एपिसोड 1

उस नौकरी को वापस पाने का कोई सवाल नहीं था, लेकिन हमें किसी दूसरी नौकरी की उम्मीद थी। बीच के इन कुछ दिनों के लिए यह नया-नया आवारापन था, कुछ पैसे थे, घरों में झूठ बोलने और निभाने का खट्टा-मीठा स्वाद था, भरपूर जवानी थी और शहर में भरी पड़ी लड़कियाँ थीं। 

ग्यारहवाँ दिन

दृश्य के पश्चिमी सीमाने एक साथ ढेर सारी साँझ जमा हो गई थी। लंबी-चौड़ी सड़कें, बुसी हुईं मूर्तियाँ, स्ट्रीट पोस्ट और ऊँची मेहराबों वाली प्राचीनता का कुहरीला स्वाद लिए उलँग इमारतें जैसे पीले फ्रॉक और बाबासूट पहिनकर सँझिया के सैर-सपाटे को निकली हों। टुकड़ा आसमान में सूरज कहीं नहीं था, लेकिन हवा में सूरज के बुझे हुए ठंडे चूरे तिर रहे थे। 

पेड़ों के धुएँले हरे पर पीले का रोंगन चढ़ा था, जैसे देखने वाले ने अपनी आँखों पर पीले काँच के चश्मे मढ़ा रखे हों। पता नहीं क्यों इन कुछ क्षणों चारों तरफ पीले भूरे व धूसर की विस्तीर्ण और हताश दूरियों के बीच मन किन्हीं अपरिचित उदासियों में डूबने लगता है। न जाने कैसी एक कुदरती चीज की कमी गले में फाँस की तरह बार-बार हूक उठाती सालने लगती है। मुँह अधूरेपन के फेनिल स्वाद से भर-भर जाता है।

''क्या तुमने जैक लंडन को पढ़ा है?'' यह मेंहदीरत्ता था। धूपछाँही चश्मे के उस पार उसकी मिचमिचाती आँखें थीं, बियर की बोतलें थीं, विक्टोरिया मेमोरियल के सामने खुला मैदान था जहाँ हम बैठे थे, हवा थी, हवा में शाम के झुटपुटे गर्द थे जिनकी आड़ में हम बियर पी रहे थे और यह मैं था। बियर के तांबई नशे में हम यों थे कि एक झटके में यह साफ-साफ पकड़ पाना मुश्किल था कि हम किस तरफ थे। कि हम एक आसानी से मुस्करा सकते थे और उतनी ही आसानी से रो सकते थे। 

हँसने और रोने के बीच के बीहड़ कँटीले रास्ते गायब हो गए थे और दुनिया में जो भी था बहुत सहज था। हवा में अब भी मेंहदीरत्ता का सवाल खड़खड़ा रहा था जिसका मुझे जवाब देना था और मैं चुपचाप सिगरेट फूँक रहा था। मेंहदीरत्ता अब तक मुझे घूरे जा रहा था। एक पल के लिए लगा कि यदि मैं इसी तरह बिला हरकत बैठा रहूँ तो वह सदियों तक घूरता चला जाएगा। 

एक जरा सी हरकत उसके लिए काफी होगी, सोचकर मैंने सिगरेट के दो छल्ले बनाए और मुस्कराता हुआ चश्मे के पार उसकी आँखों को देखने लगा। पता नहीं उसने क्या समझा, लेकिन इतने भर से वह आश्वस्त हो गया। मुझे लगा, अबकी वह पूछेगा क्या मैंने निर्मल वर्मा या मिलान कुंदेरा को पढ़ा है!

बियर की अंतिम बूँदें हलक से उतारने के बाद हमें लग रहा था कि एक-दूसरे से पूछने और बताने के लिए हमारे पास बहुत कुछ है। हम किसी भी सवाल का कोई भी जवाब दे सकते थे। कुछ भी मायने नहीं रखता। हम एक बहाव में थे और शब्द अपनी न्यूनतम उत्तेजना के ताप में बिहस रहे थे। 

कुछ इस हद तक कि शब्दों पर से स्वाद की परतें उखड़ गई थीं। बोलने के नैरंतर्य में भी शब्दों के टुकड़े एक-दूसरे से जुदा और संपूर्ण थे। यद्यपि पीने के बाद मैं अपने आपको थोड़ा संयत रखने की कोशिश करता हूँ। कुछ भी कहते हुए जैसे किसी ऊँची तार पर चल रहा हूँ। मेंहदीरत्ता अक्सर बहक जाता है। एक उतावली बड़बड़ उसे घेर लेती है।

आज यह ग्यारहवाँ दिन है। बिना कोई ठोस वजह बताए एक साथ तीन महीने का वेतन देकर नौकरी से हमारी छुट्टी कर दी गई थी। तब से हम खाली हैं। हमारे साथ बीस लोग और थे। बाकी के लोग फिलहाल कहाँ क्या कर रहे हैं, हमें पता नहीं। मैं और मेंहदीरत्ता पहले की तरह ही घर से ऐन साढ़े नौ बजे निकलकर किसी तयशुदा जगह पर मिलते हैं और तब शुरू होती है हमारी अंतहीन भटकन। एक जगह से दूसरी जगह, दूसरी से फिर तीसरी। 

दोपहर में कहीं बैठकर अपना-अपना लंचबॉक्स निकालकर खा लेते हैं और शाम को घर लौटते हुए कुछ इस तरह दिखने का प्रयास करते हैं मानो दिन भर के काम ने हमें बुरी तरह थका दिया है। मेरे परिवार के लोग बिहार में रहते हैं। बेहाला के फ्लैट में मैं अकेले ही रहता आया हूँ, सो मेरी कोई खास दिक्कत नहीं है। लेकिन मेंहदीरत्ता ने अभी तक अपने घर में कुछ नहीं बताया। 

उसे पूरी उम्मीद है कि जब तक जेब पूरी तरह खाली नहीं हो जाती, कोई न कोई नौकरी वह तलाश ही लेगा। अपने जाने वह भरपूर प्रयास भी कर रहा है, लेकिन एक नौकरी के रहते ही कोई दूसरी नौकरी खोज लेना जितना आसान होता है, उतना नौकरी के छूट जाने के बाद नहीं रह जाता। मुश्किल यह है कि किसी जान-पहिचान वाले से इस बाबत वह कुछ कह भी नहीं सकता। भेद खुल जाने का डर है।

'अब हम बेकार हैं' - उदासियों में लिपटा हुआ यह एक ऐसा सच था जिसे हम इतनी जल्दी स्वीकार नहीं करना चाहते। एक अच्छे-भले नौकरीपेशा होने की जो गर्मी होती है, वह हममें अभी चुकी नहीं थी। यद्यपि उस नौकरी को वापस पाने का कोई सवाल नहीं था, लेकिन हमें किसी दूसरी नौकरी की उम्मीद थी। बीच के इन कुछ दिनों के लिए यह नया-नया आवारापन था, कुछ पैसे थे, घरों में झूठ बोलने और निभाने का खट्टा-मीठा स्वाद था, भरपूर जवानी थी और शहर में भरी पड़ी लड़कियाँ थीं। 

कितनी एक मजेदार बात है कि इन लड़कियों को पता नहीं था कि हमसे हमारी नौकरियाँ छीन ली गई हैं। हम बेखटके उन्हें देखकर मुस्करा सकते हैं, उनके लिए सीटियाँ बजा सकते हैं, फिकरे कस सकते हैं और एकाध से नजरें मिल जाने पर आँख भी मार सकते हैं। मेंहदीरत्ता की आवाज अच्छी है। वह गाता है - 'पतली कमर चिकना बदन तिरछी नजर है, मस्ती भरी तेरी बाली उमर है!' मैं चिल्लाता हूँ - 'जुम्मा चुम्मा दे दे...!'

एक दिन हम बाल-बाल बचे। एल्गिन रोड की घटना है। फ्लाई-ओवर बन रहा था। सड़क के किनारे डामर के टिन, बड़े-बड़े रोलर, लोहे के गार्डर, बीम, रॉड, बालू की बोरियाँ आदि जमाकर रखी गई थीं। वहीं कहीं काली बजरी की एक ढेर पर हम बैठे थे। चारों तरफ धूल और शोर। कुछ देर पहले हमारे बीच पेरिजाद जोराबियन और राहुल बोस के बारे में बातें हुई थीं और फिलहाल हम चुप थे। इतने में ऐन हमारे सामने से एक लड़की गुजरी। बजरी की जिस ढेर पर हम बैठे थे, उसके आगे कीचड़ था। 

वह लड़की एक हाथ से नाक पर रूमाल रखे और दूसरे से अपनी साड़ी को हल्के सँभाले कीचड़ से बचती हुई निकल रही थी। उसकी पिंडलियाँ गोरी और खूबसूरत थीं। पहिचान की एक लहर-सी दिमाग में झनझनाई। उसे ठीक से चीन्हने के लिए मैंने निगाहें उठाईं, मगर आँखें उसकी देह पर किसी एक जगह स्थिर नहीं रह पाईं। एकदम आखिरी पल, जब वह लगभग नाक की सीध में थी, मेरी स्मृति ने गफलत के उथले गड्ढे से छलाँग लगाई। यह तो लिपि है। हाँ, वही है। 

मैंने नजरें घुमा लेनी चाहीं, मगर उन पर मेरा वश न था। उसने मुझे नहीं देखा। वह चली जा रही थी। ''यदि उसने हमें यहाँ इस तरह बेमतलब बैठे देख लिया होता तो?'' मैंने मेंहदीरत्ता से पूछा। उसने हँसकर कहा, ''कह देते कि हम फ्लाई-ओवर बनाना सीख रहे हैं और यह आटा गूँथने की तरह एक आसान काम है।''

''सुनो, मजाक की बात नहीं है यह।'' मैंने उसे झिड़का। ''आखिर हमें इस तरह भी तो एक बार सोचकर देख लेना होगा कि यदि उसने हमें देख लिया होता तो?''

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