक रही थी। उसने हरे रंग का स्कर्ट पहन रखा था और ऊपर फटा ब्लाउज़। उसकी छातियां अपना आकार ले रही थी, यों अभी वह बच्ची ही थी। किसी का ध्यान उसकी ओर नहीं था। अपनी ओर ध्यान खींचने के लिए उसे कम से कम दो साल की और ज़रूरत थी। 

क्या पागलपन में भी देह का विस्तार होता चला जाता है, मैंने सोचा। अचानक मैंने देखा कि वह व्यक्ति कुछ असहज हो उठा। उसकी असहजता उसके चेहरे पर स्पष्ट थी। 

वह चोर आंखों से लड़की की छातियों की तरफ देख रहा था। कमरे का चौकीदार, जो कि अभी तक चुपचाप बैठा था, अपनी जगह से उठा और उसने लड़की समेत सभी पागलों को बाहर खदेड़ दिया। फिर वह वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गया। 

उसे देख कर लगता था कि जैसे वह बरसों से इस रेलवे स्टेशन के इसी विश्रामगृह में बैठा, पागलों को बाहर खदड़ने का काम कर रहा था। 

कुछ ही क्षणों में सब कुछ सामान्य हो गया। इस बात का अनुमान लगा पाना सचमुच बहुत मुश्किल था कि कुछ क्षण पहले यहां इस प्रथम श्रेणी प्रतीक्षालय में एक ऐसी घटना घटी थी जिसका असर कमरे की हर चीज़ पर था पता नहीं क्यों मेरी आंखें बार-बार उस व्यक्ति पर जाकर ठहर जाती थीं। वह मेरे सामने बैठा था। चुपचाप। मेरी इच्छा हुई कि उठकर उसके पास चला जाऊं, पर दिक्कत यह थी कि उसके आसपास की कुर्सियां भरी हुई थीं और उन पर बैठे लोग ऊंघ रहे थे। मुझे उस विश्रामगृह के अंदर घबराहट होने लगी। मैं अपने आपको रोक नहीं सका। अचानक ही मैं अपनी जगह से उठा और उसके पास चला गया। 

‘एक्सक्यूज मी, थोड़ा आप मेरा सामान देखेंगें, मैं पांच मिनट में आया,’ मैंने कहा। ‘जी,’ उसने बहुत धीमी आवाज़ में ज़वाब दिया।

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