एपिसोड 1
माँ के लिए, अदृश्य होकर जीना ही स्त्री होकर जीना था। मैं बहुत कोशिश करती पर एकदम अदृश्य न हो पाती। कभी-कभी, कहीं-कहीं, मैं प्रकट हो जाती। अपनी इच्छाओं, अपने सपनों के साथ। पहले पहल मेरा इस तरह प्रकट होना बिल्ली के रास्ता काटने जैसा माना जाता था, फिर बाद में मुझे इस तरह प्रकट होने की सजाएँ मिलीं।
कुछ नहीं हुआ
अंधेरा अंधा था, इसलिए मेरे जीवन का अंधेरा रास्ता भटक कर उसके जीवन में और उसके जीवन का अंधेरा रास्ता भटक कर मेरे जीवन में चला आया। उसका जीवन मेरे जीवन से शहर के सबसे बड़े चौराहे पर स्थित कोचिंग सेंटर में मिला था। मेरे घर के नीचे गैराज़ में तीन बड़ी और दो छोटी गाड़ी खड़ी होती थी और उसके घर में एक सेकेंड हैंड साइकिल थी, जो उसने दो महीने पैसे जोड़ कर ख़रीदी थी। और सर्दियों की एक शाम वो साइकिल भी चोरी हो गयी। उस समय शाम उदास रहती थी और उसके बीतते बीतते लगता था जैसे कोई मर गया हो। उन दिनों हर शाम के सर एक मौत का इल्जाम रहता था। शामें चौड़े कंधों वाले मजदूरों में बदल गई थीं जो लाशें ढोने का काम करते थे।
मैं जो आपसे इतनी बात बताए जा रहीं हूँ। मैं एक लड़की हूँ और वो एक लड़का था। था इसलिए क्योंकि अब वो है कि नहीं मैं नहीं जानती। मैं यह भी नहीं जानती कि मैं कहाँ हूँ। मेरे भीतर मैं हूँ या कहीं खो गई हूँ ?
तो दिन, उन दिनों रेंगकर निकलते थे। एकदम सुस्त, घायल, और उदास। मेरे घर पर रफ़्तार का एक जश्न रहता था, जो मुझे छू भी नहीं पाता था। प्रदेश में तीन बड़ी और ताक़तवर राजनीतिक पार्टियां थीं और एक लगभग मर चुकी पुरानी पार्टी भी थी। मेरे तीनों भाई तीन अलग-अलग पार्टियों में थे। मेरे पिता जी देश की सबसे पुरानी और प्रदेश में लगभग मर चुकी घाघ पार्टी के पुराने नेता थे। चार मंजिलों वाले महलनुमा घर में हर मंज़िल पर अलग अलग पार्टियों के झंडे थे और ग्राउंड फ्लोर पर पिता जी के नाम के नीचे उनकी घाघ पार्टी और उनके पद का नाम लिखा था। मेरा कहीं कोई नाम नहीं था। न मेरा कोई झंडा था और न मेरी कोई पार्टी थी। शायद मैं भी नहीं थी अपने उस महलनुमा घर में। मेरी माँ भी शायद ही थी। होते हुए न होना मैंने माँ से सीखा था। उसने मुझे यह कला सिखाई थी। माँ को लगता था, इस कला में निपुणता स्त्रियों के लिए जीवन की पहली शर्त है।
माँ के लिए, अदृश्य होकर जीना ही स्त्री होकर जीना था। मैं बहुत कोशिश करती पर एकदम अदृश्य न हो पाती। कभी-कभी, कहीं-कहीं, मैं प्रकट हो जाती। अपनी इच्छाओं, अपने सपनों के साथ। पहले पहल मेरा इस तरह प्रकट होना बिल्ली के रास्ता काटने जैसा माना जाता था, फिर बाद में मुझे इस तरह प्रकट होने की सजाएँ मिलीं।
मैं अदृश्य होने की कला पर गंभीरता से काम करती और ज़्यादातर अदृश्य रहने की कोशिश करती। मेरे पिता कहते स्त्रियाँ देवी होती हैं। उनके कहने का मतलब होता कि स्त्रियों के पास अदृश्य होने की शक्ति होती है इसीलिए वे देवी होती हैं। मैं देवी होने की कोशिश कर रही थी। मैं पूरे मनोयोग से अदृश्य होने की कला सीख रही थी कि बीच में शुक्रवार आ गया। शुक्रवार, जिसके शरीर पर कांटे थे। जेब में खंज़र था और आँखों में लहू तैर रहा था।
उस शुक्रवार से पहले गुरुवार था और उससे पहले बुधवार और उससे पहले ऐसे ही वारों से भरे कई हफ़्ते थे। इन हफ़्तों में मैंने उस लड़के की आँखों में खुद के लिए जगह देखी थी। एक महल वाली बेघर लड़की के लिए जगह। इस जगह को ही अगर 'प्रेम' कहते हैं तो मैंने 'प्रेम' को देख लिया था। और अगर 'प्रेम ही ईश्वर है' वाक्य सत्य है तो मैंने 'ईश्वर' को देख लिया था। ईश्वर को देखने के बाद कोई कैसे साधारण बना रह सकता था। मैं अपने भीतर उग रहे असाधारण से डरती थी। मुझे डर था कि कहीं किसी दिन मैं इस असाधारण के साथ न प्रकट हो जाऊँ। मुझे जब जब यह भय सताता मैं पूरी ताक़त से अदृश्य होने का अभ्यास करने लगती।
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कमेंट (4)
- Akanksha Sharma
"महल वाली बेघर लड़की" ❤️
1 likes - Sunil Chaudhary
वाह, अच्छा लग रहा है आपको यहाँ पढ़ते हुए💐
1 likes - Kamlesh Jha
बहुत सुंदर भाषा । गहन अर्थपूर्ण वाक्य । वाह!
1 likes - वैश्विक हिंदी
कहानी शेष है...... अगले हफ्ते खेतों में उस नाले में पड़े लड़के के पिताजी ने जो शायद दूध दुहते थे, जो शायद जूते सीते थे, जो शायद खिड़की दरवाज़े बनाते थे अपनी बेटी को जो शायद वनों में रहते हैं, जो शायद सभी का मैला सर पर उठाते हैं जो शायद पत्तल बनाते हैं उसके बेटे के साथ देख लिया.......नतीजा वही हुआ इस दिन शुक्रवार नहीं सोमवार था.....और गुरुवार को जब कुछ नहीं हुआ सभी ने कहा तब शायद नाले में.......ठीक उसी तरह.....
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