एपिसोड 1

अनुक्रम

एपिसोड 1-5 : आखेटक
एपिसोड 5-10 : आदिग्राम उपाख्यान

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मनुष्य को साल में कम से कम एक बार कहीं बाहर घूम आना चाहिए। कि इससे एकरसता टूटती है, जीवनचर्या में ताजगी आ जाती है। कि इस तरह लगातार नौ से पाँच फाइलों में सिर मारते रहने से आदमी आदमी नहीं रह जाता।

कहानी: आखेटक

राजपूती खून

रोज-रोज के एक ही दफ्तरी जीवन से उकताकर नेपाल बाबू ने एक दिन सोचा कि आने वाली दुर्गा पूजा की छुट्टियों में क्यों न तफरीह के लिए कहीं बाहर निकला जाए! नेपाल बाबू तारघर में काम करते हैं। सहकर्मियों पर जब उन्होंने अपनी मंशा जाहिर की तो सभी ने एक स्वर में इस नेक ख़याल को सराहा। सबने कहा कि मनुष्य को साल में कम से कम एक बार कहीं बाहर घूम आना चाहिए। कि इससे एकरसता टूटती है, जीवनचर्या में ताजगी आ जाती है। कि इस तरह लगातार नौ से पाँच फाइलों में सिर मारते रहने से आदमी आदमी नहीं रह जाता। नेपाल बाबू खुश हुए। उन्होंने जोड़ा कि साथ में कुछ और लोग भी चलते तो मजा आ जाता। एक तरह से पिकनिक हो जाती। क्या ख़याल है?

इस पर सब जने का मुँह उतर गया। किसी के घर में कुछ काम निकल आया जिसे इसी छुट्टी में निपटाना जरूरी है नहीं तो आफत आ जाएगी, तो किसी को अपने रिश्तेदारों के यहाँ जाना निकल आया कि उन्होंने पहले से ही निमंत्रण दे रखा था। किसी की ब्याहता बेटी शादी के बाद पहली बार अपने पति के साथ मायके लौट रही थी, तो कोई इस छुट्टी में अपनी छत की मरम्मत करवा लेना चाहता था। इस तरह नेपाल बाबू का साथ देने में सभी किसी न किसी वजह से असमर्थ हुए। हालाँकि सबने अपना जी मसोसा। सबने कहा कि इससे हतोत्साहित होकर नेपाल बाबू को अपना इरादा नहीं बदलना चाहिए। सबने सबकी तरफ से कहा - बेस्ट ऑव लक!

एक तरह से देखा जाए तो नेपाल बाबू को कोई ज्यादा दुख नहीं हुआ। पहले से उनका अनुमान था कि ऐसा ही कुछ होगा। यह उनकी पहली नौकरी है और इसके चार साल हो गए। उम्र की लिहाज से बाकियों से काफी छोटे थे नेपाल बाबू। अकेले वही थे जिनकी अभी शादी नहीं हुई थी। जिनके ऊपर चिंताओं का पहाड़ नहीं टूट पड़ा था। जिन्हें पाँच बजते न बजते घर लौटने की हड़बड़ी नहीं होती थी। दफ्तर से उनका घर भी ज्यादा दूर नहीं था। सुबह ट्यूशन नहीं, शाम को किसी पार्टटाइम का झमेला नहीं। तनख्वाह जो मिलती थी, अकेले के लिए काफी थी। कभी-कभी शौकिया कुछ बनाकर खा लिया, नहीं तो होटल-ढाबा जिंदाबाद! दफ्तर में अकेले वही थे, जो धोबी के यहाँ धुले कलफदार कपड़े पहिना करते थे। जो कभी 'गोल्ड फ्लेक' के नीचे का कुछ मुँह से नहीं लगाते थे। हर शनिवार की शाम बियर पीते और रविवार को सिनेमा देखने जाते।

वे जानते थे कि कोई उनका साथ न देगा और न ही यह कहेगा कि नेपाल बाबू आप अकेले हैं। घर-गृहस्थी का बोझ नहीं सिर पर। तिस पर बाप-दादे की दौलत है। आप उड़ाइए-पड़ाइए, हमें क्या! आपकी देखा-देखी हम भी बोनस के रुपयों का श्राद्ध कर दें तो उन देनदारियों का क्या होगा जिन्हें अब तक टालते आए थे! बाल-बच्चों समेत फाके करने पड़ेंगे। खैर, किसी के ना कर देने मात्र से नेपाल बाबू रुकनेवालों में से नहीं थे। लेकिन समस्या यह थी कि कहाँ जाया जाए! दीघा-पुरी वे पहले ही घूम चुके थे। उत्तर की तरफ जाने का मन नहीं था। बहुत सोचने-विचारने के बाद उन्होंने तय किया कि इस बार सुंदरवन की सैर की जाए।

जल्दी ही नेपाल बाबू 'तन-मन-धन' से सुंदरवन की यात्रा की तैयारी में जुट गए। सुंदरवन की बात हो तो नामुमकिन है कि रॉयल बेंगाल टाइगर का ख़याल न आए। नेपाल बाबू ठाकुर परिवार से वाबस्ता हैं। सो हुआ यह कि बाघ का ख़याल आते ही उनकी रग-रग में राजपूती खून ठाठें मारने लगा। एक बार सोचा कि क्यों न तफरीह के बहाने बाघ के शिकार पर चला जाए सुंदरवन! बाप-दादे के जमाने की एक पुरानी बंदूक भी थी घर में। अब तक उसका इस्तेमाल होते नेपाल बाबू ने नहीं देखा था। विलायती है। कहा जाता है कि एक बार किसी बात से प्रसन्न होकर अँग्रेजों ने यह बंदूक उनके दादा को भेंट की थी। बहरहाल, इस शिकार के संबंध में एक बात गौर करने लायक थी कि आजकल सुंदरवन में बाघों की तादाद पहले की अपेक्षा बहुत कम हो गई है। जो थोड़े बाघ बचे भी हैं तो उन्हें सरकारी प्रोटेक्शन मिला है। ऐसे में उनका शिकार करने निकलना बड़ा रिस्की मामला है। पकड़े जाने पर जाने क्या सजा हो! नौकरी जाएगी सो अलग। दुनिया भर में फजीहत हो जाएगी। एक पल के लिए काँप गए नेपाल बाबू। लेकिन 'वह रहा एक मन और' जिसने दूसरे ही क्षण उन्हें बहुत धिक्कारा। छी, कितनी शर्म की बात है कि एक छोटा-सा जोखिम मोल लेने से वे कतरा रहे हैं। इसका सकारात्मक नतीजा यह निकला कि छुट्टी शुरू होते ही वे सुंदरवन के लिए रवाना हो गए। कपड़े-लत्ते की एक अटैची के अलावा उनके साथ एक दूरबीन, एक जोड़ी गम-बूट और वह खानदानी बंदूक भी थी।

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