एपिसोड 1
मैं एक बहुत मीठी और ठंडी हवा की उम्मीद कर रहा हूँ, जिससे यह रात सर्वथा वंचित है। रीढ़ की हड्डी पर एक लकीर-सी खिंचती जा रही है। जाकर पाजामे के नाड़े में समा जाती है। गोमूत्र जैसा महकने वाला पसीना हरकत में है।
गंध
संभवत: मैं एक आम मध्य-वर्गीय हूँ
व्यक्ति के निजी अधिकारों में विश्वास करने वाला
आज़ादी बहुत आसान शब्द है मेरे लिए
इसका मतलब किसी वर्ग-विशेष की आज़ादी से नहीं
सियासी तौर पर नादान, शिक्षित औसत दर्जे का
(कभी-कभार कुछ ख़ास लम्हों में मुझे सबकुछ साफ़ दिखने लगता है
यही लम्हे मेरी तालीम की रोटी-बोटी है)
मैं याद करता हूँ उस आग को
जिसकी चमक की तरफ़ मैं खिंचा चला गया था
जो अपनी तपिश से सुखा देती है
प्यासी भीड़ के होंठ
फूँक देती है किताबों को
झुलसा देती है शहरों की चमड़ी
मैं गुनगुनाता हूँ उसी आग के गीत
और जानता हूँ
दूसरों के साथ-साथ दौड़ना कितना बड़ा काम है
फिर मुँह में घुस आई राख के स्वाद के साथमैं सुनता हूँ अपने ही भीतर से निकलती
झूठ की विडंबना भरी आवाज़
और भीड़ की चीखें
और जब छूता हूँ अपना सिर
तो लगता है
छू रहा हूँ अपने देश की गोल खोपड़ी को
उसके सख़्त किनारों को.- एडम ज़गाएव्स्की
* (यह हिन्दी पाठ रेनाता गोर्शिन्स्की द्वारा पोलिश से अंग्रेज़ी में किए अनुवाद पर आधारित है।)
एक रात अचानक, मुझे ऐसा लगा कि मेरी कँखौरियों में जो इकट्ठा होता है, जो मेरे माथे पर चुहचुहाता हुआ सरकता है, जो मेरी भवों के ऊपर से चलता हुआ कानों के पास पहुँच जाता है, जो बालों के भीतर जमा होकर उसे मेह भरी मिट्टी-सा बना देता है, वह पसीना गोमूत्र जैसी बदबू मारता है।
पलंग पर चित लेटे-लेटे वह पसीना गद्दे तक में घुस जाता है, चादर को गीला कर देता है, उससे पहले मेरी क़मीज़ को पानी का चक्रव्यूह बना देता है, उससे पहले मेरी पीठ पर बड़े फूहड़ तरीक़े से चिपका रहता है, उससे पहले मेरी त्वचा के भीतर तफ़रीह करता ख़तरनाक मुस्कान के साथ साज़िश करता नज़र आता है, उससे पहले मेरी नसों में बहते रक्त में गुप्तचर की तरह शामिल हो उसके रंग के बारे सूचनाएँ लीक करता है, ऐसा लगता है, जैसे ये पसीना किसी बहुत बड़े षडयंत्र का हिस्सा हो।
पहले यह बदबू इस तरह नहीं आती थी। वह उसी तरह होती थी, जैसे मेरी देह की गंध हो, भीनी-भीनी, जो मादाओं के नथुनों में बस जाए, उनके दिमाग़ को बेक़ाबू कर दे। उस गंध में पॉन्ड्स पाउडर के कई सफ़ेद कण घुले होते थे, जो उसकी गंध को एक रहस्य में तब्दील कर देते थे।
ऐसा रहस्य, जिसे भेदने के लिए मादाओं में बेचैनी हो उठे। वे अपनी आवृत्त उत्कंठाओं में दौड़ पड़ें, वर्जनाओं की तरह कपड़ों को उतार फेंके और रहस्य का प्रसारण करती इस गंध के सरोवर में कूद जाएँ।
पर अब ऐसा नहीं हो रहा। इच्छाएँ मेरी अब भी ऐसी ही होती हैं, पर पसीना रंग दिखाने लगा है। वह अपनी साज़िश को अंजाम देता नज़र आ रहा है। उसने पता नहीं कहाँ से, गोमूत्र की गंध पा ली है। उस गंध को मेरे शरीर की मिल्कियत दे दी है। मैं अपनी देह में सोया हूँ और दुर्गंध से बेज़ार हूँ। मैं पलंग छोड़कर उठ जाता हूँ।
मुझे लगता है, मेरे साथ कोई और भी है, जो उठा है। मैं चप्पल पहनता हूँ और बाहर की ओर सरकता हूँ। अंधेरे में आज़मा रहा हूँ अपनी याददाश्त कि कहीं आलमारी या पलंग के कोने से न टकरा जाऊँ। मुझे लगता है कि कोई और भी है, जिसने अभी-अभी सरकाकर चप्पल पहनी है। यह वही दुर्गंध है, जो मेरे साथ पलंग से उठी है।
मैं बेहद सावधान क़दमों से चल रहा हूँ, इस क़दर कि चप्पल की आवाज़ तक न हो, साँसों पर मैं क़ाबू कर रहा हूँ, मुझे अपनी साँसों से निकलती उसकी आवाज़ साफ़ सुनाई पड़ रही है। वह मेरी चप्पल की चुप्पी में फुसफुसा रहा है। गोमूत्र मेरे पीछे-पीछे आ रहा है।
मैं बाल्कनी में आकर खड़ा हो जाता हूँ। चारों ओर सड़क पर रात की पीली रोशनी बिछी हुई है। कहीं-कहीं अंधकार भी है। कहीं बहुत दूर से किरकिराती हुई सीटी की आवाज़ आती है। चौकीदार अपना काम कर रहा है। उसकी लाठी की बहुत हल्की ठक् की आवाज़ देर तक गूँजती है, जैसे बम विस्फोट हो।
रोशनी थोड़ी हड़बड़ा जाती है। मैं एक बहुत मीठी और ठंडी हवा की उम्मीद कर रहा हूँ, जिससे यह रात सर्वथा वंचित है। रीढ़ की हड्डी पर एक लकीर-सी खिंचती जा रही है। जाकर पाजामे के नाड़े में समा जाती है। गोमूत्र जैसा महकने वाला पसीना हरकत में है। वह नाक में घुस जाता है। चक्कर आ जाएगा। मैं सिगरेट सुलगाता हूँ।
नाक तक आई उँगलियों में भी वही बदबू है। सिगरेट के धुएँ से उस बदबू में थोड़ी कमी आती है। मैं मुँह उठाकर धुआँ छोड़ता हूँ। हवा में अलग-अलग परतों में वह तैर रहा है। मेरे सिर के ठीक ऊपर बादल बनकर बैठ गया है। मैं फूँक मारता हूँ। उसके घनेपन पर असर पड़ता है। छितराने लगता है। मैं किसी मौन की तरह फिर स्थिर हो जाता है।
हवा की कोई ख़बर नहीं। मैं कमरे में आता हूँ और बत्ती जला देता हूँ। वह गंध अभी भी मेरे नथुनों में कुलबुला रही है। थोड़ी देर अगर और ये गंध रही, तो मुझे भयंकर एलर्जी हो जाएगी। अच्छा है, कम से कम उसके बाद गंध तो नहीं आएगी। इस कमरे ने गोमूत्र के साथ कोई गठजोड़ किया है। बू से भभक रहा है। मैं हर कमरे की बत्ती जला देता हूँ। बाथरूम तक की।
मैं पलंग के नीचे झुककर देखता हूँ। दरवाज़ा खोलकर गैलरी में ताकता हूँ। कहीं कोई गाय तो इस कमरे में नहीं आ गई? मैं सोई हुई पत्नी पर शक करता हूँ कि कहीं इसने कोई गाय तो नहीं छुपा दी है इस कमरे में, जिसने सू-सू, पॉटी कर दी हो और जिससे यहाँ रहना मुहाल हो रहा हो। न गैलरी में, न बाल्कनी में, न बाथरूम में, न पलंग के नीचे, न आलमारी के पीछे। गाय कहीं नहीं है। गोमूत्र हर जगह है।
दीवार पर टंगे डेढ़ फीट के मंदिर से लेकर दरवाज़े के पीछे बेतरतीब पड़े जूते-चप्पलों के ढेर तक में। मैं गोमूत्र के युग में हूँ। कंप्यूटर के यूपीएस की लाइट चमक रही है। मैं मोबाइल उठाकर समय देखता हूँ। मेरी कल्पनाओं में आँखों से न दिखने वाली नैनोटेक्नोलॉजी के सारी करामातें हुलस रही हैं। पर इस वक़्त मुझे सच का पता चल गया है। ये सब मिथ्या है।
ऊँची इमारतों से लेकर शंघाई-ल्हासा ट्रेन तक। इंट्रावेन्यस इंजेक्शनों से लेकर ओपन हार्ट तक। सब मिथ्या है। सच यह है कि गोमूत्र है, चारों ओर है। ये सारी चीजें उसी में लिथड़ी हुई हैं। मैं गोमूत्र के समय में तैर रहा हूँ। मैं उसकी गंध की पीठ पर सवार एक उड़वैया हूँ।
मुझे पहली बार नथुनों में बसी यह गंध याद आ गई। छह साल का था मैं। गाय को छूकर देखा था तब। कई माँओं को देखता हूँ कि कैसे अपने बच्चों को गोद में लेकर गाय के पास ले जाती हैं, कैसे बार-बार कहती हैं- बेटा, वो देख- गाय। फिर गाय की पूँछ उठाकर बच्चे के सिर पर फिराती हैं।
उन्होंने बताया था कि ऐसा करने से बाल घने आते हैं। दीदी कहती थी कि जब मैं छोटा था, तो वह मुझे अपनी गोद में लेकर गायों की पूँछ को मेरे सिर से फिराती थीं। मैं हँसता नहीं था। उस उम्र में भी नहीं, जब सिर्फ़ रोते रहना जायज़ था। हँसाने को कितने भयंकर उपक्रम किए जाते होंगे।
लेकिन जब गाय की पूँछ पर उगा बालों का गुच्छा मेरे माथे और सिर पर रेशम की तरह फिरता था, तो मैं किलक उठता था। मुझे हँसाने के लिए दीदी को अच्छा तरीक़ा मिल गया। दीदी मुझसे छह साल बड़ी थीं।
मैं आईने में अपने बाल देखता हूँ। अब बहुत कम बचे हैं। गाय की पूँछ के फिरने का इस पर कोई असर नहीं पड़ा। मेरी उम्र के तमाम लोगों को घने बाल नसीब हैं। उनने जाने किस प्रजाति की गाय की पूँछ अपने टक्कल पर फिरवाई होगी?
छह साल का मैं दीदी के पीछे-पीछे चल रहा हूँ। उसे पूजा के लिए एक कटोरी गोमूत्र चाहिए। पंडित ने पहले नहीं बताया था। घर में बरसों पुरानी एक बोतल रखी थी, जिस पर इतनी मिट्टी जमा हो चुकी थी कि छू लो, तो अस्थमा हो जाए। पर पूजा के समय वह बोतल नहीं मिल रही थी। बहुत खोज लेने के बाद बड़े भैया ने बताया था कि उन्होंने बोतल फेंक दी है। माता बहुत दुखी हुईं।
तो दीदी के साथ मैं गोमूत्र एक्सप्लोर करने निकला था। आसपास कोई तबेला नहीं था और दीदी को समझ में नहीं आ रहा था कि राह चलती गाय को कैसे सू-सू करने पर मजबूर करे।
वह काफ़ी देर तक सड़क के किनारे गाय के एक्शन का इंतज़ार करती रहीं। मैं मूक हवा की तरह साथ था। एक जगह चार गायें खड़ी थीं। बटर-पापड़ी के ठेले वाले से दीदी ने पूछा- अंकल, इसमें से गाय कौन है?
उसने दूर इशारा करते हुए कहा, वो देख, साँड़ खड़ा है। जाके उससे पूछ ले।
हँसते हुए लोगों में से किसी ने बताया कि नामे की दुकान के पीछे एक तबेला है, वहाँ से जाकर माँग लो। नामे की दुकान तक जाने में आधा घंटा लग गया। रास्ते में पाँच बार गायें मिलीं, जिन्हें कोई रोटी खिला रहा था, तो कोई उसके आगे पानी की धार चढ़ा रहा था। एक गाय ठेलेवाले की सब्ज़ी में मुँह मार रही थी।
ठेलेवाले ने उसे एक डंडा मारा। गाय हड़बड़ा कर सड़क की तरफ़ भागी। एक स्कूटर वाला तेज़ी से इसी दिशा में आ रहा था। गाय ने अपनी हड़बड़ाहट से उसकी रफ़्तार को आतंकित कर दिया। स्कूटर गाय के पेट पर टकराया। स्कूटर वाला चार हाथ दूर छिटक गया। देर तक स्कूटर की घों-घों करती आवाज़ गूँजती रही। गाय ने अपनी हड़बड़ाहट पूरी सड़क को दान कर दी।
दीदी दस मिनट तक वहीं खड़ी रही। सड़क ख़ाली थी, लेकिन पार करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। ख़ैर, तबेले के पास यही गंध आ रही थी, जो इस वक़्त मेरी नाक के भीतर उगे रोओं पर झूल रही है। गोमूत्र की इतनी सान्द्र गंध मैंने उससे पहले कभी महसूस नहीं की थी।
उसके बाद सीधा आज। मैंने नाक पर हथेली रख ली। बड़े पेट और सफ़ेद धोती वाला वह आदमी बोला- बेटुआ, बरी पवित्तर गन्ह होती है ए। खें-खें करके हँसने लगा। वह नहीं हँस रहा था, उसका बड़ा पेट हँस रहा था।
लौटते समय मैंने दीदी से पवित्तर का अर्थ पूछा। उसने बताया- भगवान!
जब दीदी मरी थी, तो उसके आसपास गोमूत्र छिड़कने के लिए मुझे ही कहा गया था। तब वह गंध आई थी क्या?
मैं एक और सिगरेट सुलगाता हुआ बाथरूम में घुस जाता हूँ। सारे कपड़ों को अलग़नी पर टाँग देता हूँ और सिर के ऊपर शॉवर को देखता रहता हूँ। उसके मुँह पर लाल ज़ंग लगी हुई है। जैसे सदियाँ गुज़र गई हों, उसने कभी पानी नहीं उगला। निशाना बनाकर मैं धुएँ को उसके मुँह पर दे मारता हूँ। उसे बिल्कुल खाँसी नहीं आती।
मेरी हथेली में हरकत होती है और शॉवर पानी फेंकने लगता है। साज़िश करने वालों की हर बूँद को मैं अपने शरीर से मिटा देना चाहता हूँ। सबसे ख़ुशबूदार साबुन को मैं अपने शरीर की बलि चढ़ा देता हूँ। पूरे शरीर को ग्यारह बार साबुन से रगड़ा है। बालों को वहाँ मौजूद गुलाबी बोतल वाली शैंपू के सफ़ेद झाग के हवाले कर दिया है, ताकि उसकी सुगंध से गोमूत्र को रिप्लेस कर दूँ।
ज़िंदगी में पहली बार मैं ढाई बजे रात में नहाया हूँ। बदन पोंछने के बाद पूरी तरह पाउडर में डूब गया हूँ। हर कोने में पाउडर। इस बार पॉन्ड्स नहीं, रैक्सोना लगाया है। उस पर से भरोसा डिग गया है इस वक़्त। बहुत उम्मीद के साथ रैक्सोना के डिब्बे को देखता हूँ। मेरी लाज अब उसी के हाथ है।
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कमेंट (3)
- Neeraj Kumar
परिस्थितियों को बिना छेड़छाड़ , जस का तस रखा गया है जो पाठक सीधा घटनाओं से जोड़ती है ।
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👌👌👌👌👌
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किसी और का कहा गया सच अक्सर मिथ्या ही प्रतीत होता है, बामुश्किल ही सच्चाई की धरातल पर जड़वत खड़ी हो पाती है।
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