एपिसोड 1
शहर कितने एक से होते हैं, एक ही तरह के लोग भी उनमें बसते हैं। थके, हारे, लाचार और जीतने की इच्छा से भरे लोग।
दृश्य में अदृश्य
मैं प्रेम कहानी नहीं लिखना चाहता। प्रेम कहानियों में क्या होता है- एक लड़का, एक लड़की, दोनों के बीच की हल्की-फुल्की नोंकझोंक और एक विलेन जो समाज होता है या समाज का कोई भद्दा-सा मेटाफर।
मैं अपने लेखन में इस तीव्रता से क्षीण होते वक़्त को बांधना चाहता हूँ। मैं इस समय को शब्दों में उसी तरह पिरोना चाहता हूँ, जैसे कोई स्कल्पचर ख़ूब बारीकी से मूर्ति गढ़ता है। वर्तमान अपने भीतर एक अंतर्राष्ट्रीयता लिए हुए रहता है- जिसे हम सब साझा करते हैं। मेरा लेखन इसी अंतर्राष्ट्रीयता को खोजने का काम करेगा।
यह सब सुनकर उसके आँखों में अकारण ही एक मुस्कान निखर आई। उसका सहज रूप यूँ था जैसे उसने एक ढक्क्न चाँदनी उधार ली हो। यह क्लीशे उसके बारे में इसलिए प्रयोग कर रहा, क्योंकि वह बिल्कुल इन्हीं उपमाओं में ढली थी जो अब क्लीशे हो चुके हैं फिर भी वह इनसे अलग थी। खरी-खरी। खरी चीजों को आभासी बिम्बों से नहीं, कल्चरल उपमा से सजाया जाता है।
वह बहुत धैर्य से सुनती थी। उसके पास मैं जब भी होता, मैं हर चीज़ पर बोलता- राजनीति से मनोनीति पर। बाहरी आवरण से अंदर के अंधेरे पर। धर्म से विज्ञान पर। उसको शायद सुनने भर में एक आनंद की अनुभूति होती थी। मेरी ही भाषा के समकालीन कवि गीत चतुर्वेदी कहते हैं, "बोलने वालों की भीड़ ने सुनने वालों को हमेशा कमतर आँका है"। पर हम दोनों के वार्तालाप में वो मुझसे ऊपर की बिंदु पर थी। मेरी बात को जायज़ ठहराने का अधिकार उसके पास था।
दो लोगों के बीच चुप रहने वाला सदा ऊँचे स्थान पर होता है, जहाँ से वह यह तय करता है कि बात होगी या नहीं। वह इसलिए नहीं सुनती थी क्योंकि उसे भी कुछ बोलना था। वह सुनने मात्र का आनंद लेती थी। कभी-कभी तो बोलते-बोलते मुझे एहसास होता की वह शायद वर्षों से गूंगी है। उसके इच्छाओं को शब्द नहीं प्राप्त हैं। उसने शायद कभी किसी से कुछ नहीं मांगा था। उसका मेरे से कुछ नहीं माँगना, मुझे अंदर तक कचोटता था। मैं ऐसे बेबुनियाद ज़ख्मों पर अपने खोखले शब्दों, विचारों और अर्थों से लिपाई करता था।
वह गीत अच्छा गाती है। उसकी संगीत की ललक भाषा के बैरियर को जाने कब की लांघ चुकी थी। उसका मानना था की दुनिया के सभी संगीत किसी एक स्रोत से ही निकले है। संगीत सर्वव्यापी है, उस पर मैं कहता की मेरा लिखा भी संगीतमय होगा। वह बीथोवेन की सिम्फनी बजा कर मेरे कानों पर लगा देती और उस धुन पे उसका बदन किसी कविता में बदलने लगता। मैं सुनते-सुनते उसमें उस समय-स्थान-अवस्था को क़ैद करने के शब्द ढूँढता।
मैं भाव को शब्दों के दायरे में बंध कर देखता, वह शब्द की निरर्थकता को बहुत पहले आत्मसात कर चुकी थी। उसके मुताबिक दुनिया की सभी कहानियाँ झूठी हैं, सारा साहित्य मिथ्या है। मैं उसकी इन बातों को मन ही मन अनसुना कर देता। उसका कहना था की हमारा शरीर ही सत्य है, वर्तमान ही साहित्य है और हम दोनों कोई उपन्यास। उपन्यास नहीं नावेल- क्योंकि हममें सब कुछ नया सा है पर हमारी देह का संगीत वर्षों से बजता आ रहा है।
मनु और सतरूपा की देह का संगीत जिस फ्रीक्वेंसी पर बजता होगा उसके ठीक समान फ्रीक्वेंसी पर नए प्रेमियों का बदन भी विचरता है। उनके फल तोड़ने के ओरिजनल सिन को आजतक के प्रेमी अपने पीठ पर ढो रहे हैं। ईश्वर उन्हें सजा देने के लिए मंदिरों में और पत्थरों में आ कर बस गया है।
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किसी शाम हम दोनों एक लोहे की बेंच पर बैठे हुए थे। सामने वाली सड़क पर आने-जाने वालों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। मैं उसके चौड़े ललाट को देख रहा था जो अनिश्चित काल से शांत था। उसके ऊपरी आधे ललाट को डूबता सूरज अपने लाल रंग में भिगो रहा था और वह आँख मूंदे हुए ऐसी लग रही थी जैसे मानो दिन ढल चुका हो फिर भी वह अपने कपड़े अरगनी से उतारने में अलसा रही हो, बेफिक्र-सी।
उसके अंदर एक अपना लाल गोला धधक रहा था। मैं उस गर्मी में ख़ुद को काफी असहज महसूस करने लगा। हम अगल-बगल थे पर हमारे बीच कई वर्षों का मौन घर कर गया था। एक अनन्त काल से चली आ रही शब्दहीनता हमें तार-तार कर रही थी।
हम एक दूसरे के सामने रखे चाय की प्याली जैसे थे। हम दोनों पर एक ही क़िस्म की कढ़ाई की गई थी पर जैसे एक में काली चाय रखी हो और दूसरा कप खाली पड़ा हो। जब भी हम टकराते तो मेरी कप उसके खाली कप को थोड़ा भर देती। समयांतराल पर मेरी कप आधी हो गई पर उसका कप अभी भी खाली रहा। वह खाली कप उसका मन था।
मेरे भीतर के विचार कोई भी शब्द-निर्माण करने में असमर्थ थे। सड़क पर चल रहे लोग एक स्थिर पेंटिंग की तरह ब्रश किए गए थे और कई सारी पेंटिंग्स एक-एक कर के चल रही थीं। सब में अलग-अलग रंग भरे थे पर सभी एक कॉमन थीम से बंधे थे। जैसे किसी एक ही पेंटर ने उन सभी को बनाया हो। शहर कितने एक से होते हैं, एक ही तरह के लोग भी उनमें बसते हैं। थके, हारे, लाचार और जीतने की इच्छा से भरे लोग। मेरी नज़र उन पेंटिंग्स के एक छोटे से हिस्से पर गई जो एक ही रंग में सभी कैनवासों पर मौजूद थी। वहाँ एक भूरे आँख वाली बिल्ली थी।
ऐसा लगा वह हम दोनों को घूर रही है। मैंने ध्यान से देखा तो पाया की बिल्ली बस उसे ही देख रही है। दोनों एक दूसरे से कॉस्मिक रूप में जुड़ गई थीं। मैं अतिरिक्त था। ऐसे मौक़ों पर जब भी उसका अवचेतन मन चेत वस्तुओं को तराशने लगता तो मैं कहीं दूर, पीछे छूट जाता। मेरी आवाज़ धीमी पड़ने लगती, मैं थका हुआ सा उसके कौतूहल को निहारता भर था।
मैं दो- एक ही जैसे बिंदुओं को देख रहा था- बिल्ली और वह। वह धीरे-धीरे बिल्ली में तब्दील हो रही थी। जापानी लेखक नात्सुमे सोसेकी कहते हैं की, औरतों को बिल्ली जैसा शांत होना चाहिए। वह अपने शांत स्वभाव को और भी सफेद आवरण पहना रही थी। मेरे ठीक बगल में होते हुए भी वह कई परत ख़ुद के अंदर जा चुकी थी, जिसमें से उसे बाहर निकालना मेरे देह के संगीत के बस की बात नहीं थी।
मैं इस दृश्य से थोड़ा अजीब महसूस करने लगा। मेरे हाथ पाँव फूलने लगे, धड़कन काफी तेज़ हो गई थी। मैं एक बिल्ली के बगल में बैठा वह इंसान था जिसे ख़रोंचों से डर लगता था। इसी बीच मैंने एक सिगरेट जला ली ताकि शांति और भय को एक सूत्र में लपेट कर अलग रख दिया जाए।
सिगरेट पीना एक पूरा प्रॉसेस है जैसे योग। जब आप सिगरेट पी रहे होते हैं तो आपके और आपकी सिगरेट के बीच एक असहाय पीड़ा होती है जिसका कोई ओर छोर नहीं होता, वह पीड़ा धुएँ के माध्यम से आसमान में हल्के-हल्के सेटल होती जाती है। योग हमें जीवन की क्षणिक समस्याओं से दूर, ब्रह्म की ओर ले जाता है, ठीक वैसे ही सिगरेट हमें हमारी समस्याओं से दूर अपने तक ले आता है। पिता लोग अक्सर सिगरेट पीते हैं क्योंकि उनकी पीड़ा बाँटने को कोई नहीं होता। मुझे लगता है ,परमात्मा यदि है तो वह भी सिगरेट ज़रूर पीता होगा।
अभी कुछ देर ही हुआ था की वह बिल्ली अचानक से कूदकर भाग गई। अचानक से सेटिंग में उत्पन्न हुए रिक्तता से उसका ध्यान मेरे सिगरेट पे आ गया। वह बेंच पर थोड़ी दूर खिसक गई। वह मुझे सिगरेट पीने से कभी मना नहीं करती पर इस ख़राब आदत को ना-पसंद ज़रूर करती थी। अब हम दोनों के बीच का फ़ासला थोड़ा कम हो गया था। वह ख़ुद ही अपने आवरण उतार कर मेरे साथ बेंच के दूसरे छोर पर बैठ गई थी।
मैं उसकी तरफ़ देख कर हल्का सा मुस्कुराया और आधी जली सिगरेट बुझा दी। जब सिगरेट मेरे हाथ से छूट रहा था तो मुझे ख़याल आया की अगर ये एक बार मुझसे सिगरेट छोड़ने को कह दे तो शायद छोड़ ही दी जाए, आख़िर आदत तो बुरी ही है। पर उसने ऐसा नहीं बोला, उसने कुछ भी नहीं बोला, कुछ देर मेरी तरफ़ देखने के बाद उसने नज़रें नीचीं कर ली।
मैं इस मौन को जानता था, यह एक परिचित मौन था। हम परिचित मौन की गोद में झपकी लेने लगते हैं।
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कमेंट (6)
- PrasHant SheKhar
पहला भाग शानदार 😊
3 likes - Aditya rawat
❤️❤️❣️
2 likes - Akash mishra
प्रेम❤️❤️
1 likes - Ganesh Dutt Mishra
bhaut bhaut badhai ho
0 likes - vishal mishra
अति सुन्दर कहानी है
0 likes - Mohit
मनु-शतरूपा की कहानी में भी फल तोड़ने वाला दृष्टांत है?
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