एपिसोड 1
साइकिल चलाते हुए हमारा मन अक्सर ‘सानू-सानू’ भाव से भर उठता। हम भी किसी की आवाज़ की नक़ल उतारते हुए कोई गाना गाने लगते- ’हो... एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...।’ बड़े-बुजुर्ग हमें काहिल कहते और हम अपनी साइकिलों को हीरो-होंडा। हीरो-होंडा पर चढ़कर हम हीरो हो जाते।
भागते हुए दिन
वे भागते हुए दिन थे और मेरे पास एक नयी साइकिल थी। उन दिनों हवाएँ ख़ूब चला करती थीं। गाँव की कच्ची सड़कों पर पीली धूल उड़ा करती थी। दिन बड़े-बड़े और बेढंगे हुआ करते थे। चारों तरफ़ जेठ के सूने खेतों में दूर-दूर तक ऊब पसरी होती थी। गाँव में एकाएक नौजवानों की पूरी एक फ़ौज खड़ी हो गयी थी। हममें ख़ूब याराना था। हमारे लिए इंटर क्लब फुटबॉल प्रतियोगिताएँ थीं। पनचक्की के पास हसन मियाँ की रंगचटी टिपरिया चाय की दुकान हमसे आबाद होने लगी थी। हम आपस में सिगरेट-बीड़ी से लगाकर रोमांटिक स्त्री-अभिज्ञताओं को एक्सचेंज करते। मुहल्ले की कल्चर्ड भाभियों के लिए रिक्शा बुला देने या उनकी चिट्ठयाँ पोस्ट कर देने जैसा छिटपुट काम करते। क्लब में बैठकर कैरम खेलते। बड़े-बुजुर्ग हमें काहिल कहा करते और हम खुद को बिन्दास। ‘बिन्दास’ हमें एक अद्भुत् शब्द प्रतीत होता था। वे घरों से भागकर और कॉलेज से डूब देकर क्लब की ब्लैक-एंड-व्हाइट टीवी पर उत्तम-सुचित्रा की ‘हारानो सूर’ देखने के दिन थे। सुचित्रा, माधवी, अपर्णा की तरह की हिरोइनें अब कहाँ रहीं? जतिन दा के शब्दों में स्वर्ण युग की स्वर्ण नारियाँ। अब तो ‘घर में माँ-बहन नहीं हैं क्या’ टाइप की लड़कियों से ज़माना भरा पड़ा है।
उन्हीं दिनों वे आईं। वे मतलब चाची। सुबह का शुरुआती समय था। मैं अपनी साइकिल रगड़-रगड़कर चमका रहा था। इतने में पिताजी हाथ में एक बड़ी-सी अटैची लिये सदर दरवाजे से भीतर दाखिल होते दिखे। मैंने आगे बढ़कर उनके हाथों से अटैची ले ली। तभी दरवाजे पर झिझकती-सी वे दिखीं। वे मतलब चाची। लेकिन शायद यह मैं पहले भी कह चुका हूँ। मुझे मालूम था, पिताजी तीन दिन पहले भागलपुर गये थे। वे मेरी भागलपुर वाली चाची थीं। मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा। न उनके बारे में कुछ जानता था। पिताजी ने भी पहले कभी नहीं बताया कि भागलपुर में हमारे रिश्तेदार रहते हैं। माँ उन्हें सादर घर में लिवा ले गयीं। उन्हें तत्काल वही कमरा दे दिया गया जिसे अब तक मैं इस्तेमाल करता था। तय हुआ कि गर्मी-भर मैं खाट लेकर बाहर आँगन में ही सोऊँ। आगे बरसात या जाड़े की बात तब देखी जाएगी। इस तरह जब वे आईं तो सदा के लिए आ गयीं।
वे शायद विधवा थीं या परित्यक्ता। सिन्दूर नहीं लगातीं, हालाँकि हाथों में लोहे के चूड़े डालतीं। रंगीन साड़ी बाँधतीं। सम्भवत: निस्सन्तान भी थीं। उम्र ज्यादा नहीं, बहुत हुआ तो तीस-पैंतीस। शरीर बँधा हुआ। वे खूब गोरी थीं। हम सब, यानी माँ पिताजी और मैं, साँवले से थोड़े गहरे ही। चाची की बोली-बानी भी हमसे ज़ुदा थी। बोलती थीं तो हिन्दी-मिश्रित बांग्ला। चाल-ढाल में भी वे हमारे नजदीक की नहीं। गरज़ कि किसी भी सूरत में वे हमारी रिश्तेदार नहीं लगती थीं। व्यवहार की बड़ी सलीकेदार और विनम्र। माँ, चाची-सी नहीं। तुनकमिजाज और चिड़चिड़ी। माँ को खुलकर हँसते-बोलते मैंने कभी नहीं देखा। किसी से भी नहीं। पिताजी से भी नहीं। चाची, माँ-सी नहीं। ख़ूब हँसतीं। हँसतीं तो उनकी देह थर-थर हिलती। लगता, उनके हर अंग से हँसी के छोटे-छोटे दाने झड़ते हों। चाची हँसतीं तो और भी अच्छी लगतीं।
वे भागते हुए दिन थे और मेरे पास एक नयी साइकिल थी। मैं अपनी साइकिल से प्यार करता था। उस पर जान छिड़कता था। मेरे हाईस्कूल फर्स्ट डिविज़न में पास करने पर पिताजी ने उपहारस्वरूप यह साइकिल लाकर दी थी। पास के गंज में एक कॉलेज था। मैंने गाँव के दूसरे लड़कों के साथ उसमें दाख़िला ले लिया था। हम सब साथ ही कॉलेज के लिए निकलते। अपने-अपने घरों से निकलकर हसन मियाँ की चाय की गुमटी पर मिलते। वहाँ से इकट्ठे कॉलेज के लिए चल देते। हम सबके पास अपनी साइकिलें हुआ करती थीं। मेरी वाली सबसे नयी थी। कच्ची सड़कों पर एक साथ साइकिल चलाने में ख़ूब मज़ा आता। कभी-कभी हम रेस लगाते। कभी-कभी मैं जीत जाता। वे भागते हुए दिन थे और गाँव में हम नौजवानों की पूरी एक फ़ौज खड़ी हो गयी थी। साइकिल चलाते हुए हमारा मन अक्सर ‘सानू-सानू’ भाव से भर उठता। हम भी किसी की आवाज़ की नक़ल उतारते हुए कोई गाना गाने लगते- ’हो... एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...।’ बड़े-बुजुर्ग हमें काहिल कहते और हम अपनी साइकिलों को हीरो-होंडा। हीरो-होंडा पर चढ़कर हम हीरो हो जाते। उन दिनों हिन्दी फ़िल्मों की हिरोइनों में ऐश्वर्या राय सबसे नयी थी। हम सब उससे प्यार करते थे। उस पर जान छिड़कते थे। उसकी परी आँखों के दीवाने थे। चाची वाली बात मैंने किसी को नहीं बतायी थी। चाची की आँखें ऐश्वर्या राय की आँखों तरह सुन्दर थीं। चाची की आँखें नीली नहीं थीं। मेरी साइकिल का रंग काला चमकदार था। चाची की आँखें काली चमकदार थीं। मैं अपनी साइकिल से प्यार करता था। उस पर जान छिड़कता था। मेरी साइकिल का रंग काला चमकदार था। लेकिन यह शायद मैं पहले ही कह चुका हूँ।
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कमेंट (2)
- Rajesh Rajak
jay ho
0 likes - Rawat Pawan Singh
nice writing 😊
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