एपिसोड 1
एक शहर सरयू नदी के किनारे था जहां एक पुरानी मस्जिद थी जो बाद में तोड़ दी गयी। दूसरे शहर में बैंक की एक छोटी ब्रांच में मेरी पहली पोस्टिंग थी। एक भीगती रात में, चाकू की तरह काटती ठंडी हवाओं के बीच, एक टप टप टपकती ट्रेन में अपने शहर से मेरा सफर शुरू हुआ।
मैं लफ्फाज
अच्छा, आज तुम्हें लफ्फाज की कहानी सुनाता हूं, एक सच्ची कहानी। बहुत साल हो गये, शायद बीस या पचीस या उससे भी ज़्यादा, जब से मैं उसे जानता था, और इधर अरसे से उसे नहीं देखा, फिर भी उसकी याद आती है तो किसी अज्ञात भय से कांप जाता हूं। ‘जानता था’ यह कहना दरअसल बहुत अधिक है। इतने बरसों में मेरी उससे मुलाकातें ही कितनी हुईं, बस गिनती की दो या तीन, शायद चार, वह भी बहुत छोटी सी।
इतने बरसों तक मैं कुछ पूछने या जानने के लिये उसका पीछा करता रहा, लेकिन कभी उसके करीब नहीं पहुंच पाया। जब भी उससे मिलने का क्षण आया, वह चकमा देकर दूर निकल गया। उसका असली नाम कुछ और रहा होगा लेकिन वह मुझे याद नहीं। मेरे जेहन में उसका यही नाम दर्ज है... लफ्फाज, और इस कहानी में मैं उसे यही कहूंगा।
वह खुद अपना परिचय यही कह कर देता था कि लफ्फाज हूं मैं। एक बहुत चौड़ी, देर तक टिकी मुस्कराहट के साथ लपक कर हाथ मिलाते हुए- जी, मैं लफ्फाज, और आप? वह चश्मे के पीछे से, या चश्मे को नाक के छोर पर टिका कर उसके ऊपर से, या चश्मा उतार कर उसकी कमानी चबाते हुए, कुछ देर या काफी देर, आपको गौर से देखता था, उसके चेहरे पर मुस्कराहट यकलख्त आती थी, यकलख्त जाती थी। खटाक से मुस्कराना, खटाक से सीरियस।
यह इतना डरावना लगता था कि कोई भी कांप जाये। उसके पास बेशुमार लफ्ज थे, लफ्ज ही लफ्ज, जो साफ उच्चारण और सटीक आरोहों अवरोहों में, उसी डरावनी मुस्कान या गर्वीले गुस्से के साथ, जैसी ज़रूरत हो, उसके मुंह से इस तरह निकलते थे जैसे सांपों की पांत, वह बिल्कुल सही जगहों पर बलाघात देते और सही जगहों पर खामोशियां अख्तियार करते, बोलता जाता था, बोलता ही चला जाता था, घंटों और दिन भर लगातार। तो इससे क्या, शायद तुम कहोगे, भला लफ्जों को कौन नहीं बरतता, और इस दुनिया का काम लफ्जों से ही तो चलता है।
हां, बहुत से लोग बातूनी होते हैं, अपनी ही आवाज़ की गूंज पर फिदा, न बोलें तो मर जायें, मगर यह उनका सिर्फ स्वभाव होता है, किसी तरह की खामी नहीं, बल्कि इसके उलट अधिकतर तो वे ऐसा शफ्फाक प्याला होते हैं जिसमें से इंसानियत का अर्क छलकता है, अजनबियों के सामने भी एक खुली हुई किताब, हर एक के हमेशा मददगार। नहीं यार, लफ्फाज के मायने अगर तुमने सिर्फ यही समझे तो तुमने उसे समझा ही नहीं। लफ्फाज और बातूनी, दोनों में जमीन आसमान का फर्क होता है।
लफ्फाज का हमेशा, हर जगह बातूनी होना ज़रूरी नहीं होता। बेशक वह बहुत बोलता है मगर बाज दफे लंबी मुद्दत तक चुप्पी के गर्त में पड़ा रह सकता है, इस तरह जैसे कहीं हो ही नहीं। उस दौरान वह कुछ सोचता, हिसाब या अंदाज लगाता, अपने लफ्जों को चमकदार बनाता, मन के थियेटर में कुछ रिहर्सल करता, कुछ वाक्यों को बार बार दोहराता, अपनी अदायगी को बेनुक्स करता है। और अपना लफ्फाज तो बाकायदा नोट्स बनाया करता था, किताबें पढ़ता था। दरअसल .....।
छोड़ो यह सब। सीधे कहानी पर आता हूं।
वह छोटा सा शहर था। एक नहीं, बल्कि दो शहर आसपास, एक दूसरे से सटे हुए। एक शहर सरयू नदी के किनारे था जहां एक पुरानी मस्जिद थी जो बाद में तोड़ दी गयी। दूसरे शहर में बैंक की एक छोटी ब्रांच में मेरी पहली पोस्टिंग थी। एक भीगती रात में, चाकू की तरह काटती ठंडी हवाओं के बीच, एक टप टप टपकती ट्रेन में अपने शहर से मेरा सफर शुरू हुआ।
स्टेशन की डबडबाती रोशनियां, उनके बीच हाथ हिलाते दोस्त, उनसे कुछ हट कर खड़ा मेरा छोटा भाई, पीछे छूट गये तो रुलाई आने लगी। वह बहुत लंबी, काली रात मुश्किल से बीती। जब सुबह आंखें खुलीं, उस वक्त मौसम बदला हुआ था। एक बेचैन करने वाली गर्मी थी, उमस भी। मैंने उठकर पूरे डिब्बे में एक चक्कर लगाया, देखा गिनती के लोग थे, खामोश बुतों की मानिंद खिड़कियों के परे नागफनियों के झुंडों और निर्जन गांवों को अपलक ताकते हुए। खड़क खड़क आवाज़ के साथ गरमी बढ़ती जा रही थी। मेरा मन घबराने लगा। ट्रेन मुझे कहां ले जा रही थी।
मेरा शहर कहीं हवा में विलीन हो गया था। लोग, दोस्त पीछे छूट गये। पेड़, मच्छर, आत्मायें सब कुछ पीछे। सफर इतना लंबा लग रहा था कि जैसे खत्म ही नहीं होगा। फिर उस छोटे से शहर का तपता हुआ स्टेशन आया जहां मुझे अगले कई बरस बिताने थे और जहां लफ्फाज से मेरी मुलाकात होनी थी।
अगस्त की दोपहर में स्टेशन का फर्श धूप में भभक रहा था। मैंने होल्डाल नीचे फेंका लेकिन चमड़े की अटैची फेंकते हुए ठिठक गया। उसमें वैद्यनाथ की आंवले के तेल की एक नयी शीशी थी जो टूटती तो कपड़े खराब हो जाते। मैं सावधानी से एक हाथ से डिब्बे का हत्था और दूसरे से अटैची पकड़े धीरे-धीरे नीचे उतरा। फर्श पर मेरे पैर रखने से पहले ही रेलगाड़ी रेंगने लगी थी।
लफ्फाज, यह नाम सबसे पहले बैंक में ही सुना। इस नाम का एक लोन एकाउंट था और उससे संबंधित फाइल जिसमें सारे कागजात इसी नाम से थे। हाईस्कूल और इंटर की मार्कशीट्स, हाईस्कूल की सनद, बी ए प्रीवियस की मार्कशीट और एक मकान की रजिस्ट्री और एक स्कूल का नक्शा। श्री लफ्फाज, बस इतना ही। बी ए फाइनल की मार्कशीट पता नहीं क्यों नहीं थी।
वह शाखा का एक डिफाल्टर था, ‘विलफुल डिफाल्टर’ यानी उनमें से एक जो लोन लेने के बाद लापता हो जाते हैं। न किस्त चुकाते हैं न शक्ल दिखाते हैं- यही नहीं उस पते से भी गायब हो जाते हैं जो उन्होंने बैंक में लिखाया होता है, बिना कोई निशान पीछे छोड़े। फाइल में जो फोन नंबर होता है, जाहिर है कि वह भी फर्जी निकलता है।
मैनेजर किसी मातहत के साथ उस पते पर पहुंचता है तो पता चलता है कि वहां बरसों से कोई और रहता है और लोन लेने वाला, उसका तो वहां किसी ने नाम भी नहीं सुना। लेकिन लोन देते वक्त मैनेजर जब फील्ड विजिट पर गया था तो वह शख्स उसे वहीं मुस्कराता हुआ मिला था, उसी गली, उसी मकान, उसी बैठक, उसी सोफे, उसी कोने में, दीवार पर टंगी उन्हीं स्वामी विवेकानंद की तस्वीर की पृष्ठभूमि में। पास के इसी दरवाजे से तो उसकी मोटी, मस्त, खुशमिजाज बीवी एक चुभने वाले पीले परिधान में इठलाती चाल से भीतर आयी थी। उसके पीछे एक नौकरानी थी, खरामा खरामा एक ट्राली खिसका कर भीतर लाती हुई जिस पर एक रंग बिरंगी टीकोजी में लिपटी चाय थी और कुछ नाश्ता।
- जी? मकान का निवासी कहता है जो एक दुकानदार है। - टिकोजी विकोजी हम क्या जानें। न हमारे घर कोई ट्राली है। हां, चाय जरूर पिलायेंगे, बैठिये।
- तो फिर वह शख्स? मैनेजर का सिर चकराने लगता है।
- कौन? दुकानदार कहता है। - यह तो हमारे बाप दादों का मकान है जी।
मैनेजर एक डूबती, सवालिया निगाहों से अपने मातहत को देखता और घबरायी आवाज़ में कुछ अस्फुट कहता है। वह जानना चाहता है सारी चीजों के मायने। लेकिन मातहत जो उससे बीस साल छोटा है और इस नौकरी में नया, दुनियादारी के मामले में शून्य, उससे क्या कहे, वह खुद सन्नाटे में है। ज़िन्दगी के इस पहले आघात को जज्ब करने में उसे वक्त लगेगा। वह सिर्फ मुड़कर मैनेजर को उसकी आंखों में देखता और खामोश, बुझी निगाहों से ही कहता है- एलीमेंटरी, डॉक्टर वाटसन, वह एक धोखेबाज था, जो भी था। एक इम्पोस्टर या फ्रॅाडस्टर या कॉनमैन। यू हैव बीन ड्यूप्ड, मैनेजर।
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