एपिसोड 1

अनुक्रम: 

एपिसोड 1-4 : जेल
एपिसोड 5-8 : पत्नी से पति
एपिसोड 9-13 : शराब की दुकान
एपिसोड 14-16 : जुलूस
एपिसोड 17 : मैकू
एपिसोड 18-21 : समर-यात्रा
एपिसोड 22-27  : शांति -2 
एपिसोड 28-34 : बैंक का दीवाला
एपिसोड 35-36 : आत्माराम
एपिसोड 37-40 : दुर्गा का मंदिर
एपिसोड 41-42 : बड़े घर की बेटी
एपिसोड 43-46 : पंच परमेश्वर
एपिसोड 47-49 : शंखनाद
एपिसोड 50-53 : जिहाद
एपिसोड 54-61 : फ़ातिहा
एपिसोड 62-63 : वैर का अंत
एपिसोड 64-65 : दो भाई
एपिसोड 66-69 : महातीर्थ
एपिसोड 70-77 : विस्मृति
एपिसोड 78-81 : प्रारब्ध
एपिसोड 82-84 : सुहाग की साड़ी
एपिसोड 85-87 : लोकमत का सम्मान
एपिसोड 88-90 : नागपूजा

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महिलाएँ उसे द्वेष-भरी आँखों से देखती हुई चली गईं। उनमें किसी की मियाद साल-भर की थी, किसी की छह मास की। उन्होंने अदालत के सामने ज़बान ही न खोली थी। उनकी नीति में यह अधर्म से कम न था।

कहानी: जेल 

स्त्री और आन्दोलन 

मृदुला मैजिस्ट्रेट के इजलास से जनाने जेल में वापस आई तो उसका मुख प्रसन्न था। बरी हो जाने की गुलाबी आशा उसके कपोलों पर चमक रही थी। उसे देखते ही राजनीतिक कै़दियों के एक गिरोह ने घेर लिया और पूछने लगीं, कितने दिन की हुई?

मृदुला ने विजय-गर्व से कहा- मैंने तो साफ़-साफ़ कह दिया, मैंने धरना नहीं दिया। यों आप ज़बर्दस्त हैं, जो फै़सला चाहें, करें। न मैंने किसी को रोका, न पकड़ा, न धक्का दिया। न किसी से आरजू़-मिन्नत ही की। कोई ग्राहक मेरे सामने आया ही नहीं। हाँ, मैं दुकान पर खड़ी ज़रूर थी। वहाँ कई वाॅलंटियर गिरफ़्तार हो गए थे। जनता जमा हो गई थी। मैं भी खड़ी हो गई। बस, थानेदार ने आ कर मुझे पकड़ लिया।

क्षमादेवी कुछ कानून जानती थीं। बोलीं- मैजिस्ट्रेट पुलिस के बयान पर फै़सला करेगा। मैं ऐसे कितने ही मुक़दमे देख चुकी।

मृदुला ने प्रतिवाद किया- पुलिसवालों को मैंने ऐसा रगड़ा कि वह भी याद करेंगे। मैं मुक़दमे की कार्रवाई में भाग न लेना चाहती थी, लेकिन जब मैंने उनके गवाहों को सरासर झूठ बोलते देखा तो मुझसे ज़ब्त न हो सका। 
मैंने उनसे जिरह करनी शुरू की। मैंने भी इतने दिनों घास नहीं खोदी है। थोड़ा-सा क़ानून जानती हूँ। पुलिस ने समझा होगा, यह कुछ बोलेगी तो है नहीं, हम जो बयान चाहेंगे, देंगे। जब मैंने जिरह शुरू की तो सब बगलें झाँकने लगे। 

मैंने तीनों गवाहों को झूठा साबित कर दिया। उस समय जाने कैसे मुझे चोट सूझती गई। मैजिस्ट्रेट ने थानेदार को दो-तीन बार फटकार भी बताई। वह मेरे प्रश्नों का ऊल-जलूल जवाब देता था तो मैजिस्ट्रेट बोल उठता था- वह जो कुछ पूछती हैं, उसका जवाब दो। फ़जू़ल की बातें क्यों करते हो। तब मियाँ जी का मुँह ज़रा-सा निकल आता था। 

मैंने सबों का मुँह बंद कर दिया। अभी साहब ने फै़सला तो नहीं सुनाया, लेकिन मुझे विश्वास है, बरी हो जाऊँगी। मैं जेल से नहीं डरती, लेकिन बेवकूफ़ भी नहीं बनना चाहती। वहाँ हमारे मंत्री जी भी थे और बहुत-सी बहनें थीं। सब यही कहती थीं, तुम छूट जाओगी।

महिलाएँ उसे द्वेष-भरी आँखों से देखती हुई चली गईं। उनमें किसी की मियाद साल-भर की थी, किसी की छह मास की। उन्होंने अदालत के सामने ज़बान ही न खोली थी। उनकी नीति में यह अधर्म से कम न था। 

मृदुला पुलिस से जिरह करके उनकी नज़रों में गिर गई थी। सज़ा हो जाने पर उसका व्यवहार क्षम्य हो सकता था, लेकिन बरी हो जाने में तो उसका कुछ प्रायश्चित्त ही न था।

दूर जा कर एक देवी ने कहा- इस तरह तो हम लोग भी छूट जाते। हमें तो यह दिखाना है, नौकरशाही से हमें न्याय की कोई आशा ही नहीं।

दूसरी महिला बोली- यह तो क्षमा माँग लेने के बराबर है। गई तो थीं धरना देने, नहीं दुकान पर जाने का काम ही क्या था। वाॅलंटियर गिरफ़्तार हुए थे आपकी बला से। आप वहाँ क्यों गईं? मगर अब कहती हैं, मैं धरना देने गई ही नहीं। यह क्षमा माँगना हुआ, साफ़!

तीसरी देवी मुँह बनाकर बोलीं- जेल में रहने के लिए बड़ा कलेजा चाहिए। उस वक़्त तो वाह-वाह लूटने के लिए आ गईं, अब रोना आ रहा है। ऐसी स्त्रियों को तो राष्ट्रीय कामों के नगीच ही न आना चाहिए। आंदोलन को बदनाम करने से क्या फ़ायदा।

केवल क्षमादेवी अब तक मृदुला के पास चिंता में डूबी खड़ी थीं। उन्होंने एक उद्दंड व्याख्यान देने के अपराध में साल-भर की सज़ा पाई थी। दूसरे ज़िले से एक महीना हुआ यहाँ आई थीं। अभी मियाद पूरी होने में आठ महीने बाक़ी थे। यहाँ की पंद्रह कै़दिनों में किसी से उनका दिल न मिलता था। 

ज़रा-ज़रा सी बातों के लिए उनका आपस में झगड़ना, बनाव-सिंगार की चीज़ों के लिए लेडीवाॅर्डरों की खु़शामदें करना, घरवालों से मिलने के लिए व्यग्रता दिखलाना उसे पसंद न था। वही कुत्सा और कनफु़सकियाँ जेल के भीतर भी थीं। वह आत्माभिमान, जो उसके विचार में एक पोलिटिकल कै़दी में होना चाहिए, किसी में भी न था। क्षमा उन सबों से दूर रहती थी। उसके जाति-प्रेम का वारापार न था। 

इस रंग में पगी हुई थी, पर अन्य देवियाँ उसे घमंडिन समझती थीं और उपेक्षा का जवाब उपेक्षा से देती थीं। मृदुला को हिरासत में आए आठ दिन हुए थे। इतने ही दिनों में क्षमा को उससे विशेष स्नेह हो गया था। मृदुला में वह संकीर्णता और ईर्ष्या न थी। न निन्दा करने की आदत, न शृंगार की धुन, न भद्दी दिल्लगी का शौक। 

उसके हृदय में करुणा थी, सेवा का भाव था, देश का अनुराग था। क्षमा ने सोचा था, इसके साथ छह महीने आनन्द से कट जाएंगे, लेकिन दुर्भाग्य यहाँ भी उसके पीछे पड़ा हुआ था। 


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