एपिसोड 1
मयंक का मन हुआ, उससे कुछ कहे, परंतु नहीं कह पाया। किसी के प्रति दुख प्रकट करने के लिएआत्मीयता का होना आवश्यक है। जिस अधूरी पहचान के साथ वे दोनों जी रहे थे, ऐसा कोई भी अफसोस बेमानी लगता था।
अधूरेपन की छांव
Thou shalt love life more than the meaning of life.
वे दोनों यूँ ही बैठे रहते थे।
वह अपने हाथ बॉंधे रहता या जींस की जेबों में ठूंस लेता। वह अपनी गोद में रखे पर्स को जकड़े रहती मानो कोई उसे छीन ले जायेगा। उनके सामने समुद्र होता, कभी चिंघाड़ता कभी शांत। पीठ पीछे मरीन ड्राइव दौड़ती रहती थी। उनके दोनों ओर बनी ढाई फुट की दीवारी पर दूर तक अनगिनत युगल बैठे रहते थे। किसी का चेहरा सागर की ओर होता, किसी की पीठ।
वह अपने लुई वुइतों के पर्स की तनियॉं उॅंगलियों में लपेटने लगती थी। बंबई के तट पर सरसराती नमकीन समुद्री बयार उसके भूरे बाल सुरसुरा जाती थी। कंधे तक झूलते लेयर कट बाल समीप बैठे मयंक के चेहरे पर आ झुरझुराने लगते। होंठ,पलक,माथा…सहसा उसके नथुने सिहर उठे। तभी वह अपने बिखरते बाल समेट पीछे बॉंध लिया करती।
शेंग .. शेंग ....शेंग ।
मयंक पीछे मुड़ा, एक फेरी वाला गले में कपड़े की पट्टी से शेंगदाणे की टोकरी लटकाये खड़ा था। कागज की पुंगियॉं टोकरी के कोने में ठुँसी हुईं थीं।
खाओगी ?
तुम्हारी मर्जी।
वीटी के सामने ओपन एयर रेस्तरां में भी जहॉं वे मरीन ड्राइव आने से पहले बैठते थे, यही होता था । वेटर के आने पर वह उसे देखता, वह चुप रही आती। वह खुद ही दो चाय का ऑर्डर दे देता। होटल में बैठने के लिये कुछ लेना जरूरी था। लेकिन यहॉं ऐसी कोई बाध्यता न थी और वह फेरी वाले को मना कर देता, हाथ बॉंध लेता ।
दूर सागर से सफेद फेनिल लहर उमड़ती चली आ रही थी। किसी बवंडर-सी वह लहर उठती, गिरती, किनारे की चट्टानों पर आकर छितर जाती। फेन की कुछ बूंदे चट्टानों के ऊपर बैठे उन तक छिटक आती थीं।
मयंक ने होंठों पर जीभ फिराई, स्वाद नमकीन था। रेशल पर्स से रूमाल निकाल चेहरा पौंछ रही थी। रूमाल उसकी ओर बढाया, पर वह शर्ट की आस्तीन मुंह पर रगड़ चुका होता था।
मरीन ड्राइव से ढेर सारी गाड़ियॉं निकलती रहती थीं । शाम को जॉगिंग करते लोग एडिडास के जूते और शॉर्ट्स पहने फुटपाथ पर दिखाई देते थे। कुछेक के संग उनके विदेशी कुत्ते भी जीभ लपलपाते दौड़ते थे। किसी सांझ सागर शांत रहा आता, आकाश के तले झिपझिपाता रक्तिम गोला उनके चेहरों पर उतर आता। दोनों उठ जाते। वह पर्स कंधे पर टांग लेती और वे सावधानी से चट्टानों पर पैर रख नीचे उतर आते।
गीली चट्टान पर हरी काई के नर्म रेशे उग आये थे। उसकी सैंडिल फिसलने लगी — वह थोड़ा लड़खड़ाई, धीमे से नीचे उतर आई। समुद्र काफी दूर तक सूखा पड़ा था। काली, नुकीली चट्टानें, जो अन्य दिनों उफनते पानी में दुबक जातीं थीं उभर आईं थीं। कुछ लड़के इन पत्थरों को एक के बाद एक फलांगते जा रहे थे। अब वे काफी अंदर एक चट्टान पर खड़े चिल्ला रहे थे, किनारे रह गये अपने डरपोक दोस्तों को हाथ हिला रहे थे।
और वे दोनों बालू पर अपने कदमों के निशान छोड़ते चलते जा रहे थे। बालू पर गीली टहनियॉं, नारियल के खाली खोखल, सूखे फूलों की माला बिखरी रहती थीं। लोग इन्हें सागर में फेंक आते थे लेकिन लहरें अपने साथ ला वापस किनारे पर छोड़ जाती थीं।
‘तुम्हें कुछ अजीब-सा नहीं लगता।’
‘अजीब सा?’
‘हमें इतने दिन हुये, तुम मेरे बारे में कुछ भी नहीं जानतीं।’
चट्टानों पर बैठे किसी व्यक्ति ने पत्थर उछाला, जो छपाक से दूर समुद्र में डूब गया।
‘क्या फर्क पड़ता है। जानने के बाद भी तो तुम वही रहोगे।’
देर तक नम बालू पर चलने के बाद वे थक कर वापस ऊपर आ दीवारी पर बैठ जाते। मैरिन ड्राइव पर रात चोरी-छिपे आती है। बैठे हुये लोगों को आभास नहीं होता, उस पार ठहरे मालाबार हिल की रोशनियॉं सागर सतह से प्रतिबिम्बित होती उनकी ऑंखों में चमकने लगती हैं।
‘तुमने क्वीन्स नैकलैस देखा है?’
‘क्वीन्स नैकलैस!’
‘कहीं पढ़ा था मैंने, मरीन ड्राइव पर लगे स्ट्रीट लैंप की रोशनी जब रात के समुद्र पर बिखरती थी वे बिंदु किसी नैकलैस जैसे लगते थे। लेकिन पिछले छः महीनों से, जब से यहॉं आया हूँ, ऐसा नहीं देखा।’
‘तुम बंबई के रहने वाले नहीं हो?’
‘नहीं।’
वह कुछ पल सागर को देखती रही। ‘यह बहुत पहले की बात है — जब समुद्र को पीछे नहीं धकेला गया था, जब यह दीवार नहीं बनी थी। उन दिनों यहॉं तक….,’ रेशल ने उंगली से इशारा किया, ‘बालू बिछी रहती थी। लहरें सड़क तक आ जातीं थीं और स्ट्रीट लैंप की रोशनी सागर पर उतर आती थी।’
‘तुमने देखा था वह?'
उसकी आकुलता पर वह मुस्कुरा पड़ी, उसका स्वर रुई के रेशे-सा हो आया,‘नहीं मुझसे भी पहले ... जब मैं स्कूल में थी, गुरुजी के आश्रम से लौटते वक्त पापा यहाँ कार रोक देते थे। मैं, माँ ,पापा हम देर तक यहॉं घूमते रहते थे। तब यह दीवार यहाँ आ चुकी थी।’
'आश्रम?‘
‘हम अक्सर गुरुजी के आश्रम जाते थे। अलीबाग बीच के पास आश्रम है उनका।’ उसकी धीमी आवाज कहीं बहुत गहरे से, सागर तल से उठती आई थी।’
‘अब नहीं जातीं?’ वह उसकी ऑंखों में झिलमिलाती रात की रोशनियॉं पढ़ रहा था।
‘‘छः साल पहले माँ पापा चले गये…।’ वह चुप रह निगाहों से फर्श टटोलती रही।
‘तुम्हारे माता पिता?’ उसने हिचकते हुये पूछा।
वह कुछ नहीं बोली। सैंडिल से पैर बाहर निकाल अंगूठे को जमीन पर घिसती रही। मयंक का मन हुआ, उससे कुछ कहे, परंतु नहीं कह पाया। किसी के प्रति दुख प्रकट करने के लिये आत्मीयता का होना आवश्यक है। जिस अधूरी पहचान के साथ वे दोनों जी रहे थे, ऐसा कोई भी अफसोस बेमानी लगता था। वह चुप सामने देखता रहा जहॉं दिन भर की थकान के बाद एक नारियल पानी वाला फुटपाथ पर दरी बिछा सोने की तैयारी कर रहा था।
दरी पर बैठ उस व्यक्ति ने एक पोटली से पाव, दूसरी पॉलीथीन से सब्जी निकाली। अचानक पूंछ फहराता एक भूरा कुत्ता उसके चक्कर काटने लगा। उसने कुत्ते को भगाया पर वह जीभ निकाल उसे देखता रहा। लुंगी वाले व्यक्ति ने एक पाव दूर फेंक दिया। कुत्ता भागा, पाव मुंह में दबा एक ओर बैठ गया।
वहॉं बैठे लोगों की भीड़ छंटने लगी थी। उन जैसे गिने चुने ही रह गये थे, जिनका घर पर कोई इंतजार नहीं कर रहा था।
‘तुम दिन में क्या करती हो?’
‘मैं क्या करती हूँ दिन में।‘ उसने प्रत्येक शब्द पर जोर डालते हुये कहा। ‘पिछले कुछ महीनों से घर में पड़ी रहती हूँ। सुबह देर से उठती हूँ। मेरी बिल्डिंग के पीछे अरब सागर बहता है, उसे ताकने में, वॉकमैन सुनने में दोपहर निकल जाती है। पिछले कुछ दिनों से रोज शाम को यहॉं आ जाती हूँ।’ उसका स्वर अचानक धीमा हो आया था। सामने सोये सागर की एक अकेली लहर मंद गति से किनारे की ओर आ रही थी।
वह उसे देर तक देखता रहा...कंधे पर टंगे पर्स की तनियॉं असमानी टी-शर्ट में फॅंस जाने से रेशल की गरदन का मॉंस उघड़ गया था और कॉलर बोन का काला तिल चमकने लगा था। उसके लेयर कट बाल खुल कर बिखरने लगे थे। काफी देर से ठहरी हवा अचानक चल पड़ी थी। उसने अपनी शर्ट की आस्तीन ऊपर चढ़ा लीं।
सड़क पर गाड़ियॉं कम हो जाने से ट्रैफिक का शोर कम हो गया था। वे मरीन ड्राइव के चमकीले अंधेरे में चलते चलते एक्सप्रैस टॉवर तक आ गये थे। सड़क पर लगे होर्डिंग की रोशनियॉं इमारत के शीशों पर चमक रहीं थी।
‘तुमने कुछ महसूस किया ?’ मयंक ने अपने गाल पर उंगलियॉं फिराईं।
‘क्या?’
‘बूंद…,’ उसने ऊपर निगाह उठाई, ‘अभी तो आसमान साफ था।’
और अचानक बूंदें गिरने लगीं। बरसात के साथ हवा भी तेज हो गई थी। उनके कपड़े गुब्बारे-से फूल गये थे। सागर बूंदों के शोर से थरथराने लगा। फुटपाथ पर सोये लोग अपना सामान उठाकर सड़क के उस पार की इमारतों में भाग रहे थे। और वे दोनों अक्टूबर के उस आखिरी सप्ताह में में मरीन ड्राइव पर भीग रहे थे।
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कमेंट (4)
- Meera Pathak
हाग्वह huhuhugh
1 likes - Meera Pathak
kani bhi nahi
2 likes - Deepti Mittal
slow start
2 likes - Nilam
its good
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