एपिसोड 1
अनुक्रम
एपिसोड 1-12 : रेखाचित्र में धोखे की भूमिका
एपिसोड 13-22 : भूलना
एपिसोड 23-28 : नकार
एपिसोड 29-34 : परिन्दगी है कि नाकामयाब है
एपिसोड 35-48 : सुनो
एपिसोड 49-54 : सिटी पब्लिक स्कूल, वाराणसी
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रोज़गार ने राष्ट्रीयता का मुँह खोल दिया। जो थोड़ी-बहुत सम्पत्ति जोड़ चुके थे, ईमानदारी से या बेईमानी से, वे तो वहीं बस गए। पर जिनके लिए गाँव-घर ही नहीं ठीक हो पा रहा था कमाई से, उनको वहाँ से हटना पड़ा।
कहानी: रेखाचित्र में धोखे की भूमिका
पूरब से पश्चिम की ओर
एक थे नारायण।
बरसात की नमी से फफूंद लगने के कारण घर का एलबम ख़राब होने लगा है। पारदर्शी थैलियाँ फटने से आमने-सामने की दो तस्वीरें चिपककर बदरंग होने लगी हैं। आमने-सामने की तस्वीरों को बिलगाने में अब हल्की मशक्कत करनी पड़ती है।
ऐसे ही किसी दो पन्नों की चिपकी तस्वीरों में बायीं तरफ़ वाली तस्वीर सरस्वती मौसी की है। माँ की सखी। तस्वीर पर मुहर लगने से, समय गुज़रने से, अब चेहरा उतना स्पष्ट नहीं है। माँ इसे मायके से लेकर आई थी। शादी के बाद दोनों कभी मिल नहीं पाईं। कोई संयोग ही नहीं बैठा। एलबम खुलते ही माँ या तो रोने लगती है या फिर हँसती है।
मौसी की तस्वीर देखकर जब माँ रोती है तो बहुत रोती है। उसके रोने से हमारा भी मन भीग जाता है। हम सब एक-दूसरे से आँखें चुराने लगते हैं। वरना जब हँसती है तो हँसती कम है और मौसी तथा उनसे जुड़ी तमाम बातें ही ज़्यादा बताती है। कई-कई बार। इतना कि हमें खीझ होने लगती है।
तो भी हम उसे सुनते हैं, ताकि उसे यह महसूस न होने पाए कि हम उसे सुनते ही नहीं। दायीं तरफ़ की तस्वीर बुआ की शादी की है। तस्वीर के केन्द्र में फूफा मुँह तक खाने का कौर ले गए हैं कि तस्वीर उतार ली गई है - साथ ही साथ वह कैमरे की तरफ़ भी देख रहे हैं जो कि उनका मज़ाक बनाने के लिए काफ़ी है।
फूफा के बग़ल में, उसी पंगत में एक बच्चा बैठा है- आठ या नौ साल का, जिसका मुँह शायद इसलिए खुला है कि वह परोसने वाले से कोई विशेष वस्तु लेने की ज़िद कर रहा है। लोग कहते हैं कि वह लड़का मैं हूँ। लोगों के कहने से ही मुझे भी भरोसा है कि वह मैं ही हूँ, वरना कोई भी ऐसा निशान नहीं है कि मैं ख़ुद को पहचान सकूँ।
चेहरा पूरी तरह बदल चुका है। मैं अब जेल में बैठे, हत्या के मामले में लगभग उम्रक़ैद भुगत रहे अपने पिता की तरह दिखता हूँ- चुचकी हुई नाक, काला चेहरा। जबकि लड़का गोरा है।
तस्वीरों के साथ जो सबसे घटिया बात है, वह यह कि लोग तस्वीरों में मौजूद लोगों को किसी ख़ास क्षण से पहचानते हैं, याद रखते हैं, उस ख़ास क्षण की ख़ुशी से, जो कि ज़ाहिर है, तस्वीर खिंचाते वक़्त चेहरे पर आ जाती है, बनावटी ही सही। उस बेहूदा क्षण से आगे-पीछे की पूरी उम्र से किसी को कोई सरोकार नहीं होता।
उस लड़के को जो व्यक्ति सब्जी परोस रहे हैं और जिनके चेहरे पर शादी की भीड़-भाड़ वाली हड़बड़ी तथा बच्चे को दुलारने वाली झल्लाहट साफ़ देखी जा सकती है- वही नारायण हैं। उनकी वही एक तस्वीर मेरे घर में और ज़ेहन में है। उनकी अन्य तस्वीरें जो सीधे ज़ेहन में उतरी थीं, लम्बे अन्तराल के कारण, धुंधलाती जा रही हैं। उस बरस, एक ख़ास रात के बाद, मैं कभी उन्हें देख नहीं पाया।
हमारा याराना था। कुछ भी समान नहीं था हम दोनों में, फिर भी। मैं दूसरी कक्षा में पढ़ रहा था और वह बीएससी कर रहे थे। विद्यालय से बचे समय में मैं हमेशा उनके साथ रहने की कोशिश करता। अन्य लड़कों की तरह नहीं, जो उनके घर में रेडियो सुनने के लिए साथ रहना चाहते थे। मैं तो उनकी नकल और सिर्फ नकल करने के लिए उनके साथ रहना चाहता था। उनके पास मेरे सारे प्रश्नों के जवाब होते थे।
गाँव से थोड़ी दूर पर था रेलवे स्टेशन। पक्की छत का छोटा-सा आरामगाह था। महुआ, पीपल और गूलर के कुछ पेड़ों को घेरकर चबूतरे बनाए गए थे। उस स्टेशन पर स्टेशन मास्टर, टिकट कलेक्टर या केबिनमैन, कोई नहीं रहता था। कभी रहे होंगे इसलिए एक कमरा था, सामान से भरा, जिसमें ताला बन्द था।
स्टेशन के पास के पेड़ों को छोड़कर, जो कि दोपहर में धूप से बचाते थे, ऐसा कुछ भी नहीं था जहाँ कम-से-कम सुबह-शाम भी आराम मिले। शाम को इन घने पेड़ों का जादू दिखता था। पहले यहाँ दो सवारी गाड़ियाँ और एक पूरब जाने वाली मेल रुकती थी। पर यह बहुत पहले की बात है। 'मेल' की इस स्टेशन पर ख़ास कमाई नहीं होने के कारण बाद में उसका रुकना बन्द हो गया। वह मेल, नीले डिब्बों वाली गाड़ी, सीधे धड़धड़ाती हुई निकल जाती। दोनों सवारी गाड़ियाँ रुकती थीं।
दादाजी ने बताया था कि जब मेल रुकती थी तो रोज़ क़रीबन दस-पन्द्रह लोग आस-पास के गाँवों से पूरब की ओर जाते थे। आते भी थे। कुछ कलकत्ता तो कुछ असम निकल जाते थे, बाद में अरुणाचल प्रदेश का भी नाम कुछ घरों में सुना जाने लगा था। मणिपुर का भी। दादाजी भी गए थे कुछ दिनों के लिए असम में लकड़ी ढोने।
फिर वहाँ कुछ ऐसा हो गया, जिससे कि ये लोग भगाए जाने लगे। विभाजन के बाद जूट उद्योग का प्रमुख आधार, जूट की खेती, पूर्वी पाकिस्तान में चली गई। पश्चिम बंगाल में केवल जूट के मिल भर रह गए थे, जहाँ कच्चे जूट की उपलब्धता लगातार कम होती जा रही थी। मिल बन्द हो रहे थे। इसलिए मज़दूरों की माँग में भारी गिरावट हुई।
फिर रोज़गार ने राष्ट्रीयता का मुँह खोल दिया। जो थोड़ी-बहुत सम्पत्ति जोड़ चुके थे, ईमानदारी से या बेईमानी से, वे तो वहीं बस गए। पर जिनके लिए गाँव-घर ही नहीं ठीक हो पा रहा था कमाई से, उनको वहाँ से हटना पड़ा। फिर तो पूरब जाने वाले यात्रियों की संख्या अपने-आप कम हो गई थी। यही स्थिति कमोबेश असम और मणिपुर की भी थी।
इस छोटे-से स्टेशन से सरकार की आमदनी कम होने लगी थी। इसलिए सरकार ने यहाँ पर उस मेल के रुकने का प्रावधान ही ख़त्म कर दिया। अब बची हैं बस दो सवारी गाड़ियाँ- एक बार जो मुम्बई घूम आता है, वह इसे पैसेंजर ट्रेन कहने लगता है।
दादाजी फिर कहीं नहीं गए, अपने सात कट्ठे की खेती में व्यस्त हो गए। अन्य लोगों ने उन रिश्तेदारों के यहाँ चक्कर लगाना शुरू कर दिया जो पश्चिम की ओर रहते थे- नासिक, पुणे, मुम्बई। पश्चिम की ओर भीड़ अभी कम थी। रिश्तेदारों ने एहसान जताने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ा और उन्हें पश्चिम ले गए। लोग पैसेंजर में बैठकर पास के बड़े स्टेशन जाते और वहाँ से झुलनी के धक्के खाते अब बजाय कलकत्ते के पश्चिम मुम्बई पहुँचने लगे थे।
बड़े शहर से चलने वाली गाड़ी में इन लोगों के लिए कम जगह होती थी। टिकट लेने के बाद अक्सर किसी-न-किसी की गाड़ी छूट जाती थी। ऐसा भीड़ बहुत ज़्यादा होने की वजह से होता। जो कुली और सिपाही को पचास-पचास रुपये नहीं देते, उन्हें कुली और सिपाही पीटना शुरू कर देते या वे फिर टिकट वापस कराकर घर लौटते। अगले दिन वे छूटे हुए लोग, कुछ इस क़दर तैयार होकर जाते कि किसी अन्य की गाड़ी छूट जाती।
लोग दो दिन और दो रातों तक, लगातार बिना कुछ खाये-पिये, बिना पाख़ाना-पेशाब से निबटे सफ़र करते थे, पेशाब-पाख़ाना लग आने पर अपनी जगह छिन जाने का डर होता था, जो कि या तो सामान रखने वाली किनारे की पतली सीट होती या फिर नीचे वाली लकड़ी की सीट के भी नीचे उन्हें जगह मिलती थी।
सीट के नीचे झुके-झुके यात्रा करके मुम्बई से गाँव या फिर गाँव से मुम्बई पहुँचने की प्रक्रिया इतनी जटिल होती थी, इतनी तकलीफ़देह होती थी कि लोगों की गर्दन और घुटने ऐंठ जाते थे।
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कमेंट (7)
Bibhash Mishra
very interesting
0 likesSriram Tiwari
intresting
3 likesMdjajaktjphkwmtat Jajgtajajmytjtjtgjt
shegdnhdr ururhfuh hdudjhdufhfhfur jdjdbdjdud djjdjdjd
2 likesप्रज्ञा भारती त्रिपाठी
वाह !!!मेरे भी मन को यही लगता है
6 likesHarshit vijay Vijay
अच्छी
1 likesPallav P M
अच्छी है
2 likesYashpal Vedji
बहुत ही सुन्दर शुरुआत
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