एपिसोड 1
मेरी जात के कुत्ते आम तौर पर दब्बू हुआ करते हैं, केवल कभी-कभी कोई, जो कई दिनों से खाली पेट हो, भूख से बिलबिला कर किसी को काट लेता है, लेकिन मैं अपनी जात के दोनों क़िस्म के कुत्तों में एक अपवाद था। कटखना था, लेकिन सबके लिये नहीं।
डॉग बम
कोई काली सी चीज़, कुछ अशुभ और भयानक, पीछा करता महसूस होताथा, लेकिन साफ नज़र न आता था। कुछ ऐसा जो सब कुछ तबाह करने पर आमादा था ... एक काली छाया, नक़ाब या लबादा, दस्ताना। विशालाक्षी आख़िरी मुलाकात में जो बताना चाहती थी, शायद वह इसी बारे में था, लेकिन उस समय मैं किसी और नशे में था, मैंने सुना ही नहीं और अब स्मृति से निकाल कर एक-एक वाक्य जोड़ता, कुछ मतलब निकालने की कोशिश करता हूं।
याद आता है, उसने बताया था कि वो जो भी हैं, उनकी पसंदीदा गाली ‘कुतिया’ है और इसके बाद ‘कुत्ता’। कहीं उनके बाकायदा दफ़्तर हैं जहां वे ध्यान से एक एक लाइन, एक-एक शब्द पढ़ते हैं। थूक लगा कर पन्ने पलटते हैं, वाक्यों को अंडरलाइन करते हैं और कभी-कभी हाशिये पर पेंसिल से कुछ दर्ज़ करते हैं। फिर वे कागज़ पर लिखे एक नाम, मसलन ‘नीरजा निषाद’, के आगे एक ‘सही’ का निशान लगाते हैं। सुबह शाम फ़ोन करते हैं ... कुतिया, बहुत गर्मी चढ़ गयी है, क्यों? और चीखते हुए कहते हैं, ये सब छापना बंद कर, वरना ...। वे झुटपुटे में भड़-भड़ करती बुलेट पर आकर दरवाज़ा पीटते हैं, कुतिया, मादर्च वगैरह। फिर वे किसी दिन कट्टे या सेमी आटोमेटिक के साथ आते हैं ... वही भड़-भड़-भड़ और कुतिया और मादर ...
ओह, मैं कैसे भूल गया कि यह बच्चों की कहानी है - बेशक बहुत छोटे, अबोध बच्चे, चंपक और नंदन और चंदामामा के पाठक नहीं, उनसे कुछ बड़े, जो थोड़ा-थोड़ा जानते हैं, जानने लगे हैं क्रूरता और बेउम्मीदी और अनुपस्थितियांं, फिर भी बच्चे ही- और बच्चों की कहानियां इस तरह नहीं कही जातीं।
बच्चों की कहानी, जो कभी-कभी अपने बड़ों की निगाह बचाकर हमारे पास आते हैं। उनके बड़े तो हमें देखते ही ...।
प्यारे बच्चो,
जो इस वक़्त तुमसे मुख़ातिब है, एक कुत्ता है, गलियों में भटकने वाला एक आम, अदना, आवारा कुत्ता। कमज़ोर, कुपोषित और कटखना। नहींं, अपनी जात के मामूली कुत्तों की तरह यूं ही जिस-तिस को काटते फिरना, यह मेरी फितरत नहीं, हरगिज़ नहीं, फिर भी, पता नहीं क्यों, हमेशा से, जब से याद कर पाता हूं, एक कटखने कुत्ते के रूप में बदनाम रहा हूं- एक खतरनाक, डरावना, गाढ़े काले रंग का कुख्यात, कटखना कुत्ता।
मेरी जात के कुत्ते आम तौर पर दब्बू हुआ करते हैं, केवल कभी-कभी कोई, जो कई दिनों से खाली पेट हो, भूख से बिलबिला कर किसी को काट लेता है, लेकिन मैं अपनी जात के दोनों क़िस्म के कुत्तों में एक अपवाद था। कटखना था, लेकिन सबके लिये नहीं। मैं सिर्फ उन पर हमला करता था जो ... जो ... कैसे कहूं? फिर भी कहानी सुनाने के लिये, बच्चों, मुझे कहना ही होगा।
मैं सिर्फ उन पर हमला करता था जो .... प्यार में पड़ जाते हैं लेकिन उसे निभाना नहीं जानते, धोखा देते हैं या वादे तोड़ते हैं या सबसे मुश्किल घड़ियों में अकेला छोड़ देते हैं यानी कापुरुष प्रेमी या दगाबाज़ आशिक़, इश्क के नाम पर कलंक। बहुत बचपन की मेरी यादें धुंधली हैं, लेकिन उनमें से एक कभी-कभी, न जाने कैसे, क्षणांश भर के लिये, साफ चमकती है, जैसे बरसात की घनघोर काली रात में आसमान के इस छोर से उस छोर तक बिजली की लकीर। मैं अपनी दुबली-पतली, सूखी, ढ़ेेर सारे बच्चे जन कर छलनी हो चुकी मदर और छह या सात नन्हे-मुन्ने भाई-बहनों के साथ एक पुल के नीचे लोहारों की बस्ती में रहता हूं।
वे गाड़ीवान लोहार हैं, राणा प्रताप के वंशज, जिनकी गाड़ियां ही उनका घर हैं, आंगन, बरामदा, बैठक, रसोई, बाथरूम और बेडरूम। वे दिन भर सड़क के किनारे आग में तपाया लाल लोहा पीटते हैं, ऊपर हर पांच मिनट पर मेट्रो धड़धड़ गुजरती है। पड़ोस में ढ़ोलवादकों और बैंड वालों की झुग्गियां हैं जिनके आगे तारों या दीवारों पर उनके पिचके, बेडौल बैंड बाजे और कलाबत्तू वाली ज़रीदार वर्दियां लटकी रहती हैं और वे दिन भर पीछे के खाली प्लॉट पर अपना बेसुरा रियाज़ करते हैं।
उनसे जुड़ी झोपड़ियाँ कारीगरों की हैं जिनके सामने अलग-अलग आकारों में मिट्टी या प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की बेशुमार मूर्तियां नज़र आती हैं- दुर्गा जी, सरस्वती जी, लक्ष्मी-गणेश और यही नहीं, गांधी जी, सुभाषचंद्र बोस, इंदिरा गांधी। एक से एक सुंदर, नई, पुरानी, साबुत या टूटी-फूटी, कुछ धूप में सूखती, पूरी, अधूरी, रंगीन या सफेद मूर्तियां। मैं जो मुश्किल से छह महीने का नन्हा पिल्ला रहा होऊंगा, एक लोहारिन का लाड़ला हूं, एक दस या बारह साल की बच्ची, और दिन भर उसका साया बना डोलता हूं।
कारीगरों का एक उसी की उम्र का लड़का उसका दोस्त है जिसे वह घर से पैसे चुरा कर न जाने क्या क्या खिलाती है, आइस्क्रीम, मूंगफलियाँ, भुने हुए भुट्टे और कभी कभी मोमो( मोम्मो-शोम्मो) और खरोड़े- उसे भी और मुझे भी। मोमो (मोम्मो-शोम्मो) वाला जो स्टेेशन के बाहर ठेला लगाता था, मुझे देखते ही खिल जाता था, पैसे भी नहीं लेता था।
वह मेघालय या मणिपुर से आया था, नाम था ह्वांगशॉनहाउ- और मुझे देखकर उसे शायद अपना कोई कुत्ता याद आता था जिसे वह पीछे, पहाड़ों में छोड़ आया था। लोहारिन और उसका कारीगर दोस्त, दोनों झुटपुटे या अंधियारे में अक्सर सबकी नज़र बचा कर किसी खाली झुग्गी या गाड़ी में .... खैर छोड़ियेे। एक दिन, जब मेरी लोहारिन की तबियत ख़राब है, उसके दोस्त को एक दूसरी लोहारिन के साथ एक खाली झुग्गी में जाते देखता हूं।
बताना मुश्किल है कि मुझे कितना गुस्सा आया। बस यह समझ लो कि मेरे खून में एक कोहराम मच गया। पीठ पीछे उन दोनों को दूर से देखते हुए, स्तब्ध और अवाक, मैं उस घड़ी महज गली का एक अदना कुत्ता नहीं था, मैं एक खतरनाक इरादे में, एक खूनी ख़याल में तब्दील हो गया था। मैं बरस पड़ने को तैयार एक तना हुआ खंजर था या एक ‘डॉग-बम’, फटने से एक पल पहले। लिबलिबी, जो अब दबी या तब। मैं उस बंद झुग्गी के बाहर इधर से उधर बेचैनी से टहलते इंतज़ार करता रहा और काफी देर के बाद जब वह बाहर आया तो पलक झपकने भर के वक्फे में पूरी ताकत और एकाग्रता से उसकी पिंडली ... खून छलक आने तक ....। कर ले बेटा बेवफाई, अब घुसवा पेट में चैदह दर्दनाक सुइयां।
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कमेंट (2)
- Pranay Kumar
बिलकुल नहीं
0 likes - Rinkee Mukesh Verma
bilkul nhi
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