एपिसोड 1
उस दिन ये तय हो गया था कि मुझे भी दो साल के लिए मी के साथ अमेरिका जाना होगा लेकिन अमेरिकी वीज़ा इतनी आसानी से मिलता नहीं है...
बीते हुए दिन
कहां से शुरू करूं? शुरू से शुरू करता हूं। हमारी शादी को छह साल हो चुके थे। इन सालों में एक अनजाना-सा संघर्ष था, ख़ुद को स्थापित करने का। मैं दफ़्तर में परेशान था और मी अपने आर्ट में जूझ रही थी। मी के लिए कला की दुनिया में एक शुरुआत हो चुकी थी लेकिन जैसा कि होता है कि किसी भी क्षेत्र में स्थापित होने में समय लगता ही है।
ये वही समय था। उस समय करीब छह साल हो गए थे, हम लोगों को कम्युनिटी आर्ट का प्रोजेक्ट करते हुए पूरे भारत में। इंडिया हैबिटैट सेंटर में शो हो चुका था और आर्ट की दुनिया में कुछ लोग हमें जानने लगे थे। लेकिन कलाकार के तौर पर पहचान नहीं मिली थी। हम ये भी जानते थे कि ये रास्ता कठिन होगा।
मैं दफ़्तर में जूझ रहा था अपने संपादक से। सोशल मीडिया का नया काम पूरी तरह से संभालने और पूरे दफ़्तर की ट्रेनिंग के बावज़ूद मेरा प्रमोशन रूका हुआ था और मैं मान चुका था कि अब इस दफ़्तर में मेरा कुछ भी नहीं होने वाला है।
मैं करीब पांच बार अलग-अलग प्रमोशन की परीक्षाओं में फेल किया जा चुका था। इसी दौरान सोशल मीडिया पर अमेरिका के एक प्रोफेसर ने हमसे संपर्क किया और कहा कि वो हमसे मिलना चाहते हैं। ये प्रोफेसर भारतीय थे और अमेरिका की एक यूनिवर्सिटी में उर्दू पढ़ा रहे थे लंबे समय से।
उन्होंने आर्टोलॉग (कम्युनिटी आर्ट) का काम देख रखा था और उसी बारे में बात करना चाहते थे। उनका नाम था एम.जे. वारसी. हम पहली बार मिले तो उन्होंने कई सवाल किए लगातार और अंत में वो सवाल पूछा जो हमारी दुखती रग थी, “आप दोनों अमेरिका में पढ़ाई करने के बारे में क्यों नहीं सोचते?”
ये एक ऐसा सवाल था जिस पर हम दोनों को रोना आ सकता था क्योंकि शादी के बाद से ही मी लगातार विदेश के कई कॉलेजों में अप्लाई कर चुकी थी और लगभग हर जगह उसे एडमिशन मिल जाता था; लेकिन स्कॉलरशिप नहीं मिलती थी।
लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ में मी को दो बार पीएचडी में और एक बार डिप्लोमा कोर्स में एडमिशन मिला लेकिन फीस इतनी अधिक थी कि हम लोग जा नहीं पाए। उन्हीं सालों में मेरा भी उसी यूनिवर्सिटी में दो बार एडमिशन हो चुका था लेकिन समस्या पैसे की ही थी।
उस दौरान मैंने जेएनयू में भी दो बार डायरेक्ट पीएचडी के लिए इंटरव्यू दिए थे और मुझे दोनों बार ही इंटरव्यू में छांट दिया गया था। ये मेरे लिए दिल तोड़ने वाली बात थी क्योंकि मैं जेएनयू से एम.फिल कर चुका था और अच्छे नंबरों से पास हुआ था।
मैंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एम.फिल किया था और सोशियोलॉजी विभाग में मीडिया से जुड़े विषय पर पीएचडी करना चाहता था। मेरा शुरुआती काम जेएनयू के प्रोफेसर अविजित पाठक को पसंद भी आया था लेकिन इंटरव्यू में एक शिक्षक की आपत्ति ये थी कि मैं पत्रकार हूं तो सोशियोलॉजी कैसे पढ़ पाऊंगा। ख़ैर कुल मिलाकर पढ़ाई को लेकर हम उत्साहित थे, लेकिन एडमिशन न हो पाने से निराश थे।
ऐसे में अमेरिका में पढ़ा रहे प्रोफेसर के उस सवाल ने हम दोनों के ज़ख़्म हरे कर दिए। हमने विस्तार से बताया तो वो बोले, “ऐसा मानिए कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। मैं जिस यूनिवर्सिटी में हूं वहां जेएनयू के छात्रों के लिए एक बेहतरीन स्कॉलरशिप है। आपका एडमिशन हो जाएगा तो स्कॉलरशिप मिलने के चांस अच्छे हैं। आप लोग ज़रूर अप्लाई करें।”
हम घर लौटे और इस बात को भूल गए या कहें कि अनदेखा कर दिया। कारण निराशा थी। हमें लगा नहीं कि ऐसा संभव है। मैं दफ्तर से अलग परेशान था और मेरी ज़िद थी कि मुझे दफ़्तर में प्रमोशन मिले। वो एक अजीब-सी ज़िद थी।
इसी ज़िद और निराशा में हम लोगों को लगने लगा था कि हम लोग जीवन में कुछ नहीं कर पाएंगे और ऐसे ही नौकरी करते करते जीवन बीतेगा। मी ने पहले ही तय कर लिया था कि वो नौकरी नहीं करेगी और आर्ट ही करेगी भले ही कोई न ख़रीदे उसका आर्ट।
ऐसे समय में जब हमें लग रहा कि अब और कुछ नहीं होना है जीवन का तो हमने तय किया कि बच्चा प्लान कर लेते हैं।
वो सर्दियों के दिन थे। रात के कोई दस बज रहे होंगे। आचानक फोन आया। नंबर विदेशी लग रहा था। मी ने फोन उठाया तो दूसरी तरफ अमेरिका वाले प्रोफेसर थे, “उम्मीद है आपने अप्लाई कर दिया होगा.” मी ने झूठ बोला कि हां सर कर देंगे। हम लोग झेंप गए। पांचेक मिनट के बाद मी ने तय किया कि अप्लाई कर देते हैं। उसका कहना था, “वैसे भी एडमिशन हो भी जाए तो स्कॉलरशिप तो मिलेगी नहीं।”
उस रात ऐप्लीकेशन की प्रक्रिया पूरी की गई क्योंकि इस तरह के ऐप्लीकेशन की सारी सामग्री लगभग तैयार रहती थी मी के पास। ऐप्लीकेशन के साथ ही स्कॉलरशिप का आवेदन भी हमने भर दिया और चैन की सांस ली कि अगर अगली बार प्रोफेसर का फोन आया तो झूठ नहीं बोलना पड़ेगा।
जनवरी के आख़िरी महीनों में सूचना मिली कि एडमिशन हो गया है। ये सूचना उत्साहित करने वाली थी क्योंकि आर्ट के विभाग ने मी की पचास परसेंट फ़ीस माफ करने की बात कही थी। हालांकि जब हमने हिसाब लगाया तो समझ आया कि फ़ीस आधी माफ़ होने के बाद भी जो ख़र्च है वो हमारे बस का नहीं है।
फरवरी के महीने में हम लोग फ़िरोज़पुर गए पेंट करने के लिए और वहां मी को लगातार थकान होती रही और वो परेशान रही। लौटे तो उसकी तबियत भी थोड़ी ख़राब हुई। लेकिन हमें समझ में नहीं आया कि ये प्रेग्नेंसी का मसला हो सकता है। इसी महीने मुझे क़रीब चार साल की जद्दोज़हद के बाद दफ़्तर में प्रमोशन मिला था। इसी दौरान स्कॉलरशिप का इंटरव्यू होना तय हुआ और फरवरी के अंत में दो सूचनाएं एक साथ मिली।
मी को मैकडॉनल एकेडेमी ने पूरी स्कॉलरशिप दी थी और साथ में दूसरी सूचना कि हम लोग प्रेग्नेंट थे।
अब हमारी समझ में नहीं आ रहा था कि हम करें तो क्या करें। यूनिवर्सिटी के कुछ अधिकारी मार्च में दिल्ली आए तो हमने उनसे मुलाकात की और पूछा कि क्या हम लोग एक साल के लिए जाना टाल सकते हैं तो उनका जवाब था, “अमेरिका में पढ़ाई के दौरान बच्चा होना आम है। तुम्हारे पति तुम्हारे साथ आएंगे तो कोई दिक़्क़त नहीं है। हमारी तरफ से सारा सपोर्ट रहेगा ही।”
उस दिन ये तय हो गया था कि मुझे भी दो साल के लिए मी के साथ अमेरिका जाना होगा लेकिन अमेरिकी वीज़ा इतनी आसानी से मिलता नहीं है....
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कमेंट (83)
- GOPI Madhav
varshi ji 💐💐
3 likes - GOPI Madhav
😍😍😍🥰dubara padh rhe🥰🥰😍
3 likes - Shailendra Chandrakar
well written
2 likes - Navlesh Kumar
लाजवाब
2 likes - Navlesh Kumar
लाजवाब
2 likes - Akash
really nice
1 likes - Reeta Srivastava
पति पत्नि दोनो कैसे प्रेगनेंट हुए। चमत्कार कर दिए। आगे पढने की जरूरत नहीं ।
1 likes - Reeta Srivastava
'जनवरी के आखिरी महीनों ' ये कैसा मुहावरा है। लेखक अपनी रौ मे कुछ भी लिख देते हैं
0 likes - Stephen
very good
1 likes - Neha Pant
क्या मैंने सच में ये पढ़ा, कि हम लोग प्रेगनेंट थे ❤️ अमेजिंग है 💯
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