एपिसोड 1

दोनों फिर आगे बढ़ीं, बीस-पचीस कदम और जाकर सुरंग खतम हुई और दोनों एक दालान में पहुंचीं। यहां एक चिराग जल रहा था, कम-से-कम सेर भर तेल उसमें होगा, रोशनी चारों तरफ फैली हुई थी और यहां की हर एक चीज साफ दिखाई दे रही थी।

पलायन की ओर 

अब हम अपने किस्से को फिर उसी जगह से शुरू करते हैं जब रोहतासगढ़ किले के अंदर लाली को साथ लेकर किशोरी सेंध की राह उस अजायबघर में घुसी जिसका ताला हमेशा बंद रहता था और दरवाजे पर बराबर पहरा पड़ा रहता था।

हम पहले लिख आए हैं कि जब लाली और किशोरी उस मकान के अंदर घुसीं उसी समय कई आदमी उस छत पर चढ़ गये और ''धरो, पकड़ो, न जाने पावे!'' की आवाज लगाने लगे। लाली और किशोरी ने भी यह आवाज सुनी। किशोरी तो डरी मगर लाली ने उसी समय उसे धीरज दिया और कहा, ''तुम डरो मत, ये लोग हमारा कुछ भी नहीं कर सकते।''

लाली और किशोरी छत की राह जब नीचे उतरीं तो एक छोटी-सी कोठरी में पहुंचीं जो बिल्कुल खाली थी। उसके तीन तरफ दीवार में तीन दरवाजे थे, एक दरवाजा तो सदर था जिसके आगे बाहर की तरफ पहरा पड़ा करता था, दूसरा दरवाजा खुला हुआ था और मालूम होता था किसी दालान या कमरे में जाने का रास्ता है।

लाली ने जल्दी में केवल इतना ही कहा कि 'ताली लेने के लिए इसी राह से एक मकान में मैं गई थी' और तीसरी तरफ एक छोटा-सा दरवाजा था जिसका ताला किवाड़ के पल्ले ही में जड़ा हुआ था। लाली ने वही ताली जो इस अजायबघर में से ले गई थी लगाकर उस दरवाजे को खोला, दोनों उसके अंदर घुसीं, लाली ने फिर उस ताली से मजबूत दरवाजे को अंदर की तरफ से बंद कर लिया, ताला इस ढंग से जड़ा हुआ था कि वही ताली बाहर और भीतर दोनों तरफ लग सकती थी।

लाली ने यह काम बड़ी फुर्ती से किया, यहां तक कि उसके अंदर चले जाने के बाद तब टूटी हुई छत की राह वे लोग जो लाली और किशोरी को पकड़ने के लिए आ रहे थे नीचे इस कोठरी में उतर सके। भीतर से ताला बंद करके लाली ने कहा, ''अब हम लोग निश्चिंत हुए, डर केवल इतना ही है कि किसी दूसरी राह से कोई आकर हम लोगों को तंग न करे",

"पर जहां तक मैं जानती हूं और जो कुछ मैंने सुना है उससे तो इस मकान में जहां-जहां लाली ने ताला खोला उसी ताली और इसी ढंग से खोला। विश्वास है कि इस अजायबघर में आने के लिए और कोई राह नहीं है।''

लाली और किशोरी अब एक ऐसे घर में पहुंचीं जिसकी छत बहुत ही नीची थी, यहां तक कि हाथ उठाने से छत छूने में आती थी। यह घर बिल्कुल अंधेरा था। लाली ने अपनी गठरी खोली और सामान निकालकर मोमबत्ती जलाई।

मालूम हुआ कि यह एक कोठरी है जिसके चारों तरफ की दीवार पत्थर की बनी हुई तथा बहुत ही चिकनी और मजबूत है। लाली खोजने लगी कि इस मकान से किसी दूसरे मकान में जाने के लिए रास्ता या दरवाजा है या नहीं।

जमीन में एक दरवाजा बना हुआ दिखा जिसे लाली ने खोला और हाथ में मोमबत्ती लिए नीचे उतरी। लगभग बीस-पचीस सीढ़ियां उतरकर दोनों एक सुरंग में पहुंचीं जो बहुत दूर तक चली गई थी। ये दोनों लगभग तीन सौ कदम ही गई होंगी कि यह आवाज दोनों के कानों में पहुंची -

''हाय, एक ही दफे मार डाल, क्यों दुख देता है।''

यह आवाज सुनकर किशोरी कांप गई और उसने रुककर लाली से पूछा, ''बहिन, यह आवाज कैसी है आवाज बारीक है और किसी औरत की मालूम होती है।''

लाली - मुझे मालूम नहीं कि यह आवाज कैसी है और न इसके बारे में बूढ़ी मांजी ने मुझे कुछ कहा ही था।

किशोरी - मालूम पड़ता है कि किसी औरत को कोई दुख दे रहा है, कहीं ऐसा न हो कि वह हम लोगों को भी सतावे, हम दोनों का हाथ खाली है, एक छुरा तक पास में नहीं।

लाली - मैं अपने साथ दो छुरे लाई हूं, एक अपने वास्ते और एक तेरे वास्ते। (कमर से एक छुरा निकालकर और किशोरी के हाथ में देकर) ले एक तू रख।

मुझे खूब याद है, एक दफे तूने कहा था कि मैं यहां रहने की बनिस्बत मौत पसंद करती हूं, फिर क्यों डरती है देख मैं तेरे साथ जान देने को तैयार हूं।

किशोरी - बेशक मैंने ऐसा कहा था और अब भी कहती हूं, चलो बढ़ो अब कोई हर्ज नहीं, छुरा हाथ में है और ईश्वर मालिक है।

दोनों फिर आगे बढ़ीं, बीस-पचीस कदम और जाकर सुरंग खतम हुई और दोनों एक दालान में पहुंचीं। यहां एक चिराग जल रहा था, कम-से-कम सेर भर तेल उसमें होगा, रोशनी चारों तरफ फैली हुई थी और यहां की हर एक चीज साफ दिखाई दे रही थी।

इस दालान के बीचोंबीच एक खंभा था और उसके साथ एक हसीन, नौजवान और खूबसूरत औरत जिसकी उम्र बीस वर्ष से ज्यादे न होगी बंधी हुई थी, उसके पास ही छोटी-सी पत्थर की चौकी पर साफ और हल्की पोशाक पहिरे एक बुड्ढा बैठा हुआ छुरे से कोई चीज काट रहा था, इसका मुंह उसी तरफ था जिधर लाली और किशोरी खड़ी वहां की कैफियत देख रही थीं।

उस बूढ़े के सामने भी एक चिराग जल रहा था जिससे उसकी सूरत साफ-साफ मालूम होती थी। उस बुड्ढे की उम्र लगभग सत्तर वर्ष के होगी, उसकी सफेद दाढ़ी नाभि तक पहुंचती थी और दाढ़ी तथा मूंछों ने उसके चेहरे का ज्यादा भाग छिपा रखा था।

उस दालान की ऐसी अवस्था देखकर किशोरी और लाली दोनों हिचकीं और उन्होंने चाहा कि पीछे की तरफ मुड़ चलें मगर पीछे फिरकर कहां जाएं इस विचार ने उनके पैर उसी जगह जमा दिये।

उन दोनों के पैर की आहट इस बुड्ढे ने भी पाई, सिर उठाकर उन दोनों की तरफ देखा और कहा - ''वाह-वाह, लाली और किशोरी भी आ गईं। आओ-आओ, मैं बहुत देर से राह देख रहा था।''

कंचनसिंह के मारे जाने और कुंवर इंद्रजीतसिंह के गायब हो जाने से लश्कर में बड़ी हलचल मच गई। पता लगाने के लिए चारों तरफ जासूस भेजे गये। ऐयार लोग भी इधर-उधर फैल गये और फसाद मिटाने के लिए दिलोजान से कोशिश करने लगे।

राजा वीरेंद्रसिंह से इजाजत लेकर तेजसिंह भी रवाना हुए और भेष बदलकर रोहतासगढ़ किले के अंदर चले गये। किले के सदर दरवाजे पर पहरे का पूरा इंतजाम था मगर तेजसिंह की फकीरी सूरत पर किसी ने शक न किया।

साधू की सूरत बने हुए तेजसिंह सात दिन तक रोहतासगढ़ किले के अंदर घूमते रहे। इस बीच में उन्होंने हर एक मोहल्ला, बाजार, गली, रास्ता, देवल, धर्मशाला इत्यादि को अच्छी तरह देख और समझ लिया,

कई बार दरबार में भी जाकर राजा दिग्विजयसिंह और उसके दीवान तथा ऐयारों की चाल और बातचीत के ढंग पर ध्यान दिया और यह भी मालूम किया कि राजा दिग्विजयसिंह किस-किस को चाहता है, किस-किस की खातिर करता है, और किस-किस को अपना विश्वासपात्र समझता है।

इन सात दिन के बीच में तेजसिंह को कई बार चोबदार और औरत बनने की जरूरत पड़ी और अच्छे-अच्छे घरों में घुसकर वहां की कैफियत और हालत को भी देख-सुन आये। एक दफे तेजसिंह उस शिवालय में भी गये जिसमें भैरोसिंह और बद्रीनाथ ने ऐयारी की थी या जहां से कुंवर कल्याणसिंह को पकड़ ले गये थे।

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