एपिसोड 1
“अच्छा देख, हिसाब लगा ज़रा। जब तू पैदा हुआ था, तेरी माँ के अनुसार तभी तेरा बाप मर गया। ठीक? मैं पूछता हूँ कि फिर तेरी बहन कहाँ से टपक पड़ी?
दुविधा
मसलन हमने शिबू के पिता को कभी नहीं देखा। इस संदर्भ में अपनी माँ से शिबू ने कई बार पूछा भी था, शुरू में तो वह टालती रहीं, फिर एक दिन आजिज आकर कसके तमाचा जड़ दिया। बात हमेशा के लिए ख़त्म। कस्बे के बाहर हाईवे के पास नत्था की टिपरिया चाय, पान-बीड़ी की दुकान के पीछे छिपकर सिगरेट पीने का अभ्यास करते हुए उसे अचानक यह बात याद आई और उसने अपना दर्द बयान करते हुए मुझसे कहा। उसने रोते हुए मुझसे कहा था, “झूठ बोलती है स्साली। कहती है कि जिस साल मैं पैदा हुआ था, मेरा बाप हैजे में मर गया।
कभी कहती है, ख़ूब दारू पीता था, जिगर की ख़राबी से मर गया।” प्रकटतः नहीं मुस्कराने की कोशिश करते हुए और उसे ढांढस देते हुए मैंने उसके कंधे सहलाये थे—“जाने दे यार। मैं समझ सकता हूँ।” मेरी यह हमदर्दी पाकर उसकी हिचकी बंध गयी थी। सिगरेट का आख़िरी कश खींचकर मैंने उसकी टोंटी नत्था की दुकान के पीछे बहने वाले उस नाले में उछाल दी।
शिबू अपनी आस्तीन से आँसू और नाक पोंछ रहा था। बात ख़त्म हो रही थी, सो मैंने फिर से कुरेदते हुए कहा—“अच्छा देख, हिसाब लगा ज़रा। जब तू पैदा हुआ था, तेरी माँ के अनुसार तभी तेरा बाप मर गया। ठीक? मैं पूछता हूँ कि फिर तेरी बहन कहाँ से टपक पड़ी?
फिर देख अपना और अपनी माँ का साँवला रंग... दूसरी तरफ़ नैना, एकदम खड़िया-सी उजली। नाक-नक़्श भी रवीना टंडन से कम नहीं। बात कुछ समझ में आ रही है?” उसने सहमति में सिर हिलाया—“वही तो। लेकिन अगर मैं यह पूछने जाऊं कि नैना का असली बाप कौन है, तो अबकी मुझे लात से मारेगी, पक्का।”
उसकी बहन नैना के बारे में मैंने जो अभी ऊटपटाँग बातें कीं, अगर तापस ने सुन लिया होता तो मुझे लात से मारता, पक्का। शिबू को नहीं बताया मैंने कि तापस नैना पर जान छिड़कता था। खुलेआम ‘नैना मेरी मैना, जगाये सारी रैना, छीने मेरा चैना’ वाला गीत गाता था।
वैसे शिबू को इस संदर्भ में कुछ बताने की ज़रूरत भी नहीं थी, हम सभी जानते थे। तापस की मनमानी देखो कि वह खुद उसके बारे में गन्दी-गन्दी बातें करता था, लेकिन उसकी बातें सुनकर अगर हममें से किसी ने एक सिसकारी भी भरी, तो पीट देता था।
नैना के साथ अपने काल्पनिक सम्बन्धों की दुहाई देता हुआ वह कहता था कि नैना हमारी भाभी है, सो हममें से कोई भी उसका नाम लेकर नहीं पुकारा करे। वह उम्र में हम दोनों से चार और नैना से साढ़े पाँच साल बड़ा था। एक दिन मैंने उसे शिबू के घर से कमर पर बंधे अँगोछे को ठीक करते हुए निकलते देखा था। “नैना तो स्कूल में थी, फिर वह किसके साथ...?”
सुनकर शिबू ने फिर से अपनी माँ के लिए एक भद्दी-सी गाली निकाली थी, “क्या करूँ, मेरी किस्मत ही ऐसी है। बहन तो बहन, माँ भी उससे अच्छत-भर कम नहीं। कभी-कभी तो मेरे मन में आता है कि नदी में कूद कर जान दे दूँ।” मैंने उसे दिलासा दिया—“जाने दे यार, मैं समझ सकता हूँ।” लेकिन मैंने तापस के उसके घर से अँगोछे ठीक करते निकलने वाली बात झूठ कही थी।
मैं अच्छे परिवार से था, गाँव में मेरे पिताजी का बड़ा रसूख था। वैसे तो पिताजी कुछ नहीं करते थे, लेकिन मेरे पिताजी के पिताजी गाँव के ज़मींदार थे। मेरा घर बहुत बड़ा था, नौकर-चाकर थे, गाड़ी थी, टेलीफोन था। मेरी माँ हमेशा पूजा-पाठ करतीं और छुप-छुपकर रोती रहती थीं। मेरे सिर में हिमताज तेल लगाकर मालिश करती थीं और कहती थीं कि झूठ बोलना पाप होता है।
वह चोरी करने को भी पाप मानती थीं, जबकि मुझे चोरी करने में बड़ा मज़ा आता था। मेरे लिए चोरी करना एक नशे की तरह था। घर में ही नहीं, मैं स्कूल में भी चोरी किया करता था। जब कुछ करने को नहीं होता, मैं चोरी करता या झूठमूठ क़िस्से बनाता कि कल मैंने देखा कि तापस कमर में बंधे अँगोछे को ठीक करता हुआ...। शिबू अपनी माँ को गाली देते हुए कहता था कि एक दिन वह नदी में कूदकर अपनी जान दे देगा या बिना किसी से बताये घर छोड़कर बम्बई भाग जाएगा।
मैं उसे प्रोत्साहित करते हुए किसी फ़िल्म का डायलॉग मारता—“ऐसी ज़िन्दगी से तो मौत बेहतर।” मैंने उससे नहीं बताया कि मैं भी नैना को लेकर बम्बई भाग जाने के सपने देखा करता था। रात में सोने से पहले रोज़ ही मैं नैना के बारे में गन्दी-गन्दी बातें सोचा करता था। नैना के बारे में सोचते हुए अक्सर मैं उत्तेजना से तपने लगता। कभी बीच में मेरी माँ देखने आतीं कि मैं ठीक से सोया हूँ कि नहीं।
वे मेरी मसहरी ठीक करतीं, चादर ओढ़ा जातीं। कभी-कभी पलँग के पाये से लगकर देर तक मुझे सोते हुए देखतीं और न जाने क्या कुछ बुदबुदाती रहतीं। मैं दम साधकर सोने का नाटक करता।
हमारे घर मांस-मछली नहीं बनती थी। पिताजी वैष्णव थे, तुलसी धारण किया हुआ था। माँ ने बताया था कि वह अपने मायके में खाया करती थीं, शादी के बाद उन्होंने भी छोड़ दिया। घर में जो कुछ बनता-पकता था, पिताजी की रुचि के अनुसार ही।
मसलन, पिताजी को बैंगन पसंद नहीं था तो हमारे घर बैंगन कभी नहीं बना और आज तक मुझे मौक़ा नहीं मिला यह तय करने का कि बैंगन मुझे पसंद है या नहीं। पिताजी कढ़ी भी नहीं खाते थे, जबकि मुझे दही डली कढ़ी बहुत पसंद थी।
शिबू की माँ कभी-कभी मेरे लिए कढ़ी बनाया करती थीं और बुलाकर खिला दिया करती थीं। वे मछली भी क्या ही स्वादिष्ट बनाती थीं। एक दिन मैंने कहा—“काकी, अब से जब भी बनाना, मेरे लिए भी बना देना। मैं शिबू के साथ आकर खा जाया करूँगा।”
उन्होंने प्यार से मेरी ठोड़ी छूते हुए कहा था—“ठीक है, लेकिन दीदी को या ठाकुर दा को मत बताना।” गाँव के ज़्यादातर लोगों की तरह वह पिताजी को मालिक ठाकुर नहीं कहती थीं। हमारे परिवार से आत्मीयता जतलाने के लिए वह मेरी माँ को दीदी और पिताजी को ठाकुर दा कहती थीं।
अपने माता-पिता से सच न बोलना, अपने-आप में झूठ बोलने का स्वाद लिये होता। जिन दिनों हम सर्वाधिक झूठ बोल रहे होते, हमारे चेहरे सच के अपूर्व प्रकाश में खिले हुए होते। दुनिया के जघन्य अपराधियों के चेहरे साधुओं की शान्ति-दीप्ति लिये हुए होते। पिताजी का चेहरा हमेशा निर्लिप्त रहता था। वहाँ अमूमन कोई भाव नहीं होता। रेडियो पर क्रिकेट की उत्तेजक कमेंटरी सुन रहे होते और हमें भ्रम होता, वे सो गये हैं।
पिताजी दिन-भर सहन में पड़ी आरामकुर्सी पर पैर फेंके हुक्का पीते रहते थे और शतरंज की किसी उलझी बाज़ी में सिर गड़ाये रहते। वे हुक्का पीते हुए अकेले ही शतरंज खेला करते थे। मैं भी छिपकर हुक्का पीता था। मैं सोचता था कि जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो दिन-भर खुलेआम हुक्का पियूँगा। माँ कहती थीं, “छी-छी, हुक्का पीना गन्दी बात है।” मैं कहता, “लेकिन पिताजी तो पीते हैं।
तुम उन्हें तो कुछ नहीं कहा करतीं।” माँ कहतीं, “वे तो बड़े हैं।” मैं कहता, “ठीक है, जब मैं भी बड़ा हो जाऊँगा तो पिताजी की तरह गन्दी बातें किया करूँगा।” इस बात पर माँ कभी हँसने लगतीं, कभी आँख निकालकर डराती थीं। माँ ने मुझे तीन-चार दफ़े पीटा था, पिताजी ने कभी छुआ भी नहीं था। इस पर भी मैं माँ से नहीं डरता, लेकिन पिताजी से थर-थर काँपता था।
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कमेंट (2)
- Yashpal Vedji
बहुत ही सुन्दर
1 likes - Vandana Dev Shukl
अच्छी कहानी। शुरु मे मनोज रूपड़ा की कहानी " दहन " की याद दिलाती है ।
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