एपिसोड 1
अनुक्रम
एपिसोड 1-6 : प्यार___________________________________
आगरा भी नहीं जाओगी, यहां भी नहीं रहोगी। तो फिर इस दुनिया में तुम्हारे लिए ठौर कहां है?
कहानी: प्यार
ठौर
भादो की भरी रात। घना अन्धकार। दामोदर नदी का सीमाहीन विस्तार। समस्त प्रकृति जड़, स्तब्ध। समीप ही एक राजोद्यान, विविध विटप-लता-वेष्टित। अन्धकार में अन्धकार। मेंढक, झींगुर और दूसरे जीवों का तीव्र स्वर दामोदर की उत्तुंग तरंग-राशि के हुंकार में मिला हुआ। जब-तब किसी विहंग का करुण क्रन्दन। निस्तब्धता का आर्तनाद। उद्यान की मध्य -भूमि में एक धवल प्रासाद, अन्धकार पर मुस्कान बिखेरता हुआ, गगनचुंबी किन्तु स्तब्ध। नीरव, निस्पन्द। अर्द्धरात्रि।
कक्ष में दीप जल रहा था। एक भद्र-वेशधारिणी वृद्धा बहुत-सी छोटी-बड़ी पोटलियां कभी खोलती, कभी बांधती, कभी आप ही आप बड़बड़ाती। वृद्धा के बाल श्वेत थे, शरीर गौर था, आंखें बड़ी-बड़ी थीं, वस्त्र सादा, निरलंकार शरीर कुछ स्थूल था। नाक जरा ऊंची, दृष्टि पैनी, और इस बेला चंचल। हवा के झोंके से दीप बुझने को हो जाता। उसकी लौ कांपती, और फिर स्थिर हो जाती। कुछ पोटलियां बंधी थीं, कुछ खुली पड़ी थीं। उनमें से किसी में हीरे-मोती, मणि, माणिक, किसी में स्वर्ण की मुहरें, किसीमें जड़ाऊ गहने, किसी में बहुमूल्य कम-खाब और जरबफ्त की पोशाकें। सभी कुछ सामने फैला पड़ा था। क्या साथ ले, क्या छोड़ दे, वृद्धा इसी असमंजस में बैठी, बड़बड़ाती हुई, कभी इस और कभी उस पोटली को बांध और खोल रही थी।
इसी समय एक कृशांगी बाला ने निःशब्द कक्ष में प्रवेश किया। बाला की आयु कोई इक्कीस बरस की थी। लम्बा, छरहरा कद, बड़ी-बड़ी उज्ज्वल आंखें। चांदी-सा चमकता श्वेत माथा, सीप-से दमकते हुए कपोल, जैसे हिलते ही रक्त टपक पड़ेगा, ऐसे होंठ। मलिनमुखी, मलिनवसना, करुणा की सजीव मूर्ति-सी। वृद्धा को उसके आने का भान नहीं हुआ। वह उसी भांति उन मूल्यवान कंकड़-पत्थरों को जल्दी-जल्दी इधर-उधर करती, खोलती-बांधती, साथ ही बड़बड़ाती जा रही थी।
रमणी ने देखकर दीर्घ निःश्वास छोड़ा। फिर आहिस्ता से कहा- मरजाना, यह सब क्या है?
'जो-जो साथ ले चलना है, वही सब बांध-बूंध रही हूं।'
'तो तू समझती है कि मैं ससुराल जा रही हूं?'
वृद्धा की आंखों में आंसू आ गए। उसने एक बार रमणी की ओर देखा, फिर आंखें नीची करके कहा- बीबी, यह सब आगरा में काम आएंगे।
'तुझसे किसने कहा कि मैं आगरा जाऊंगी?'
'तो फिर नाव क्यों मंगाई है?'
'उस पार जाने के लिए।'
'उस पार कहां जाओगी?'
'जहां आंखें ले जाएं।'
रमणी ने बांदी के सामने कातर भाव प्रकट नहीं होने दिया। आंसुओं को आंखों ही में पी लिया।
बूढ़ी दासी बीबी को प्यार करती थी। उसने गुस्सा होकर कहा-आगरा भी नहीं जाओगी, यहां भी नहीं रहोगी। तो फिर इस दुनिया में तुम्हारे लिए ठौर कहां है?
बरबस एक आंसू रमणी की आंख से टपक ही पड़ा। पर उसे मरजाना ने देखा नहीं। उसने आहिस्ता से कहा- बीबीजान, जितना ज़रूरी है, वही ले चल रही हूं।
'आख़िर किसलिए?'
'अपने काम आएगा, बीबी, अभी ज़िन्दगी बहुत है।'
'बोझ तो ज़िन्दगी का ही काफ़ी है। इन कंकड़-पत्थरों का बोझ लादकर क्या करेगी?'
'ज़िन्दगी का बोझ हलका करूंगी। बीबी, तुम्हें नहीं लादना होगा। मैं ही ले चलूंगी।'
'नहीं, मरजाना, यह सब दामोदर के पानी में फेंक दे।'
बांदी ने खीझकर कहा- यह सब दामोदर के पानी में फेंक दोगी, तो खाओगी क्या?
'हाथी से चींटी तक को जो देता है, वही दाता इस यतीम बेवा को भी देगा। न होगा तो राह-बाट में कहीं भूख से मर जाऊंगी। कुत्ते और सियार जिस्म को ठिकाने लगा देंगे।'
'तौबा, तौबा! यह क्या कलमा कहा बीबी?'
'तेरा इन कंकड़-पत्थरों पर मोह है, तोतू इन्हें ले जा। तुझे छुट्टी है।'
'ख़ूब छुट्टी दी बीबी! छाती पर बोझ लेकर दामोदर के पानी में डूब मरने में इस बदबख़्त बुढ़िया को कुछ तकलीफ़ न होगी।'
'नाराज़ हो गई मरजाना? राह में चोर-डाकुओं का क्या डर नहीं है? हम औरत जात किस-किस मुसीबत का सामना करेंगी? यह भी तो सोच।'
मरजाना की आंखों से टप से दो बूंद आंसू टपक पड़े।
रमणी ने देखा, न देखा। उसने कहा- अब देर न कर। तीन पहर रात बीत चुकी। दिन निकलने पर निकलना न हो सकेगा।
मरजाना ने झटपट सब हीरे-जवाहर कूड़े के ढेर की तरह एक गठरी में बांधे, और उसे बगल में दबा कर उठ खड़ी हुई। फिर एक दीर्घ निःश्वास फेंककर कहा चलो, बीबी। लेकिन बच्ची सो रही है। तुम यह गठरी लो। मैं बच्ची को लिए लेती हूं।
'नहीं, बच्ची को मैं ही ले चलती हूं।'
युवती ने बच्ची को गोद में ले लिया, काले वस्त्र से शरीर को अच्छी तरह लपेटा, एक नज़र उस भव्य अट्टालिका पर डाली, एक गहरी सांस छोड़ी, और चल दी। पीछे-पीछे मरजाना थी।
अगले एपिसोड के लिए कॉइन कलेक्ट करें और पढ़ना जारी रखें
कमेंट (4)
Akash
very nice
0 likesDinesh
woww nice
0 likesDinesh
very nice
0 likesDinesh
very nice
0 likes