एपिसोड 1

अमरकान्त सांवले रंग का, छोटा-सा दुबला-पतला कुमार था। अवस्था बीस की हो गई थी पर अभी मसें भी न भीगी थीं। चौदह-पंद्रह साल का किशोर-सा लगता था। उसके मुख पर एक वेदनामय दृढ़ता, जो निराशा से बहुत कुछ मिलती-जुलती थी, अंकित हो रही थी, मानो संसार में उसका कोई नहीं है।

जुर्मानालय

हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जिस तत्परता से फीस वसूल की जाती है, शायद मालगुजारी भी उतनी सख्ती से नहीं वसूल की जाती। महीने में एक दिन नियत कर दिया जाता है। उस दिन फीस का दाखिला होना अनिवार्य है। या तो फीस दीजिए, या नाम कटवाइए, या जब तक फीस न दाखिल हो, रोज़ कुछ जुर्माना दीजिए। 

कहीं-कहीं ऐसा भी नियम है कि उसी दिन फीस दुगुनी कर दी जाती है, और किसी दूसरी तारीख़ को दुगुनी फीस न दी तो नाम कट जाता है। काशी के क्वीन्स कॉलेज में यही नियम था। सातवीं तारीख़ को फीस न दो, तो इक्कीसवीं तारीख़ को दुगुनी फीस देनी पड़ती थी, या नाम कट जाता था। ऐसे कठोर नियमों का उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता था, कि गरीबों के लड़के स्कूल छोड़कर भाग जाएं- वही हृदयहीन दफ्तरी शासन, जो अन्य विभागों में है, हमारे शिक्षालयों में भी है। वह किसी के साथ रियायत नहीं करता। 

चाहे जहां से लाओ, कर्ज लो, गहने गिरवी रखो, लोटा-थाली बेचो, चोरी करो, मगर फीस ज़रूर दो, नहीं दूनी फीस देनी पड़ेगी, या नाम कट जाएगा। जमीन और जायदाद के कर वसूल करने में भी कुछ रियायत की जाती है। हमारे शिक्षालयों में नर्मी को घुसने ही नहीं दिया जाता। वहां स्थायी रूप से मार्शल-लॉ का व्यवहार होता है। कचहरी में पैसे का राज है, हमारे स्कूलों में भी पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निर्दय। 

देर में आइए तो जुर्माना, न आइए तो जुर्माना, सबक़ न याद हो तो जुर्माना, किताबें न ख़रीद सकिए तो जुर्माना, कोई अपराध हो जाए तो जुर्माना, शिक्षालय क्या है, जुर्मानालय है। यही हमारी पश्चिमी शिक्षा का आदर्श है, जिसकी तारीफ़ों के पुल बांधे जाते हैं। यदि ऐसे शिक्षालयों से पैसे पर जान देने वाले, पैसे के लिए गरीबों का गला काटने वाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा बेच देने वाले छात्र निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या है?

आज वही वसूली की तारीख़ है। अध्यापकों की मेजों पर रुपयों के ढेर लगे हैं। चारों तरफ़ खनाखन की आवाज़ें आ रही हैं। सराफ़े में भी रुपये की ऐसी झंकार कम सुनाई देती है। हरेक मास्टर तहसील का चपरासी बना बैठा हुआ है। जिस लड़के का नाम पुकारा जाता है, वह अध्यापक के सामने आता है, फीस देता है और अपनी जगह पर आ बैठता है। मार्च का महीना है। इसी महीने में अप्रैल, मई और जून की फीस भी वसूल की जा रही है। इम्तहान की फीस भी ली जा रही है। दसवें दर्जे में तो एक-एक लड़के को चालीस रुपये देने पड़ रहे हैं।

अध्यापक ने बीसवें लड़के का नाम पुकारा- अमरकान्त

अमरकान्त ग़ैरहाज़िर था।

अध्यापक ने पूछा- क्या अमरकान्त नहीं आया?

एक लड़के ने कहा- आए तो थे, शायद बाहर चले गए हों।

'क्या फीस नहीं लाया है?'

किसी लड़के ने जवाब नहीं दिया।

अध्यापक की मुद्रा पर खेद की रेखा झलक पड़ी। अमरकान्त अच्छे लड़कों में था। बोले- शायद फीस लाने गया होगा। इस घंटे में न आया, तो दूनी फीस देनी पड़ेगी। मेरा क्या अख्तियार है- दूसरा लड़का चले- गोवर्धनदास

सहसा एक लड़के ने पूछा- अगर आपकी इजाज़त हो, तो मैं बाहर जाकर देखूं?

अध्यापक ने मुस्कराकर कहा- घर की याद आई होगी। ख़ैर, जाओ मगर दस मिनट के अंदर आ जाना। लड़कों को बुला-बुलाकर फीस लेना मेरा काम नहीं है।

लड़के ने नम्रता से कहा- अभी आता हूं। क़सम ले लीजिए, जो हाते के बाहर जाऊं।

यह इस कक्षा के संपन्न लड़कों में था, बड़ा खिलाड़ी, बड़ा बैठकबाज़। हाज़िरी देकर गायब हो जाता, तो शाम की ख़बर लाता। हर महीने फीस की दूनी रकम जुर्माना दिया करता था। गोरे रंग का, लंबा, छरहरा शौकीन युवक था। जिसके प्राण खेल में बसते थे। नाम था मोहम्मद सलीम।

सलीम और अमरकान्त दोनों पास-पास बैठते थे। सलीम को हिसाब लगाने या तर्जुमा करने में अमरकान्त से विशेष सहायता मिलती थी। उसकी कापी से नकल कर लिया करता था। इससे दोनों में दोस्ती हो गई थी। सलीम कवि था। अमरकान्त उसकी ग़ज़लें बड़े चाव से सुनता था। मैत्री का यह एक और कारण था।

सलीम ने बाहर जाकर इधर-उधर निगाह दौड़ाई, अमरकान्त का कहीं पता न था। ज़रा और आगे बढ़े, तो देखा, वह एक वृक्ष की आड़ में खड़ा है। पुकारा- अमरकान्त ओ बुद्धू लाल चलो, फीस जमा कर। पंडितजी बिगड़ रहे हैं।

अमरकान्त ने अचकन के दामन से आँखें पोंछ लीं और सलीम की तरफ़ आता हुआ बोला- क्या मेरा नंबर आ गया?

सलीम ने उसके मुंह की तरफ़ देखा, तो उसकी आँखें लाल थीं। वह अपने जीवन में शायद ही कभी रोया हो चौंककर बोला- अरे तुम रो रहे हो क्या बात है-

अमरकान्त सांवले रंग का, छोटा-सा दुबला-पतला कुमार था। अवस्था बीस की हो गई थी पर अभी मसें भी न भीगी थीं। चौदह-पंद्रह साल का किशोर-सा लगता था। उसके मुख पर एक वेदनामय दृढ़ता, जो निराशा से बहुत कुछ मिलती-जुलती थी, अंकित हो रही थी, मानो संसार में उसका कोई नहीं है। इसके साथ ही उसकी मुद्रा पर कुछ ऐसी प्रतिभा, कुछ ऐसी मनस्विता थी कि एक बार उसे देखकर फिर भूल जाना कठिन था।

उसने मुस्कराकर कहा- कुछ नहीं जी, रोता कौन है?

'आप रोते हैं, और कौन रोता है। सच बताओ क्या हुआ?'

अमरकान्त की आँखें फिर भर आईं। लाख यत्न करने पर भी आंसू न रूक सके। सलीम समझ गया। उसका हाथ पकड़कर बोला- क्या फीस के लिए रो रहे हो- भले आदमी, मुझसे क्यों न कह दिया- तुम मुझे भी ग़ैर समझते हो। क़सम खुदा की, बड़े नालायक आदमी हो तुम। ऐसे आदमी को गोली मार देनी चाहिए दोस्तों से भी यह ग़ैरियत चलो क्लास में, मैं फीस दिए देता हूं। ज़रा-सी बात के लिए घंटे-भर से रो रहे हो। वह तो कहो मैं आ गया, नहीं तो आज जनाब का नाम ही कट गया होता।

अमरकान्त को तसल्ली तो हुई पर अनुग्रह के बोझ से उसकी गर्दन दब गई। बोला - पंडितजी आज मान न जाएंगे?

सलीम ने खड़े होकर कहा- पंडितजी के बस की बात थोड़े ही है। यही सरकारी क़ायदा है। मगर हो तुम बड़े शैतान, वह तो ख़ैरियत हो गई, मैं रुपये लेता आया था, नहीं खूब इम्तहान देते। देखो, आज एक ताज़ा ग़ज़ल कही है। पीठ सहला देना :

आपको मेरी वफ़ा याद आई,

ख़ैर है आज यह क्या याद आई।

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