एपिसोड 1

एकाएक रथ का गंभीर घोष सुनकर कोलाहल थम गया। जो जहां था चित्रखचित-सा खड़ा रह गया। सब उन्मुख हो परिषद्-प्रांगण की ओर बढ़ते हुए रथ की ओर देखने लगे। 

प्रवेश


मुज़फ़्फ़रपुर से पश्चिम की ओर जो पक्की सड़क जाती है, उस पर मुज़फ़्फ़रपुर से लगभग अठारह मील दूर 'वैसौढ़' नामक एक बिल्कुल छोटा-सा गांव है। उसमें अब तीस-चालीस घर भूमिहार ब्राह्मणों के और कुछ गिनती के घर क्षत्रियों के बच रहे हैं। गांव के चारों ओर कोसों तक खण्डहर, टीले और पुरानी टूटी-फूटी मूर्तियां ढेर की ढेर मिलती हैं, जो इस बात की याद दिलाती हैं कि कभी यहां कोई बड़ा भारी समृद्ध नगर बसा रहा होगा।

वास्तव में वहां, अब से कोई ढाई हज़ार वर्ष पूर्व एक विशाल नगर बसा था। आजकल जिसे गण्डक कहते हैं, उन दिनों उसका नाम 'सिही' था। आज यह नदी यद्यपि इस गांव से कई कोस उत्तर की ओर हटकर बह रही है; किन्तु उन दिनों यह दक्षिण की ओर इस वैभवशालिनी नगरी के चरणों को चूमती हुई दिधिवारा के निकट गंगा में मिल गई थी। इस विशाल नगरी का नाम वैशाली था। यह नगरी अति समृद्ध थी। उसमें 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार, 7777 आराम और 7777 पुष्करिणियां थीं। धन-जन से परिपूर्ण यह नगरी तब अपनी शोभा की समता नहीं रखती थी।

यह लिच्छवियों के वज्जी संघ की राजधानी थी। विदेह राज्य टूटकर यह वज्जी संघ बना था। इस संघ में विदेह, लिच्छवि, क्षात्रिक, वज्जी, उग्र, भोज, इक्ष्वाकु और कौरव ये आठ कुल सम्मिलित थे, जो अष्टकुल कहलाते थे। इनमें प्रथम चार प्रधान थे। विदेहों की राजधानी मिथिला, लिच्छवियों की वैशाली, क्षात्रिकों की कुण्डपुर और वज्जियों की कोल्लाग थी। वैशाली पूरे संघ की राजधानी थी। अष्टकुल के संयुक्त लिच्छवियों का यह संघव्रात्य संकरों का संघ था और इनका यह गणतन्त्र पूर्वी भारत में तब एकमात्र आदर्श और सामर्थ्यवान् संघ था, जो प्रतापी मगध साम्राज्य की उस समय की सबसे बड़ी राजनैतिक और सामरिक बाधा थी।

नगरी के चारों ओर काट का तिहरा कोट था, जिसमें स्थान-स्थान पर गोपुर और प्रवेश-द्वार बने हुए थे। गोपुर बहुत ऊंचे थे और उन पर खड़े होकर मीलों तक देखा जा सकता था। प्रहरीगण हाथों में पीतल के तूर्य ले इन्हीं पर खड़े पहरा दिया करते थे। आवश्यकता होते ही वे उन्हें बजाकर नगर को सावधान कर देते और प्रतिहार तुरन्त नगर-रक्षकों को संकेत कर देते। इसके बाद आनन-फानन सैनिक हलचल नगर के प्रकोष्ठों में दीखने लगती थी। सहस्रों भीमकाय योद्धा लोह-वर्म पहरे, शस्त्र-सज्जित, धनुष-बाण लिए, खड्ग चमकाते, चंचल घोड़ों को दौड़ाते प्राचीर के बाहरी भाग में आ जुटते थे।

वज्जी संघ का शासन एक राज-परिषद् करती थी, जिसका चुनाव हर सातवें वर्ष उसी अष्टकुल में से होता था। निर्वाचित सदस्य परिषद् में एकत्र होकर वज्जी-चेत्यों, वज्जी-संस्थाओं और राज्य-व्यवस्था का पालन करते थे। शिल्पियों और सेट्ठियों के नगर में पृथक् संघ थे। शिल्पियों के संघ श्रेणी कहाते थे, और प्रत्येक श्रेणी का संचालन उसका जेट्ठक करता था। जल, थल और अट्टवी के नियामकों की श्रेणियां पृथक् थीं। नगर में श्रेणियों के कार्यालय और निवास पृथक्-पृथक् थे। बाहरी वस्तुओं का क्रय-विक्रय भी पृथक्-पृथक् हट्टियों में हुआ करता था। परन्तु श्रेणियों का माल अन्तरायण में बिकता था। सेट्ठियों के संघ निगम कहाते थे। सब निगमों का प्रधान नगरसेट्ठि कहाता था और उसकी पद-मर्यादा राजनैतिक और औद्योगिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती थी। 

वत्स, कोसल, काशी और मगध साम्राज्य से घिरा रहने तथा श्रावस्ती से राजगृह के मार्ग पर अवस्थित रहने के कारण यह स्वतन्त्र नागरिकों का नगर उन दिनों व्यापारिक और राजनैतिक संघर्ष का केन्द्र बना हुआ था। देश-देश के व्यापारी, जौहरी, शिल्पकार और यात्री लोगों से यह नगर सदा परिपूर्ण रहता था। ‘श्रेष्ठिचत्वर' में, जो यहां का प्रधान बाज़ार था, जौहरियों की बड़ी-बड़ी कोटियां थीं, जिनकी व्यापारिक शाखाएं समस्त उत्तराखण्ड से दक्षिणापथ तक फैली हुई थीं। सुदूर पतित्थान से माहिष्मती, उज्जैन, गोनर्द, विदिशा, कौशाम्बी और साकेत होकर पहाड़ की तराई के रास्ते सेतव्य, कपिलवस्तु, कुशीनारा, पावा, हस्तिग्राम और भण्डग्राम के मार्ग से बड़े-बड़े सार्थवाह वैशाली में व्यापार स्थापित किए हुए थे। पूर्व से पश्चिम का रास्ता नदियों द्वारा था। गंगा में सहजाति और यमुना में कौशाम्बी-पर्यन्त नावें चलती थीं। वैशाली से मिथिला के रास्ते गान्धार को, राजगृह के रास्ते सौवोर को, तथा भरुकच्छ के रास्ते बर्मा को और पतित्थान के रास्ते बेबिलोन तथा चीन तक भी भारी-भारी सार्ववाह जल और थल पर चलते रहते थे। ताम्रपर्णी, स्वर्णद्वीप, यवद्वीप आदि सुदूर-पूर्व के द्वीपों का यातायात चम्पा होकर था।

श्रेष्ठिचत्वर में बड़े-बड़े दूकानदार स्वच्छ परिधान धारण किए, पान की गिलौरियां कल्लों में दबाए हंस-हंसकर ग्राहकों से लेन-देन करते थे। जौहरी पन्ना, लाल, मूंगा, मोती, पुखराज, हीरा और अन्य रत्नों की परीक्षा तथा लेन-देन में व्यस्त रहते थे। निपुण कारीगर अनगढ़ रत्नों को शान पर चढ़ाते, स्वर्णाभरणों को रंगीन रत्नों से जड़ते और रेशम की डोरियों में मोती गूंथते थे। गन्धी लोग केसर के थैले हिलाते, चन्दन के तेल में गन्ध मिलाकर इत्र बनाते थे, जिनका नागरिक खुला उपयोग करते थे। रेशम और बहुमूल्य महीन मलमल के व्यापारियों की दूकान पर बेबिलोन और फ़ारस के व्यापारी लम्बे-लम्बे लबादे पहने भीड़ की भीड़ पड़े रहते थे। नगर की गलियां संकरी और तंग थीं, और उनमें गगनचुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी थीं, जिनके अंधेरे और विशाल तहखानों में धनकुबेरों की अतुल सम्पदा और स्वर्ण-रत्न भरे पड़े रहते थे।

संध्या के समय सुन्दर वाहनों, रथों, घोड़ों, हाथियों और पालकियों पर नागरिक नगर के बाहर सैर करने राजपथ पर आ निकलते थे। इधर-उधर हाथी झूमते बढ़ा करते थे और उनके अधिपति रत्नाभरणों से सज्जित अपने दासों तथा शरीर-रक्षकों से घिरे चला करते थे।

दिन निकलने में अभी देर थी। पूर्व की ओर प्रकाश की आभा दिखाई पड़ रही थी। उसमें वैशाली के राजप्रासादों के स्वर्ण-कलशों की धूमिल स्वर्णकांति बड़ी प्रभावोत्पादक दीख पड़ रही थी। मार्ग में अभी अंधेरा था। राजप्रासाद के मुख्य तोरण पर अभी प्रकाश दिख रहा था। पार्श्व के रक्षागृहों में प्रहरी और प्रतिहार पड़े सो रहे थे। तोरण के बीचोंबीच एक दीर्घकार्य मनुष्य भाले पर टेक दिए ऊंघ रहा था। 

धीरे-धीरे दिन का प्रकाश फैलने लगा। राजकर्मचारी और नागरिक इधर-उधर आने-जाने लगे। किसी-किसी हर्म्य से मृदुल तंतुवाद्य की झंकार के साथ किसी आरोह-अवरोह की कोमल तान सुनाई पड़ने लगी। प्रतिहारों का एक नया दल तोरण पर आ पहुँचा। उसके नायक ने आगे बढ़कर भाले के सहारे खड़े ऊंघते मनुष्य को पुकारकर कहा- “सावन्त् महानामन्, सावधान हो जाओ और घर जाकर विश्राम करो।” महानामन् ने सजग होकर अपने दीर्घकाय शरीर का और भी विस्तार करके एक ज़ोर की अंगड़ाई ली और “तुम्हारा कल्याण हो नायक” कहकर वह अपना भाला पृथ्वी पर टेकता हुआ तृतीय तोरण की ओर बढ़ गया। 

सप्तभूमि राजप्रासाद के पश्चिम की ओर प्रासाद का उपवन था, जिसकी देखरेख नायक महानामन् के ही सुपुर्द थी। यहीं वह अपनी प्रौढ़ा पत्नी के साथ अड़तीस वर्ष से अकेला एकरस आंधी-पानी, सर्दी-गर्मी में रहकर गण की सेवा करता था। 

अभी भी वह नींद में ऊंघता हुआ झूम-झूमकर चला जा रहा था। अभी प्रभात का प्रकाश धूमिल था। उसने आगे बढ़कर, आम्रकुंज में एक आम्रवृक्ष के नीचे, एक श्वेत वस्तु पड़ी रहने का भान किया। निकट जाकर देखा, एक नवजात शिशु स्वव्छ वस्त्र में लिपटा हुआ अपना अंगूठा चूस रहा है। आश्चर्यचकित होकर महानामन् ने शिशु को उठा लिया। देखा - कन्या है। उसने कन्या को उठाकर ह्रदय से लगाया और अपनी स्त्री को वह कन्या देकर कहा- “देखाे, आज इस प्रकार हमारे जीवन की एक पुरानी साध मिटी।”

और वह उसी आम्र कानन में उस एकाकी दम्पती की आंखों के आगे शशि-किरण की भांति बढ़ने लगी। उसका नाम रखा गया - “अम्बपाली”, उसी आम्र वृक्ष की स्मृति में, जहां से उसे पाया गया था। 

***

ग्यारह बरस बाद! वैशाली के उत्तर-पश्चिम पचीस-तीस कोस पर अव्यवस्थित एक छोटे-से ग्राम में एक वृद्ध अपने घर के द्वार पर प्रात:काल के समय दातुन कर रहा था। पैरों की आहट सुनकर उसने पीछे की ओर देखा। चम्पक-पुष्प की कली के समान ग्यारह वर्ष की एक अति सुन्दर बालिका, जिसके घुंघराले बाल हवा में लहरा रहे थे, दौड़ती हुई बाहर आई, और वृद्ध को देखकर उससे लिपटने के लिए लपकी, किन्तु पैर फिसलने से गिर गई। गिरकर रोने लगी। वृद्ध ने दातुन फेंक, दौड़कर बालिका को उठाया, उसकी धूल झाड़ी और उसे ह्रदय से लगा लिया। बालिका ने रोते-रोते कहा- “बाबा, देखा है तुमने रोहण का वह कंचुक? वह कहता है, तेरे पास नहीं है ऐसा। वैशाली की सभी लड़कियां वैसा ही कंचुक पहनती हैं, मैं भी वैसा ही कंचुक लूंगी बाबा!”

वृद्ध की आंखों में पानी और होंठों पर हास्य आया। उसने कहा- “अच्छा, अच्छा मैं तुझे वैशाली से वैसा ही कंचुक मंगा दूंगा बेटी।”

“पर बाबा, तुम्हारे पास दम्म कहां हैं? वैसा वढ़िया चमकीला कंचुक छः दम्म में आता है, जानते हो?”

“हां-हां, जानता हूं।”

वृद्ध की भृकुटि कुंचित हुई और ललाट पर चिन्ता की रेखा पड़ गई। वृद्ध की पत्नी को मरे आठ साल बीत चुके थे। उसके बाद कन्या की परिचर्या में बाधा पड़ती देख सावन्त महानामन् राजसेवा त्यागकर अपने ग्राम में आ कन्या की सेवा-शुश्रूषा में अबाध रूप से लगे रहते थे। अम्बपाली को उन्होंने इस भांति पाला था जैसे पक्षी चुग्गा देकर अपने शिशु को पालता है। अब उनकी छोटी-सी कमाई की क्षुद्र पूंजी यत्न से खर्च करने पर भी समाप्त हो गई थी। यहां तक कि पत्नी की स्मृतिरूप जो दो-चार आभरण थे, वे भी एक-एक करके उसकी उदर-गुहा में पहुंच चुके थे! अब आज जैसे उसने देखा- उसके प्राणों की पुतली यह बालिका जीवन में आगे बढ़ रही है, उसकी अभिलाषाएं जाग्रत हो रही हैं और भी जाग्रत होंगी। यही सोचकर वृद्ध महानामन् चिन्तित हो उठे। किन्तु उन्होंने हंसकर तड़ातड़ तीन-चार चुम्बन बालिका के लिये और गोद से उतारकर कहा- “वैसा ही बढ़िया कंचुक ला दूंगा बेटी!”

बालिका खुश होकर तितली की भांति घर में भाग गई और वृद्ध की आंखों से दो-तीन बूंद गर्म आंसू टपक पड़े। वे चिन्तित भाव से बैठकर सोचने लगे- एक बार फिर वैशाली चलकर पुरानी नौकरी की याचना की जाए। वृद्ध का बाहुबल थक चुका था किन्तु क्या किया जाए। कन्या का विचार सर्वोपरि था, परन्तु वृद्ध के चिन्तित होने का केवल यही कारण न था। लाख वृद्ध होने पर भी उसकी भुजा में बल था- बहुत था। पर उसकी चिन्ता थी- बालिका का अप्रतिम सौन्दर्य। सहस्राधिक बालिकाएं भी क्या उस पारिजात कुसुमतुल्य कुन्द-कलिका के समान हो सकती थीं? किस पुष्प में इतनी गन्ध, कोमलता और सौन्दर्य था? उन्हें भय था कि वज्जियों के उस विचित्र कानून के अनुसार उनकी कन्या विवाह से वंचित करके कहीं 'नगरवधू' न बना दी जाए। वज्जी गणतन्त्र में यह विचित्र कानून था कि उस गणराज्य में जो कन्या सर्वाधिक सुन्दरी होती थी, वह किसी एक पुरुष की पत्नी न होकर 'नगरवधू' घोषित की जाती थी और उस पर सम्पूर्ण नागरिकों का समान अधिकार रहता था। उसे जनपद कल्याणी' की उपाधि प्राप्त होती थी। कन्या के अप्रतिम सौन्दर्य को देखकर वृद्ध महानामन् वास्तव में इसी भय से राजधानी छोड़कर भागे थे, जिससे किसी की दृष्टि बालिका पर न पड़े। पर अब उपाय न था। महानामन् ने एक बार फिर वैशाली जाने का निर्णय किया।

फागुन बीत रहा था वैशाली में संध्या के दीये जल गए थे। नागरिक और राजपुरुष अपने-अपने वाहनों पर सवार घरों को लौट रहे थे। रंग-बिरंगे वस्त्र पहने बहुत-से स्त्री-पुरुष इधर से उधर आ-जा रहे थे। धीरे-धीरे यह चहल-पहल कम होने लगी और राजपथ पर अन्धकार बढ़ चला। नगर के दक्षिण प्रान्त में मद्य की एक दूकान थी। दूकान में दीया जल रहा था। उसके धीमे और पीले प्रकाश में बड़े-बड़े मद्यपात्र कांपते-से प्रतीत हो रहे थे। बूढ़ा दूकानदार बैठा कंघ रहा था। सड़कें अभी से सूनी हो चली थीं। अब कुछ असमृद्ध लोग ही इधर-उधर आ-जा रहे थे, जिनमें मछुए, कसाई मांझी, नाई, कम्मकार आदि थे। वास्तव में इधर इन्हीं की बस्ती अधिक थी।

वृद्ध महानामन् बालिका की उंगली पकड़े एक दूकान के आगे आ खड़े हुए। वह बहुत थक गए थे और बालिका उनसे भी बहुत अधिक। महानामन् ने थकित किन्तु स्नेह-भरे स्वर में कहा- “अन्त में हम आ पहुंचे, बेटी!”

“क्या यही नगर है बाबा? कहां, वैसे कंचुक यहां-कहां बिकते हैं ?”

“यह उपनगर है, नगर और आगे है। परन्तु आज रात हम यहीं कहीं विश्राम करेंगे। अब हमें चलना नहीं होगा। तुम तनिक यहीं बैठो, बेटी।” यह कहकर वृद्ध महानामन् और आगे बढ़कर दूकान के सामने आ गए। महानामन् का कण्ठ-स्वर सुनकर बूढ़ा दूकानदार ऊंघ से चौंक उठा था, अब उसने उन्हें सामने खड़ा देखकर कहा- 

“हां, हां, मेरी दुकान में सब-कुछ है, क्या चाहिए? कैसा पान करोगे- दाक्खा लाजा, गौड़ीय, माध्वीक, मैरेय?” फिर उसने घूरकर वृद्ध महानामन् को अन्धकार में देखा और उसे एक दीन भिक्षुक समझकर कहा- “किन्तु मित्र, मैं उधार नहीं बेचता। दम्म या कहापण पास हों तो निकालो।” वृद्ध महानामन् ने एक कदम आगे बढ़कर कहा- “तुम्हारा कल्याण हो नागरिक, परन्तु मुझे पान नहीं, आश्रय चाहिए। मेरे साथ मेरी बेटी है, हम लोग दूर से चले आ रहे हैं। यहां कहीं निकट में विश्राम मिलेगा? मैं शुल्क दे सकूंगा।”

बूढ़े दूकानदार ने सन्देह से महानामन् को देखते हुए कहा- “शुल्क, तुम दे सकते हो, सो तो है, परन्तु भाई तुम हो कौन ? जानते हो, वैशाली में बड़े-बड़े ठग और चोर-दस्यु नागरिक का वेश बनाकर आते हैं। वैशाली की सम्पदा ही ऐसी है भाई, मैं यही सब देखते-देखते बूढ़ा हुआ हूं।' वह और भी कुछ कहना चाहता था, परन्तु इसी समय दो तरुण बातें करते-करते उसकी दूकान पर आ खड़े हुए। बूढ़े ने सावधान होकर दीपक के धुंधले प्रकाश में देखा,

दोनों राजवर्गी पुरुष हैं, उनके वस्त्र और शस्त्र अंधेरे में भी चमक रहे थे।

बूढ़े ने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर कहा- “श्रीमानों को क्या चाहिए? गौड़ीय, माध्वीक, दाक्खा-?”

“अरे, पहले दस्यु की बात कह! कहां हैं दस्यु, बोल?” आगन्तुक में से एक तरुण ने अपना खड्ग हिलाते हुए कहा।

बूढ़े की घिग्घी बंध गई। उसने हाथ जोड़कर कहा- “दस्यु की बात कुछ नहीं श्रीमान्, यह बूढ़ा ग्रामीण कहीं से आकर रात-भर के लिए विश्राम खोजता है। मुझे भय है, नहीं-नहीं, श्रीमान्, मैं कभी भय नहीं करता, किसी से भी नहीं, परन्तु मुझे सन्देह हुआ-कौन जाने, कौन है यह। महाराज, आप तो देखते ही हैं कि वैशाली का महावैभव यहां बड़े-बड़े दस्युओं को खींच लाता है...।”

“बक-बक मत कर बूढ़े।” उसी तरुण ने खड्ग चमकाते हुए कहा- “उन सब दस्युओं को मैं आज ही पकड़ूंगा । ला माध्वीक दे।”

दोनों आगन्तुक अब आसनों पर बैठ गए। बूढ़ा चुपचाप मद्य ढालने लगा। अब आगन्तुक ने महानामन् की ओर देखा, जो अभी चुपचाप अंधेरे में खड़े थे। अम्बपाली थककर घुटनों पर सिर रखकर सो गई थी। दीपक की पीत प्रभा उसके पीले मुख पर खेलती हुई काली अलकावलियों पर पड़ रही थी। तरुण आगन्तुक ने महानामन् को सिर से पैर तक देखा और फिर अम्बपाली पर जाकर उसकी दृष्टि स्थिर हो गई। उसने वृद्ध महानामन् से कहा- “बूढ़े, कहां से आ रहे हो?”

“दूर से।”

“साथ में यह कौन है?”

“मेरी बेटी है।”

“बेटी है? कहीं से उड़ा तो नहीं लाए हो? यहां वैशाली में ऐसी सुन्दर लड़कियों के खूब दाम उठते हैं। कहो बेचोगे?”

वृद्ध महानामन् बोले नहीं, क्रोध से उनके नथुने फूल उठे और होंठ सम्पुटित हो गए। वह निश्चल खड़े रहे।

कहने वाले ने वह सब नहीं देखा। उसके होंठों पर एक हास्य नाच रहा था, दूसरा साथी माध्वीक पी रहा था। पात्र खाली करके अब वह बोला। उसने हंसकर साथी से कहा- “क्यों, ब्याह करोगे?”

दूसरा ठहाका मारकर हंसा, “नहीं-नहीं, मुझे एक दासी की आवश्यकता है। छोटी-सी एक सुन्दर दासी।” वह फिर महानामन् की ओर घूमा। महानामन् धीरे-धीरे वस्त्र के नीचे खड्ग खींच रहा था। देखकर आगन्तुक चौंका।

वृद्ध महानामन् ने शिष्टाचार से सिर झुकाया। उसने कहा- “नायक, तुम्हारे इस राजपरिच्छद का मैं अभिवादन करता हूं। तुम्हें मैं पहचानता नहीं, तुम कदाचित् मेरे मित्र के पुत्र, पौत्र अथवा नाती होंगे। अब से 11 वर्ष पूर्व में भी एक सेना का नायक था। यही राजपरिच्छद, जो तुम पहने हो, मैं पूरे बयालीस साल तक पहन चुका हूँ। उसकी मर्यादा मैं जानता हूं और मैं चाहता हूं कि तुम भी जानो। इसके लिए मुझे तुम्हारे प्रस्ताव का उत्तर इस खड्ग से देने की आवश्यकता हो गई, जो अब पुराना हो गया और इन हाथों का अभ्यास और शक्ति भी नष्ट हो गई है। परन्तु कोई हानि नहीं। आयुष्मान्! तुम खड्ग निकालो और तनिक कष्ट उठाकर आगे बढ़कर उधर मैदान में आ जाओ। यहां लड़की थककर सो गई है, ऐसा न हो, शस्त्रों की झनकार से वह जग जाए।”

तरुण मद्यपात्र हाथ में ले चुका था। अब वृद्ध महानामन् की यह अतर्कित वाणी सुन, उसने हाथ का मद्यपात्र फेंक खड्ग निकाल लिया और उछलकर आगे बढ़ा। तरुण का दूसरा साथी कुछ प्रौढ़ था। उसने हाथ के संकेत से साथी को रोककर आगे बढ़कर बूढ़े से कहा- “आप यदि कभी वैशाली की राजसेना में नायक रह चुके हैं तो आपको नायक चन्द्रमणि का भी स्मरण होगा?"

“चन्द्रमणि, निस्सन्देह, वह मेरे परम सुहृद थे। नायक चन्द्रमणि क्या अभी हैं?” महानामन् ने दो कदम आगे बढ़कर कहा।

“हैं, यह तरुण उन्हीं का पुत्र है। आपका नाम क्या है भन्ते?”

महानामन् ने खड्ग कोष में रख लिया, कहा- “मेरा नाम महानामन् है। यदि यह आयुष्मान् मित्रवर चन्द्रमणि का पुत्र है तो अवश्य ही इसका नाम हर्षदेव हैं।” युवक ने धीरे से अपना खड्ग वृद्ध के पैरों में रखकर कहा- “मैं हर्षदेव ही हूं भन्ते, मैं आपका अभिवादन करता हूं।” वृद्ध ने तरुण को छाती से लगाकर कहा- “अरे पुत्र, मैंने तो तुझे अपने घुटनों पर बैठाकर खिलाया है। आह, आज मैं बड़भागी सिद्ध हुआ। नायक के दर्शन हो सकेंगे तो?”

“अवश्य, पर अब वह हिल-डुल नहीं सकते। पक्षाघात से पीड़ित हैं। भन्ते, किन्तु आप मुझे क्षमा कीजिए।”

“इसकी कुछ चिन्ता न करो आयुष्मान्! तो, मैं कल प्रातःकाल मित्र चन्द्रमणि से मिलने आऊंगा।” 

“कल? नहीं-नहीं, अभी! मैं अच्छी तरह जानता हूं, आप थके हुए हैं और वह बालिका... कैसी लज्जा की बात हैं! भन्ते, मैंने गुरुतर अपराध...।” वृद्ध ने हंसते-हंसते युवक को फिर छाती से लगाकर उसका क्षोभ दूर किया और कहा- “वह मेरी कन्या अम्बपाली है।”

“मैं समझ गया भन्ते, पितृकरण ने बहुत बार आपके विषय में चर्चा की है। चलिए अब घर! रात्रि आप यों राजपथ पर व्यतीत न करने पाएंगे।” महानामन् ने और विरोध नहीं किया। बालिका को जगाकर दोनों तरुणों के साथ उन्होंने धीरे-धीरे नगर में प्रवेश किया।

धिक्कृत कानून

उस दिन वैशाली में बड़ी उत्तेजना फैली थी। सूर्योदय के साथ ही ठठ के ठठ नागरिक संथागार की ओर जा रहे थे। संथागार की ओर जानेवाला राजमार्ग मनुष्यों से भरा हुआ था। पैदल, अश्वारोही, रथों और पालकियों पर सवार सभी प्रकार के पुरुष थे। उनमें नगरसेट्ठि, श्रेणिक और सामन्तपुत्र भी थे। संथागार का प्रांगण विविध वाहनों, मनुष्यों और उनके कोलाहल से परिपूर्ण था। बहुत से नागरिक और सेटि्ठपुत्र संथागार की स्वच्छ संगमरमर की सीढ़ियों पर बैठे थे।

बहुत-से खुले मैदान में अपने-अपने वाहनों को थामे उत्सुकता से भवन की ओर देख रहे थे। अनेक सामन्तपुत्र अपने-अपने शस्त्र चमकाकर और भाले ऊंचे करके चिल्ला-चिल्ला कर उत्तेजना प्रकट कर रहे थे। वहां उस समय सर्वत्र अव्यवस्था फैली हुई थी और लोग आपस में मनमानी बातें कर रहे थे। उनके बीच से होते हुए गणसद्स्य अपने-अपने वाहनों से उतरकर चुपचाप गंभीर मूर्ति धारण किए सभा-भवन में जा रहे थे। दण्ठधर आगे-आगे उनके लिए रास्ता करते और द्वारपाल पुकारकर उनका नाम लेकर उनका आगमन सूचित कर रहे थे।

संथागार का सभा-मण्डप मतस्य देश के उज्ज्वल श्वेतमरमर का बना था और उसका फर्श चिकने और प्रतिबिम्बित काले पत्थर का बना था। उसकी छत एक सौ आठ खम्भों पर आधारित थी। ये खम्भे भी काले पत्थर के बने थे। सभाभवन के चारों ओर भीतर की तरफ नौ सौ निन्यानवे हाथीदांत की चौकियां रखी थीं, जिन पर अपनी-अपनी नियुक्ति के अनुसार आठों कुल के सभ्यगण आ-आकर चुपचाप बैठ रहे थे। भवन के बीचोंबीच सुंदर चित्रित हरे रंग के पत्थर की एक वेदी थी जिस पर दो बहुमूल्य स्वर्ण-खचित चांदी की चौकियां रखी थीं।

एक पर गणपति सुनन्द बैठते थे और दूसरी पर महाबलाधिकृत सुमन। ये दोनों ही आसन अभी खाली थे। गणपति और महाबलाधिकृत अभी संथागार में नहीं आए थे। वेदी के ऊपर सोने के दण्डों पर चंदोवा तना था, जिस पर अद्भुत चित्रकारी हो रही थी और बीच में रंगीन पताकाएं फहरा रही थीं। वेदी के तीन ओर सीढ़ियां थीं और सीढ़ियों के निकट वृद्ध कर्णिक गण-सन्निपात की तमाम कार्रवाई लिखने को तैयार बैठे थे। उन्हीं के लिए छन्दशलाका ग्राहक हाथ में लाल-काली छन्दशालाओं से भरी टोकरियां लिए चुपचाप खड़े थे। अधेड़ अवस्था के कर्मचारी परिषद् की सब व्यवस्था देखभाल रहे थे तथा विनयधरों को आवश्यक आदेश दे रहे थे। उनके आदेश पर विनयधर इधर-उधर दौड़कर आदेश-पालन कर रहे थे।

गणपति और महाबलाधिकृत भी आकर अपने आसन पर बैठ गए। प्रतिहार ने सन्निपात के कार्यारम्भ की सूचना तूर्य बजाकर दी।

संथागार के बाहर खड़ी भीड़ में और भी क्षोभ फैल गया। सबके मुंह उत्तेजना से लाल हो गए। प्रत्येक व्यक्ति की आंखें चमकने लगीं। संथागार के अलिन्द में सामन्तपुत्रों और सेटिठ्पुत्रों के झुण्ड जमा हो गए। सामन्तपुत्र अपने-अपने भाले और खड्ग चमका-चमकाकर मनमाना बकने और शोर करने लगे। सेटिठ्पुत्रों का सदा का हास्यपूर्ण और निश्चिन्त मुख भी आज रौद्र मूर्ति धारण कर रहा था। वैशाली का जनपद, अन्तरायण हट्ट और श्रेष्ठिचत्वर सब बंद थे। भीतर गणपति और गण चिन्तित भाव से बैठे किसी अयाचित घटना की प्रतीक्षा कर रहे थे। वातावरण अत्यन्त अशांत, उत्तेजित और उद्वेगपूर्ण था।

एकाएक रथ का गंभीर घोष सुनकर कोलाहल थम गया। जो जहां था चित्रखचित-सा खड़ा रह गया। सब उन्मुख हो परिषद्-प्रांगण की ओर बढ़ते हुए रथ की ओर देखने लगे। रथ पर श्वेत कौशेय मढ़ा था और श्वेत पताका स्वर्ण-कलश पर फहरा रही थी। रथ धीर-मन्थर गति से अपनी सहस्त्र स्वर्ण घण्टिकाओं का घोष करता हुआ संथागार के प्रांगण में आ खड़ा हुआ। लोगों ने कौतूहल से देखा— एक भव्य प्रशांत भद्र वृद्ध पुरुष रथ से उतर रहे हैं। उनका स्वच्छ-श्वेत परिधान और लम्बी श्वेत दाढ़ी हवा में फहरा रही थी। कमर में एक लम्बा खड्ग लटक रहा था जिसकी मूठ और कोष पर रत्न जड़े थे। वृद्ध के मस्तक पर श्वेत उष्णीष था, जिस पर एक बड़ा हीरा धक्-वक्र चमक रहा था। वे एक तरुण के कन्धे पर सहारा लिए धीर भाव से संथागार की सीढ़ियां चढ़ने लगे। लोगों ने आप ही उन्हें मार्ग दे दिया। सर्वत्र सन्नाटा छा गया। 

परन्तु शांत वातावरण क्षण भर बाद ही क्षुब्ध हो उठा। पहले धीरे-धीरे, फिर बड़े ही वेग से जनरव उठा। एक उद्धत युवक साहस करके अपना भाला सीढ़ियों में टेक कर भद्र वृद्ध के सम्मुख अड़ कर खड़ा हो गया। उसके नथुने क्रोध से फूल रहे थे और मुख पर समस्त शरीर का रक्त एकत्रित हो रहा था। उसने दांत पीसकर कहा— “तो भन्ते महानामन्, आप एकाकी ही आए हैं?” देवी अम्बपाली नहीं आई?”

तुरन्त दस-बीस फिर शत-सहस्त्र सामन्तपुत्र और सेटिठ्पुत्र, श्रेणिक और नागरिक चीत्कार कर उठे— “यह हमारा, हम सबका, वैशाली के गण-विधान का घोर अपमान है, हम इसे सहन नहीं करेंगे!”

शत-सहस्त्र सामन्तपुत्र अपने भाले ऊंचे उठा-उठाकर और खड्ग चमका-चमकाकर चिल्ला उठे— “हम रक्त की नदियां बहा देंगे, परन्तु कानून की अवज्ञा नहीं होने देंगे!” भद्र नागरिकों ने विद्रोही मुद्रा से कहा— “यह सरासर कानून की अवहेलना है। यह गुरूतर अपराध है। कानून की मर्यादा का पालन होना चाहिए प्रत्येक मूल्य पर।”

शत-सहस्त्र कण्ठों ने चिल्लाकर कहा— “किसी भी मूल्य पर!”

वृद्ध महानामन् का मुख क्षण-भर के लिए  पत्थर के समान भावहीन और सफेद हो गया। उनका सीधा लम्बा शरीर जैसे तनकर और भी लम्बा हो गया। उन्मुक्त वायु में उनके श्वेत वस्त्र और श्वेत दाढ़ी लहरा रही थी और उष्णीष पर बंधा हीरा धक्-धक् चमक रहा था। उनकी गति रुकी, वे तनिक विचलित हुए और उनकी कमर में बंधा खड्ग खड़खड़ा उठा। उनका हाथ खड्ग की मूठ पर गया। 

किसी अतर्कित शक्ति से युवक सहमकर पीछे हट गया और वृद्ध महानामन् उसी धीर-मन्थर गति से सीढिय़ां चढ़ संथागार के भीतर जाकर वेदी के सम्मुख खड़े हो गए।

एक बार संथागार में सर्वत्र सन्नाटा छा गया। एक सूई के गिरने का भी शब्द होता। 

गणपति सुनन्द ने कहा— “भन्तेगण‌ सुनें, आज जिस गुरूतर कार्य के लिए अष्टकुल का गण-सन्निपात हुआ है, वह आप सब जानते हैं। मैं आप सबसे प्रार्थना करूंगा कि आप सब शांति और व्यवस्था भंग न करें और उत्तेजित न हों। ऐसा होगा तो हमें सन्निपात भंग करने को विवश होना पड़ेगा। अब सबसे पहले मैं आयुष्मान् गणपूरक से यह जानना चाहता हूं कि आज सन्निपात में कुल कितने सदस्य उपस्थित हैं?”

गणपूरक ने उत्तर दिया— “कुल नौ सौ दो हैं।”

“भन्तेगण, वज्जी के प्रत्येक गण को आज से सन्निपात की सूचना दे दी गई थी और अब जितने सदस्य उपस्थित हो सकते थे, उपस्थित  सदस्यों में से कोई पागल तो नहीं हैं? हों तो पासवाले आयुष्मान् सूचित करें।”

परिषद् में सन्नाटा रहा। गणपति ने कहा— “कोई रोगी, उन्मत्त या मद्य पिए हों तो भी सूचना करें।”

सर्वत्र सन्नाटा रहा। गणपति ने कहा— “अब भन्तेगण सुनें, भन्ते महानामन्, आज आपकी पुत्री अम्बपाली अठारह वर्ष की आयु पूरी कर चुकी है। वैशाली जनपद ने उसे सर्वश्रेष्ठ सुन्दरी निर्णीत किया है। इसलिए वज्जी गणतन्त्र के कानून के अनुसार उसे यह परिषद् 'वैशाली की नगरवधू' घोषित किया चाहती है और आज उसे 'वैशाली की जनपद-कल्याणी' का पद देना चाहती है।

गण-सन्निपात की आज्ञा है कि वह आज से सार्वजनिक स्त्री की भांति जीवन व्यतीत करे, इसी से आज उसे संथागार में उपस्थित होकर अष्टकुल के गण-सन्निपात के सम्मुख शपथ ग्रहण करने की आज्ञा दी गई थी। उसके अभिभावक की हैसियत से आप पर उसे गण-सन्निपात के सम्मुख उपस्थित करने का दायित्व है। अब आप क्या देवी अम्बपाली को गण-सन्निपात के सम्मुख उपस्थित करते हैं, और उसे वैधानिक रीति पर घोषित 'वैशाली की नगरवधू' स्वीकार करते हैं?”

महानामन् ने एक बार सम्पूर्ण सन्निपात को देखकर आंखें नीची कर लीं। वे कुछ झुके और उनके होंठ कांपे। परन्तु फिर तुरन्त ही वह तनकर खड़े हो गए और बोले—

“भन्ते, मैं स्वयं लिच्छवी हूं, और मैंने बयालीस वर्ष वज्जी संघ की निष्ठापूर्वक सेवा इस शरीर से इसी खड्ग द्वारा की है। अनेक बार मैंने इन भुजदण्डों के बल पर वैशाली गणतन्त्र के दुर्धर्ष शत्रुओं को दलित करके कठिन समय में वैशाली की लाज रखी है। मैंने सदैव ही वज्जी संघ के विधान, कानून और मर्यादा की रक्षा की है और अब भी करूंगा। यह प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह कानून की मर्यादा का पालन करे।” महानामन् इतना कहकर चुप हो गए।

उनके होंठ जैसे आगे कुछ कहने में असमर्थ हो जड़ हो गए। उन्होंने आंखें फैलाकर परिषद्-भवन में उमड़ती भीड़ उत्तेजित भीड़ को देखा, जिनकी जलती हुई आंखें उन्हीं पर लगीं थीं। फिर सहज-शांत स्वर में स्थिर वाणी से कहा— “मेरी पुत्री अम्बपाली के सम्बन्ध में वज्जी गणतन्त्र के कानून के अनुसार गण-सन्निपात ने जो निर्णय किया था, उसे जानकर मैंने अठारह वर्ष की अवस्था तक उसका विवाह करना स्थगित कर दिया था। अब…”

बीच में ही सामन्तपुत्र चिल्ला उठे— “यह संदिग्ध बात है, हम स्पष्ट सुनना चाहते हैं। देवी अम्बपाली किसी एक पुरुष की पत्नी नहीं हो सकती! वह हमारी, हम सबकी है। हमारा उस पर समान अधिकार है और उसे हम शस्त्र के बल से भी प्राप्त करेंगे!”

गणपति सुनन्द ने हाथ उठाकर कहा- “आयुष्मान् शांत होकर सुनें, सन्निपात के कार्य में बाधा न दें। अभी भन्ते महानामन् , का वक्तव्य पूरा नहीं हुआ है। उन्हें पूरी बात कह लेने दीजिए।”

परिषद् में फिर सन्नाटा छा गया। सबकी दृष्टि महानामन् के ऊपर जाकर जम गई। 

महानामन् ने परिषद् के बाहर-भीतर दृष्टि फेंककर आंख नीची कर ली और फिर कहा- “भन्ते, आज अम्बपाली अठारह वर्ष की आयु पूरी कर चुकी है। वज्जी संघ के कानून के अनुसार अब वो स्वाधीन है और अपने प्रत्येक स्वार्थ के लिए उत्तरदात्री है। अतः आज से मैं उसका अभिभावक नहीं हूं। वह स्वयं ही परिषद् को अपना मन्तव्य देगी।” 

संथागार का वातावरण फिर बड़े वेग से क्षुब्ध हो उठा। तरुण सामन्तपुत्रों अपने खड्ग कोष से खींच लिए। बहुतों ने अपने-अपने भालों को हवा में ऊंचा करके चीत्कार करना आरम्भ कर दिया। सब लोग चिल्लाने लगे— “विश्वासघात! विश्वासघात! भन्ते महानामन् ‌ने वज्जी संघ के साथ विश्वासघात किया है। उन्हें उसका दण्ड मिलना चाहिए!” बहुतों ने धरती पर अपने पैर पटक-पटककर और भाले हवा में हिला-हिलाकर कहा— “हमारे जीवित रहते अम्बपाली हमारी, हम सबकी है, वह वैशाली की नगरवधू है। संघ यदि अपने कर्तव्य-पालन में ढील करेगा तो हम अपने भालों और खड्ग की तीखी धार के बल पर उसे कर्तव्य-पालन पर विवश करेंगे।”

सहसा कोलाहल स्तब्ध हो गया। जैसे किसी ने जादू कर दिया हो। सब कोई चकित-स्तम्भित होकर परिषद् के द्वार की ओर देखने लगे। एक अवगुण्ठनवती नारी वातावरण को सुरभित करती हुई और मार्ग में सुषमा फैलाती हुई आ रही थी। तरूणों का उद्धत भाव एकबारगी ही विलीन हो गया। सबने माया-प्रेरित-से होकर उसे मार्ग दिया। गण के सदस्य और अन्य जनपद उस अलौकिक मूर्ति को उत्फुल्ल होकर देखते रह गए। उसने वेदी के सम्मुख आकर ऊपर का अवगुण्ठन उतार डाला।

अब वैशाली के जनपद ने पहली बार उस विभूति के दर्शन किए जो गत तीन वर्ष से सम्पूर्ण वैशाली जनपद की चर्चा का एक महत्त्वपूर्ण विषय बन गया था और जिसके लिए आज सम्पूर्ण जनपद में ऐसा क्षोभ फैल रहा था। सहस्त्र-सहस्त्र नेत्र उस रूप को देख अपलक रह गए, वाणी जड़ हो गई, अंग अचल हो गए। तरूणों के हृदय जोर-जोर से धड़कने लगे। बहुतों की सांस की गति रुक गई। अम्बपाली की वह अलौकिक रूप-माधुरी शरतचन्द्र की पूर्ण विकसित कौमुदी की भांति संथागार के कोने-कोने में फैल गई। उसके स्निग्ध प्रभाव से जैसे वहां की सारी उत्तेजना और उद्वेग शांत हो गया।

अम्बपाली ने शुभ्र कौशेय धारण किया था। उसके जूड़ा-ग्रथित केशकुन्तल ताज़े फूलों से गूंथे गए थे। ऊपरी वक्ष खुला हुआ था। देहयष्टि जैसे किसी दिव्य कारीगर ने हीरे के समूचे अखण्ड टुकड़े से यत्नपूर्वक खोदकर गढ़ी थी। उससे तेज, आभा, प्रकाश, माधुर्य, कोमलता और सौरभ का अटूट झरना झर रहा था। इतना रूप, इतना सौष्ठव, इतनी अपूर्वता कभी किसी ने एक स्थान पर नहीं देखी थी। उसने कण्ठ में सिंहल के बड़े-बड़े मोतियों की माला धारण की थी। कटिप्रदेश की हीरे-जड़ी करधनी उसकी क्षीण कटि को पुष्ट नितम्बों से विभाजित कर रही थी। उसके सुडौल गुल्फ मणिखचित उपानत थे, जिनके ऊपर पैजनियां चमक रही थीं, अपूर्व शोभा का विस्तार कर रहे थे। मानो वह संथागार में रूप, यौवन, मद, सौरभ को बिखेरती चली आई थी। जनपद लुटा-सा, मूर्छित-‌सा, स्तब्ध-सा खड़ा था। 

यही वह अम्बपाली थी जिसे पाने के लिए वैशाली का जनपद उन्मत्त होकर लोहू की नदी बहाने के लिए तैयार हो गया था। जिसे एक बार देख पाने के लिए वर्षों से धनकुबेर सेट्ठिपुत्रों और सामन्तपुत्रों ने न जाने कितने यत्न किए थे, षड्यंत्र रचे थे। कितनों ने न जाने कितनी कल्पना-मूर्तियां बनाई थीं, जो वैशाली में ही गत तीन वर्षों से यत्नपूर्वक गुप्त करके रखी गई थीं और जिसे सर्वगुण-विभूषिता करने के लिए वैशाली राज-परिषद् ने मनों स्वर्ण-रत्न खर्च कर दिए थे। आज वैशाली का जनपद देख रहा था कि विश्व की यौवन-श्री अम्बपाली की देहयष्टि में एकीभूत हो रही थी। जिसे देख जनपद स्तम्भित, चकित और जड़ हो गया था। वह अपने को, जीवन को और जगत्‌ को भी भूल गया था। 

अम्बपाली जैसे सुषमा की सम्पदा को आंचल में भरे, नीची दृष्टि किए वृद्ध महानामन् के पार्श्व में आ खड़ी हुई। गणपति सुनन्द ने कहा— भन्ते, देवी अम्बपाली अपना मत परिषद् के सामने प्रकट करने आई हुई हैं। सब कोई उनका वक्तव्य सुनें!”

एक बार गगनभेदी जयनाद से परिषद्-भवन हिल उठा— “देवी अम्बपाली की जय!  वैशाली की नगरवधू की जय!”

अम्बपाली के होंठ हिले। जैसे गुलाब की पंखुड़ियों को प्रातः समीर ने आंदोलित किया हो। वीणा की झंकार के समान उसकी वाणी ने संथागार में सुधावर्षण किया— “भन्ते, आपके आदेश पर मैंने विचार कर लिया है। मैं वज्जीसंघ के धिक्कृत कानून को स्वीकार करती हूं, यदि गण-सन्निपात को मेरी शर्तें स्वीकार हों। वे शर्तें भन्ते, गणपति आपको बता देंगे।”

परिषद्-भवन में मन्द जनरव सुनाई दिया। एक अधेड़ सदस्य ने अपनी मूछों को दांतों से दबाकर कहा— “क्या कहा? धिक्कृत कानून?देवी अम्बपाली तुम यह वाक्य वापस लो, यह परिषद् का घोर अपमान है!”

चारों ओर से आवाज़ें आने लगीं— “यह शब्द वापस लो, धिक्कृत कानून शब्द अनुचित है!”

अम्बपाली ने सहज-शांत स्वर में कहा— “मैं सहस्त्र बार इस शब्द को दोहराती हूं। वज्जीसंघ का यह धिक्कृत कानून वैशाली जनपद के यशस्वी गणतंत्र का कलंक है। भन्ते, मेरा अपराध केवल यही है कि विधाता ने मुझे यह अथाह रूप दिया है। इसी अपराध के लिए आज मैं अपने जीवन के गौरव को लांछना और अपमान के पंक में डुबो देने को विवश की जा रही हूं। इसी से मुझे स्त्रीत्व के उन सब अधिकारों से वंचित किया जा रहा है जिन पर प्रत्येक कुलवधू का अधिकार है।

अब मैं अपनी रुचि और पसन्द से किसी व्यक्ति को प्रेम नहीं कर सकती, उसे अपनी देह और अपना हृदय अर्पण नहीं कर सकती। अपना स्नेह से भरा हृदय और रूप से लथपथ ये अधम देह लेकर अब मैं वैशाली की हाट में ऊंचे-नीचे दाम में इसे बेचने बैठूंगी।

आप जिस कानून के बल पर मुझे ऐसा करने को विवश कर रहे हैं, वह एक बार नहीं लाख बार धिक्कृत होने योग्य है, जिसे आज ये स्त्रैण तरुण सामन्तपुत्र अपने खड्ग की तीखी धार और भालों की नोक के बल पर अक्षुण्ण और सुरक्षित रखना चाहते हैं और यह सेट्ठिपुत्र अपनी रत्नराशि जिस पर लुटाने को दृढ़-प्रतिज्ञ हैं।” अम्बपाली यह कहकर रुकी। उसका अंग कांप रहा था और वाणी तीखी हो रही थी। परिषद्-भवन में सन्नाटा था। 

उसने फिर कहा— “भन्ते, मैं अपना अभिप्राय निवेदन कर चुकी हूं। यदि सन्निपात को मेरी शर्तें स्वीकार हों…तो मैं अपना सतीत्व, स्त्रीत्व, मर्यादा, यौवन, रूप और देह आपके इस धिक्कृत कानून के अर्पण करती हूं। यदि आपको मेरी शर्तें स्वीकार न हों तो मैं नीलपद्म प्रासाद में आपके वधिकों की प्रतीक्षा करूंगी।”

इतना कहकर उसने अवगुण्ठन से शरीर को आच्छादित किया और वृद्ध महानामन् का हाथ पकड़कर कहा— “चलिए!” महानामन् अम्बपाली के कंधे का सहारा लिए संथागार से बाहर हो गए। वैशाली का जनपद मूढ़-अवाक् होकर देखता रह गया। 

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