एपिसोड 1
अनुक्रम
एपिसोड 1-3 :पेड़ों पर उगी प्रतीक्षित आँखें
नए एपिसोड, नई कहानी
एपिसोड 4-8 : पाँचवें पुरुष की तलाश में
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वह नहीं जानती दुर्भाग्य के पास हर ताले की चाबी है। वह किसी भी दरार से रिस सकता है। साबुत दीवार से प्रवेश कर सकता है। जब दुर्भाग्य आता है तो पेड़ स्वयं दैत्य बन जाते हैं। जीवनदायिनी नदी विपदा की आग उगलने लगती है।
कहानी: पेड़ों पर उगी प्रतीक्षित आँखें
दुर्भाग्य
वह हाथ आँगन की सरहद बेधड़क पार कर, खिड़की से होता हुआ आज रात पुनः कमरे के भीतर दाख़िल हो गया। मेरे गले पर उस का दबाव बढ़ता जाता था। मैं चिल्लाना चाहता था। कहना चाहता था, "मुझे माफ़ कर दो!" ख़ौफ़ज़दा गले से घुँ-घुँ के सिवा कुछ न निकलता था। मेरी फटी आँखों पर अपनी आँखें जमाए ,वह कह रहा था, "मेरी अमानत वापस करो!" घर के बड़े अहाते में लगे सभी पेड़ मैंने कटवा दिए थे लेकिन यह वटवृक्ष माँ की ज़िद के कारण बचा रह गया।
“पेड़ों का कटना दुर्भाग्य लाएगा” माँ कहती।
वह नहीं जानती दुर्भाग्य के पास हर ताले की चाबी है। वह किसी भी दरार से रिस सकता है। साबुत दीवार से प्रवेश कर सकता है। जब दुर्भाग्य आता है तो पेड़ स्वयं दैत्य बन जाते हैं। जीवनदायिनी नदी विपदा की आग उगलने लगती है। अहाते की ओर खुलती इस खिड़की को मैं यथासंभव बंद रखता। पेड़ के क़रीब से गुज़रते हुए, साँस रोक उस पर लटके सायों को देखता रहता। साए हर दिन दुगने हो जाते हैं। वह अचल रहते और मेरे पास पहुँचते ही धप्पा करते मेरी ओर दौड़ पड़ते। मैं पसीने-पसीने हो जाता। हड़बड़ा कर दौड़ता। कितनी दफ़ा गिर जाता। हाथ-पैर छिल जाते और उनका क्रूर अट्टहास मेरी पीठ से चिपक जाता। मेरी अवस्था देख माँ विनी से कहती है, "हो न हो, स्वप्निल पर कोई प्रेतबाधा है बहु।" सच यह है कि इन दिनों माँ मेरे लिए स्वयं प्रेत बन चुकी है। न गाँव जाने को राज़ी कि उसकी अनुपस्थिति में यह पेड़ कटवाया जा सके। न गाँव का घर बेचने को राज़ी कि उसे बेच कहीं और घर लिया जा सके। जहाँ आस-पास कोई पेड़ न हो। वह तिरस्कृत भाव से मुझे देखती है और कहती है बिन पेड़ों के दम घुट जाएगा।
"वही तो मैं समझाती हूँ इन्हें।" विनी समर्थन करती है। माँ न भी समझे पर विनी तो जानती है कि पेड़ों पर सड़े हुए शव हैं। उन्हें कैसे बताऊँ कि उन पर चील-कव्वे नाचते हैं। शोर मचाते हैं। यह वीभत्स दृश्य मुझे पागल किए है। रात होते ही पेड़ों के पत्तों पर चमकदार आँखे उग आती हैं। इनकी समवेत दृष्टि मेरी ओर देख आग उगलती है। आँखों से आदेश पारित होते हैं और पेड़ के बढ़ते हाथ मेरी गर्दन तक पहुँच जाते हैं। वे मुझे खींचकर अपनी दुनिया में ले जाना चाहते हैं। मेहमान चील को मेरा गोश्त देना चाहते हैं। पेड़ के शीर्ष पर बैठी मेहमान चील, लोलुप निगाहों से मुझे देख मुस्करा रही है। विनी कमरे में दाख़िल होती है और साये साँस रोक, दीवार में समा जाते हैं।
मैं चिल्लाता हूँ," खिड़की बंद कर दो।"
"कितनी तो उमस है।" वह साड़ी के पल्ले से अपना माथा पोंछते कहती है,"कमरे में कैसी महक है!" विनी सूंघते हुए अप्रसन्नता जताती है।
"जानती हो मेरे फेफड़ों में भरा पानी सड़ गया है। मछलियाँ मर रही हैं। मैं उन्हें कैसे बचाऊँ?" मेरी आँखें अनायास भीग उठीं।
रूम फ्रेशनर स्प्रे करते उसके हाथ रुक जाते हैं। वह घबराकर मेरे पास आ गई, "तुम ठीक तो हो? तुम्हारी साँस क्यों ऐसे चल रही है?" वह चिंतित स्वर में पूछती है। मुझसे नहीं। अपने आप से ही। इन दिनों मुझसे कोई उत्तर की आस कब रखता है।
"वे सब ऑक्सीजन चुरा कर ले गए।" मैं खिड़की के बाहर इशारा करते उसे सूचित करता हूँ। विनी डॉक्टर को फोन मिला रही है। कुछ ही देर में डॉक्टर का लंपट कंपाउंडर आएगा। मुझे नींद का इंजेक्शन देते उसकी नज़रें विनी पर होंगी। विनी उससे गुज़ारिश करेगी, "भैया ध्यान से, ज्यादा दर्द न हो।" और आँखे बंद कर मुँह फेर लेगी। नज़र फेर लेना, दर्द से बचने का सुलभ उपाय है। मुझे लगे इंजेक्शन का असर है। सब सो गए हैं। पेड़ों पर लटके साए भी ऊँघ रहे हैं। चीलों के लिए यह डोज़ ज्यादा है। वे बेहोश होकर, पके फलों सी आँगन में टपक रही हैं। रुकी हुई बारिश की छत से टपकती बूँदों के साथ टप-टप…टप-टप। ज़मीन को स्पर्श करते ही छोटी-सी बूँद फैल कर बड़ा घेरा बना लेती है। आँगन अनगिनत लाल घेरों से भर गया है। ज्यों अनेकों विधवाओं ने अपने माथे से बिंदी उतार आँगन में चिपका दी हो। एक बिंदी उठाकर मैंने विनी के माथे पर चिपका दी।
बारिश ने गियर बदला और बिंदी की लाल बत्ती को धत्ता बताते बादलों ने सिग्नल तोड़ दिया। स्मृतियों की आँख में भय का तिनका रड़कने लगा। तिनके को बहाने, बारिश बढ़ती जा रही है। बारिश के साथ मंत्रों का शोर भी। पवित्र गंध वातावरण में तैर रही है। जोश बढ़ता जाता है। भीगे तन संतृप्त मन से सब सोए हैं। बारिश की बूँदों के कोमल स्पर्श से अचानक किसी की वर्षों की तन्द्रा टूट गई। पानी ने पानी का तन चीर दिया। हिंसक व्यक्ति अपनी जाति के प्रति भी असहिष्णुता से भर उठता है। एक चीत्कार वादियों में गूँज गई और जल की प्रत्येक बूँद ने विनाश के संधि पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। बदला हवाओं में तैरने लगा। कोई भी गुनाह क्षम्य नहीं होता। दंड मिलता है। भले ही अगली पीढ़ी को। कुछ वसीयत प्रकृति गुपचुप लिखती रहती है। जब नींद टूटी हर ओर विनाश था। अपने सीने पर निर्मित हर अवैध निर्माण को जल बहा ले जा रहा था। क्रोध से फुफकारता जल, विवेक त्याग, द्रुत गति से आगे बढ़ रहा था। इंच- इंच पर अपने अस्तित्व की मोहर लगा दहाड़ता- "मह्यम् स्वाहा। इदं मम।"
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कमेंट (8)
- Vandana Singh
रात में पेड़ क्या मैं घर में लटके कपड़े देखकर भी दर जाती थी। लेकिन शादी के बाद से पता नही ये सारा दर भाग गया
0 likes - Chandrakala Tripathi
निधि अग्रवाल कहानी में ज़िंदा प्रसंग और असर रचती हैं।
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- Pratyaksha
मन के बीहड़ परत
1 likes - Yatendra Kumar
धाराप्रवाह भाव के बहाव में बहता हुआ । बहुत शानदार
1 likes - Anita Anni
अच्छी शुरुआत एक जटिल विषय -वस्तु के साथ।ये धप्पा कई बार हमें जगाता है और हम उस अवस्था से लौट सकते है ,जहाँ मानसकिता विकृति बन जाती है।पेड़ और माँ दोनों ज़रूरी है।
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